Apr ०४, २०१६ ११:५९ Asia/Kolkata

ईरान में क़ालीनों पर प्रचलित डिज़ाइनों में से एक डिज़ाइन, वृक्षों के डिज़ाइन हैं जिन्हें विभिन्न ढंग से पेश किया गया है।

ईरान में क़ालीनों पर प्रचलित डिज़ाइनों में से एक डिज़ाइन, वृक्षों के डिज़ाइन हैं जिन्हें विभिन्न ढंग से पेश किया गया है। यह डिज़ाइन, महत्वपूर्ण पौराणिक कथाओं के आधार पर हैं जिनके बारे में रोमानिया के पौराणिक कथाओं के विशेषज्ञ Mircea Eliade का कहना है कि विश्व के पेड़ों को डिज़ाइन के रूप में पेश करना वास्तव में एक प्रकार से सृष्टि को प्रतीकात्मक रूप में पेश करना है। इन वृक्षों का महत्व हमारे जीवन में स्पष्ट है। अति प्राचीनकाल में इस प्रकार के प्रतीकों को प्रकाश, अनंत, पुनर्जीवन, जीवन के स्रोत, और वास्तविकता के रूप में देखा जाता था।

वृक्षों के डिज़ाइनों को, जिन्हें सामान्यतः साइप्रस ट्री या सरू के वृक्ष के रूप में दिखाया जाता है, विभिन्न प्रकार के डिज़ाइनों में सम्मिलित किया जाता है। सरू के वृक्ष को केवल क़ालीनों के डिज़ाइन में ही नहीं बल्कि, इसे कपड़ों, धातुओं, पत्थरों और पारंपरिक कलाओं में भी प्रयोग किया जाता है।

सरू वृक्ष के डिज़ाइन ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं। इस्लाम के उदय से पूर्व और उसके उदय के बाद वाले कालों में उसमें स्पष्ट रूप से बदलाव देखने में आए हैं। सरू का वृक्ष आरंभ में पवित्र वृक्ष का प्रतीक हुआ करता था। इसको प्रसन्नता, हरियाली, बहार और वैभव का प्रतीक माना जाता था। सरू को विभिन्न सभ्यताओं की कलाओं में पेश किया गया है। इन नमूनों में सरू के पेड़ को थोड़ा झुके हुए ढंग से दिखाया गया है जिसकी शाखें ऊपर की ओर उठी हुई हैं। सरू के इस रूप को तख़्ते जमशेद में स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है जिसे बहुत ही सूक्ष्मता और निपुर्णता से बनाया गया है। हालांकि पार्त और सासानी कलाओं में सरू को पवित्र पेड़ के रूप में नहीं बताया गया है बल्कि इसे प्राचीन परंपरा के रूप में प्रदर्शित किया गया है।

इस्लामी सभ्यता के उदय और उसके शिखर तक पहुंचने के दौरान सरू का वृक्ष अपनी प्राचीनता खो बैठा। इसी प्रकार अब वह अपना धार्मिक रूप भी खो बैठा। इसके बावजूद इस बात के प्रमाण पाए जाते हैं कि सरू के पेड़ को अब भी प्रसन्नता और सदाबहार का प्रतीक समझा जाता है। छठी हिजरी के बाद से सरू का पेड अपनी सादगी से निकल आया और वह परिपूर्णता की ओर बढ़ा जिसके बाद इसे बेलबूटेदार झाड़ी के नाम से मशहूर हुआ। बाद में धीरे-धीरे सरू के इसी रूप ने ईरानी क़ालीनों पर अपनी छाप छोड़ी।

ईरान के क़ालीनों में पाए जाने वाले डिज़ाइनों में से एक डिज़ाइन का नाम गुलिस्तान है जिसने सफ़वी काल में गुलज़ार के नाम से ख्याति प्राप्त की। एक अमरीकी इतिहासकार ए-पोप का कहना है कि गुलिस्तान डिज़ाइन को फ़िरदौस और पालीज़ के नाम से भी जाना जाता है। यह एसा डिज़ाइन है जिसे सदैव ही ईरानियों के विचारों में विशेष महत्व रहा है। फ़िरदौस वह बाग है जो एक के पीछे एक कई घेरों में घिरा हुआ है। उनमे से एक घेरा सबसे बड़ा है जिसे फ़िरदौस को हर प्रकार की बुराई से बचाने के लिए बनाया गया है। इन घेरों की संख्या सात है। यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि सात की संख्या को इस्लामी तत्वदर्शियों की दृष्टि में विशेष महत्व प्राप्त है और वे उसे पवित्र मानते हैं।

