Aug ०७, २०१८ ११:२५ Asia/Kolkata

ईरान, इस्लामी क्रान्ति की सफलता से पहले पश्चिम पर निर्भर देश था।

रज़ा ख़ान पहलवी के शासन काल में स्वयं रज़ा ख़ान से लेकर उनके अधीन अधिकारी बहुत ज़्यादा ब्रिटेन पर निर्भर थे क्योंकि ब्रितानियों ने रज़ा ख़ान को सत्ता में पहुंचाया था और उस पर उन्हें पूरा नियंत्रण था। स्वयं ब्रितानियों ने रज़ा ख़ान को सत्ता से हटाया और उसकी जगह पर उसके बेटे मोहम्मद रज़ा को राज गद्दी पर बिठाया। लेकिन मोहम्मद रज़ा का रुझान अमरीका की ओर था और उसका व्यवहार बहुत ही अपमानजक होता था। वह अमरीकी इच्छाओं के सामने बेबस नज़र आता था बल्कि ऐसा लगता था मानो अमरीका का ख़रीदा हुआ ग़ुलाम हो।

 

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई पहलवी शासन के पश्चिम की ओर रुझान और उसके अंजाम के बारे में फ़रमाते हैः " जिस देश के अधिकारी अमरीका के आदेश को मानें, तो वह देश और राष्ट्र क्या करेगा? सीधी सी बात है कि ऐसे देश में ऐसे कामों का फ़ैसला लिया जाएगा जिससे अमरीका के हित पूरे हों। लेन-देन से लेकर प्रचार, लोगों को ऊंचे पद पर लाने, हटाने, लोगों की नियुक्ति, कुल मिलाकर यह कि जो कुछ आक़ाओं  के हित में होंगे वहीं काम अंजाम पाएगा। जिसमें लोगों का हित होगा वह काम अंजाम नहीं पाएगा। किसी राष्ट्र में स्वाधीनता न होना, बहुत बड़ी समस्या है और यह समस्या पिछले शासन में मौजूद थी। अतीत में इस देश की सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि मन्हूस पहलवी शासन अमरीका पर निर्भर था और उससे पहले ब्रिटेन पर निर्भर था। वे बताते थे कि किसे पदोन्नति दी जाए, किसे प्रधान मंत्री बनाया जाए, किसे पेट्रोलियम कंपनी का अधिकारी या पेट्रोलियम मंत्री बनाया जाए। जिसे अमरीकी कहते थे उन्हें उच्च स्थान व पद दिया जाता था। जो व्यक्ति इस राष्ट्र के विदेशी दुश्मन को मंच से हटाने की कोशिश करता था, पहलवी शासन पूरी ताक़त से उसे हटाने पर लग जाता था। इस राष्ट्र में वह काम जिसमें अमरीकियों का फ़ायदा होता था, सरकारी तंत्र अंजाम देता था। अगर कोई काम उनके ख़िलाफ़ और जनहित में होता था, उसे अंजाम नहीं दिया जाता था बल्कि उसके ख़िलाफ़ सारी कोशिश होती थी। किसी देश के स्वाधीन न होने में यह हालत होती है।                 

इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी और वरिष्ठ नेता की नज़र में पहलवी शासकों की पूरी तरह पश्चिम पर और ख़ास तौर पर अमरीका पर निर्भरता और देश के मुख्य मुद्दों के संबंध में फ़ैसला लेने में बेबसी अतीत की मुख्य मुश्किलें थीं।

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ब्रिटेन और अमरीका पर पहलवी शासकों की अपमानजनक निर्भरता का इन शब्दों में वर्णन करते हैः "इस देश में ईरान-ब्रिटेन के बीच तेल के समझौते को ख़त्म होने में कुछ दिन बचे थे। पहले पहलवी शासक रज़ा ख़ान के दौर में कुछ लोग बैठे कि समझौते का ऐसा स्वरूप तय्यार करें कि कुछ हद तक ईरान के हित सुनिश्चित हो सके। रज़ा ख़ान मंत्रीमंडल की बैठक में पहुंचे और संबंधित मंत्री के सामने समझौते का मसौदा उठाया और वहीं आंखों के सामने उसे हीटर में जला दिया। ऐसा क्यों किया? क्योंकि इससे पहले ब्रिटेन के राजदूत और विशेष एलची ने रज़ा ख़ान से मुलाक़ात की थी। एक दो घंटे उसके साथ निजी बैठक की थी और उस निजी बैठक में जो कुछ कहना था कह चुका था। वह भी आया और उसने उस चीज़ को जिससे ईरान के थोड़े बहुत हित सुनिश्चित होते और जिसे दुश्मन सहन नहीं कर पा रहा था, हीटर में जला दिया। प्रिय लोगो! इस देश में पहलवी शासन का पूरा इतिहास इसी तरह का रहा है। अगर किसी चीज़ में, किसी काम में, किसी मामले में अमरीकी हित थे तो देश के अधिकारियों के लिए उनके ख़िलाफ़ व्यवहार करने की हिम्मत न थी बल्कि उनके दृष्टिकोण के अनुसार व्यवहार करते थे।"               

 

उस समय अमरीकी सलाहकार और दसियों हज़ार दूसरे अमरीकी देश के बहुत अहम सैन्य, गुप्तचर, आर्थिक और राजनैतिक केन्द्रों में संवेदनशील पदों पर आसीन थे और बहुत पैसा कमा रहे थे। सच बात तो यह है कि वे काम नहीं करते थे बल्कि वे सरकारी तंत्र को चला रहे थे।

उस समय क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मामलों यहां तक कि तेल की क़ीमत, उसे बेचने की शैली और ईरान में विदेशी कंपनियों की स्थिति जैसे आर्थिक मामलों के संबंध में शाही शासन वह काम करता था जो अमरीकी उससे चाहते थे और इस तरह शाही शासन ने इस देश की संपत्ति को विदेशियों को लूटने की खुली छूट दे रखी थी। पहलवी शासन और ख़ास तौर पर मोहम्मद रज़ा शाह के बड़े अपराधों में एक अपराध यह भी था कि उसने देश को तकनीकी, औद्योगिक और आर्थिक दृष्टि से पश्चिम पर निर्भर कर रखा था और दिन ब दिन पश्चिम पर ईरान की निर्भरता बढ़ती जा रही थी। रोटी, खाद्य पदार्थ से लेकर दूसरी अन्य चीज़ों में ईरान विदेश पर इस तरह निर्भर हो गया था कि अगर एक दिन दुश्मन चाहता तो पूरे देश को हर चीज़ से वंचित कर देता। शाही शासन ने इस तरह अपने राष्ट्र का अपमान किया था और इस तरह देश का संचालन कर बहुत बड़ी ग़द्दारी की थी। यह भी उन मुद्दों में शामिल है जिनकी वजह से राष्ट्र शाही शासन के ख़िलाफ़ हो गया था।              

शाही शासन के गिरने में दूसरे बड़े तत्वों में भ्रष्टाचार और उद्दंडी शासकों का धर्म से बैर भी शामिल था और यह वह चीज़ थी जिसके संबंध में ईरान का मुसलमान राष्ट्र ख़ामोश नहीं रह सकता था। रज़ा ख़ान पहलवी ने जिसे ब्रिटेन ने सत्ता पर पहुंचाया था, एक सैन्य पृष्ठिभूमि का हिंसक व्यक्ति था। उसका लालन पालन एक निरक्षर परिवार में हुआ जिसका इस्लामी शिक्षाओं से दूर का भी नाता न था। उसने अपनी जवानी चाय के होटलों और शराबख़ानों में बितायी थी। उसे धर्म से कोई लगाव न था बल्कि धर्म के साथ सौदेबाज़ी के लिए तय्यार था। इसी वजह से वह ब्रिटेन के समर्थन से शासक बना। ब्रिटेन पूरी तरह ईरान पर नियंत्रण करना चाहता था। यह नियंत्रण वास्तव में एक ब्रितानी हुकूमत के गठन की कोशिश थी जिसमें वह कभी सफल न हुए या एक ऐसी ईरानी हुकूमत का गठन जो पिट्ठु हो। यानी ऐसी हुकूमत जिसकी लगाम उनके हाथ में हो। दूसरे रास्ते को चुना गया और पहलवी शासन इस निर्णय के आधार पर वजूद में आया और रज़ा ख़ान ने सत्ता संभाली।

 

जिस समय उसने तुर्की और कुछ योरोपीय देशों का दौरा किया और उसे उनकी तरक़्क़ी को देखकर लगा कि यह तरक़्क़ी जनता को धर्म से अलग करने के नतीजे में हासिल हुयी है, इसलिए उसने ईरान लौट कर ईरानी जनता को पूरी तरह धर्म से दूर करने का फ़ैसला किया और इस काम के लिए उसने बहुत कोशिश की लेकिन उसे कभी कोई सफलता नहीं मिली।                 

आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई इस बारे में फ़रमाते हैः "दबंग रज़ा ख़ान ने जब चाहा कि पश्चिम से हमारे लिए उपहार लाए तो पहली चीज़ जो लाया वह लेबास था और हेजाब को हटाना था। वह भी ताक़त के बल पर बिल्कुल अपनी सैन्य दबंगई की तरह। कपड़े लंबे नहीं होने चाहिए बल्कि छोटे हों, टोपी इस तरह की हो। बाद में उसे भी बदल दिया गया और कहा गया कि नहीं शैपो हैट हो। अगर कोई पहलवी हैट को छोड़कर किसी दूसरी तरह की हैट लगाने की हिम्मत करता, या छोटे लेबास को छोड़कर कुछ और पहनता तो उसे घूंसा खाना पड़ता, भगा दिया जाता था। ये चीज़े पश्चिम से ली गयी थीं। औरतों को हेजाब पहनने की इजाज़त नहीं थी, सिर्फ़ चादर ही नहीं, चादर तो ख़त्म कर दी गयी थी। बल्कि अगर स्कार्फ़ पहनती और अपनी ठुड्डी थोड़ी छिपा लेती थीं तो मार खाती थीं क्योंकि पश्चिम में औरतें सिर खोल कर रहती थीं। ये सब पश्चिम से आया। जिस चीज़ की इस राष्ट्र को ज़रूरत थी नहीं लायी गयीं। ज्ञान नहीं आया, कोशिश व लगन की भावना नहीं आयी, जोखिम उठाने की भावना नहीं आयी।"                

रज़ा ख़ान के दौर में उन मदरसों को बंद कर दिया गया जहां चार साल से बड़े बच्चों को क़ुरआन और क़ुरआनी कहानियों की शिक्षा दी जाती थीं। उस समय शाह अपनी वीरता को धर्म विरोधी व्यवहार में दिखाता और देश की तरक़्क़ी के संबंध में एक निराश व निठल्ले इंसान की तरह व्यवहार करता था।

ब्रिटेन द्वारा रज़ा ख़ान को हटाए जाने और उसके बेटे मोहम्मद रज़ा के सत्ता में आने के बाद भी जनता को धर्म से दूर करने की कोशिश जारी रही लेकिन मोहम्मद रज़ा ने अधिक आधुनिक अंदाज़ में इस लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश की और जब तक क्रान्ति सफल नहीं हो गयी तब तक वह इस लक्ष्य को हासिल करने में लगा रहा।

पहलवी शासन का एक और धर्म विरोधी व्यवहार, जवानों को भ्रष्टाचार की ओर ढकेलना था। आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई की नज़र में इस्लामी देशों में जवान पीढ़ी को बर्बाद करने के लिए 200 साल पहले कार्यक्रम शुरु हुए। साम्राज्य के दौर में अर्थात एशियाई और अफ़्रीक़ी देशों में पश्चिमी देशों की दख़लअंदाज़ी के दौर में वे जानते थे कि अगर उन क्षेत्रों के जवान का बौद्धिक विकास हुआ और उसमें फ़ैसला लेने की क्षमता पैदा हो गयी तो वे साम्राज्य को अपने अपने देश में ठहरने नहीं देंगे कि उनके देश की संपत्ति को लूटे इसलिए साम्राज्य ने जवानों को बर्बाद करने की साज़िश तय्यार की।

 

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता फ़रमाते हैः "आपने जो कुछ किताबों और लेखों में पढ़ा है कि पूर्वी एशिया या लेटिन अमरीका के कुछ देशों में जवान पीढ़ी मादक पदार्थ और व्याभिचार सहित नाना प्रकार के भ्रष्टाचार में लिप्त है, ऐसा शुरु से नहीं था, ऐसा लागू किया गया है। अफ़सोस की बात है कि शाही शासन में भी ऐसा ही था। इस देश में भी ग़द्दार पहलवी शासन और उसके सलाहकार से जितना मुमकिन हुआ, इस नीति को लागू किया और कुछ जवानों को भ्रष्टाचार की ओर घसीटा।"

 

 

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