फ़िरदौस में अमर झरने हैं। यह झरने सदैव बहते रहते हैं। फ़िरदौस में विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी और वनस्पतियां पाई जाती हैं जो बिना किसी नुक़सान या भय के अमर जीवन व्यतीत कर रही हैं। यही विषय, क़ालीन पर डिज़ाइन बनाने वाले के मन में है जिसे उसने क़ालीन पर प्रतिबिंबित किया है। क़ालीन पर यह डिज़ाइन एक प्रकार से स्वर्ग के बाग़ अर्थात फ़िरदौस को प्रतिबिंबित कर रहा है। ईरानी क़ालीनों पर बने गुलिस्तान बाग़ में ज्योमिति आकार में हौज़ या केन्द्रीय जलापूर्ति को दिखाया गया है। डिज़ाइन में मुख्य हौज़ के चारों ओर जलापूर्ति की व्यवस्था को चार सजे हुए छोटे बागों के रूप में एसे दिखाया गया है जिनपर वनस्पतियों के चित्र बने हुए हैं। इस बाग़ में मछलियां, पक्षियों और पशुओं आदि को देखा जा सकता है।

ईरानी क़ालीन के डिज़ाइन में दर्शाई गई स्वर्ग के बाग़ की मिथक कथाओं में विभिन्न प्रकार की शैली देखने को मिलती है। इसमें “तुरंज” के नाम का पानी से भरा हौज़ दिखाया गया है। तुरंज के कई अर्थ बताए जाते हैं जैसे कठोर, सूखा, एक-दूसरे से मिला हुआ आदि।

पांडुलिपियों को सुसज्जित करने में प्रथम पृष्ठ के पिछले हिस्से पर तुरंज का नूमना या डिज़ाइन बनाया जाता था। बाद में उसे सोने के पानी से किताब के नाम या उसके लेखक के नाम या फिर जिस बारे में वह लिखी गई है उसके नाम के साथ लिखा जाता है। तुरंज के डिज़ाइन में व्यवस्था और सूक्ष्मता के साथ ही विशेष प्रकार की जटिलता भी पाई जाती। कुछ विशेषज्ञो का मानना है कि यह इसलिए है कि किसी डिज़ाइन या नमूने में सुन्दरता प्रदर्शित करने के लिए प्रकृति में पाई जाने वाली व्यवस्था की ओर देखकर उससे लाभ उठाना चाहिए। उनका कहना है कि इस प्रकार आदर्श वातावरण को चित्रित किया जा सकता है।

वह पहला प्रतीक जो, तरंज डिज़ाइन की भूमिका था वह स्वस्तिक था इस चिन्ह को इस्लाम के उदय से शताब्दियो पूर्व प्रयोग किया जाता रहा है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम वह स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दाईं ओर मुड़ती हैं। इसे 'स्वस्तिक' कहते हैं। यही शुभ चिह्न है, जो एक कथनानुसार प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'वामावर्त स्वस्तिक' कहते हैं।

आर्यो का यह प्रतीक शताब्दियों पुराना है। इसके प्रभाव को विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में देखा जा सकता है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि स्वास्तिका की उत्पत्ति का स्थल, मध्य एशिया रहा है। कहते हैं कि आर्य लोग इसे यहीं से ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और भारत ले गए थे।

स्वस्तिक या “खुर्शीदे आरियाई” का सबसे पुराना नमूना, चार से पांच शताब्दी ईसा पूर्व ईरान के शूश में मिला था। इसी प्रकार ईरानियों द्वारा हाथ से बनी वह वस्तु, पश्चिमोत्तरी ईरान के आज़रबाइजान में खुदाई के दौरान मिली जिसपर यह चिन्ह बना हुआ था। इसका संबन्ध अशकानियान काल से है। बहुत से विशेषज्ञों का मानना है कि स्वास्तिका का चिन्ह एक प्रकार से घड़ी की सुइयों की भांति है।

अंत में यह कहा जा सकता है कि कलाओं के प्रतीकों के अध्ययन से यह बात समझी जा सकती है कि वर्तमान या आधुनिक कला के विपरीत, स्वास्तिका या “खुर्शीदे आरियाई” जैसे प्राचीन प्रतीकों को दार्शनिक और तत्वदर्शी दृष्टिकोण से देखना चाहिए और मनुष्य की आत्मा पर पड़ने वाले इसके प्रभाव की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए।