मुल्ला सद्रा- 2
सदरुद्दीन मोहम्मद क़ेवाम शीराज़ी उर्फ़ मुल्ला सदरा का जन्म 9 जमादिल अव्वल सन 980 हिजरी क़मरी बराबर 1571 ईसवी को शीराज़ में हुआ।
उन्होंने आरंभिक शिक्षा ट्यूशन के ज़रिए हासिल की। चूंकि वह बहुत तीक्षण बुद्धि के थे इसलिए बहुत ही कम समय में उन्होंने फ़ारसी और अरबी भाषा व साहित्य तथा लेखन का ज्ञान हासिल कर लिया। इसी तरह उन्होंने गणित, ज्योतिष शास्त्र, धर्मशास्त्र, इस्लामी अधिकार, दर्शन शास्त्र, तर्क शास्त्र और थोड़ी बहुत चिकित्सा विज्ञान सीख। उन्होंने इन सभी विषयों में ज्ञान हासिल किया लेकिन दर्शन शास्त्र और आध्यात्म उनका मुख्य विषय था। इन्हीं विषयों में उन्हें रूचि थी। उनका परिवार चूंकि शीराज़ से क़ज़्वीन पलायन कर गया था इसलिए सदरुद्दीन मोहम्मद उर्फ़ मुल्ला सदरा ने आरंभिक और माध्यमिक शिक्षा क़ज़्वीन में हासिल की। आम बच्चों की तुलना में वे बहुत तेज़ी से उच्च शिक्षा के स्तर पर पहुंच गए। उन्हें क़ज़्वीन में दो तत्कालीन महान शिक्षकों शैख़ बहाई और मीरदामाद का शिष्य बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और बहुत कम समय में वह उनके शिष्यों में सबसे मेधावी शिष्य बन कर उभरे। सफ़वी शासन काल में क़ज़्वीन से राजधानी इस्फ़हान स्थानांतरित हुयी तो सदरुद्दीन मोहम्मद उर्फ़ मुल्ला सदरा भी अपने शिक्षकों के साथ इस्फ़हान आ गए और कुछ समय बाद उन्हें अपने शिक्षकों से पढ़ाने की इजाज़त मिल गयी। उन्होंने उसी समय से दर्शनशास्त्र के एक नए मत की आधारशिला रखी जो उन्हीं के नाम से मशहूर है। इसी तरह हमने यह भी बताया कि अभी उनके इस प्रयास को ज़्यादा समय नहीं गुज़रा था कि कुछ छिछली नज़र रखने वाले धर्मगुरुओं के दबाव में जो उनके आध्यात्मिक मत के ख़िलाफ़ थे, मुल्ला सदरा इस्फ़हान छोड़ने पर मजबूर हुए। वहां से वे क़ुम के निकट ‘कहक’ नामक गांव चले गए। एक कथन के अनुसार 5 साल और दूसरे कथनानुसार 15 साल बाद वे वहां से शीराज़ चले गए।
क़ुम और शीराज़ में मुल्ला सदरा और उनके परिवार के आवास के दौर को उनके जीवन का सबसे अहम दौर कहा जा सकता है। क़ुम में पांच साल अध्यात्म में लीन रहने और शुहूद नामक आत्मज्ञान के विशेष चरण में पहुंचने के बाद उन्होंने अपनी ख़ामोशी तोड़ी और फिर शिष्यों के प्रशिक्षण, किताबों का लेखन तथा अपने दार्शनिक मत को पेश करना शुरु किया। 1040 हिजरी क़मरी में मुल्ला सदरा शीराज़ के शासक अल्लाह वर्दी ख़ान के निमंत्रण पर अपने वतन शीराज़ लौट गए और ख़ान मदरसे में दर्शनशास्त्र, पवित्र क़ुरआन की व्याख्या और हदीस का ज्ञान देना शुरु किया। "से अस्ल" नामक किताब से जो उन्होंने उसी समय शीराज़ में फ़ारसी ज़बान में लिखी, पता चलता है कि उन्हें अपने दौर के दार्शनिकों, धर्मशास्त्रियों और भौतिकशास्त्रियों सहित विद्वानों की ओर से कड़ी आलोचनाओं का सामना था लेकिन इस बार वह अपने दृष्टिकोण पर डटे रहे। उन्होंने दबावों का डट कर मुक़ाबला करने का संकल्प लिया और अपने मत को क़ायम तथा उससे परिचित कराया।
मुल्ला सदरा की कुछ किताबों से पता चलता है कि वे किस समय कहक या शीराज़ में लिखी गयीं जबकि कुछ किताबों से उनके लेखन की तारीख़ का पता नहीं चलता। चूंकि मुल्ला सदरा ज्ञान में खोए रहते थे, इसलिए उन्होंने किताबों की तारीख़ लिखने पर ध्यान न दिया या जिस लीपिकार ने उनकी अस्ल किताब की नक़ल उतारी वह उसकी तारीख़ लिखना भूल गया।
कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि मुल्ला सदरा के साहसिक जीवन का एक आयाम, पवित्र काबे के दर्शन के उनके सफ़र हैं। कहते हैं कि उन्होंने 7 बार पैदल यह आध्यात्मिक सफ़र किया। आज के दौर में इतनी सुविधाओं के बावजूद हज करना एक कठिन संस्कार है तो उस दौर में कितना कठिन रहा होगा। 400 साल पहले हाजी हज यात्रा घोड़े या ऊंट से सऊदी अरब का मध्य मरुस्थलीय भाग पार करते थे। इसलिए हज यात्रा आध्यात्मिक लोगों के लिए अपने आप में एक बड़ी तपस्या समझी जाती थी। उस समय लोग बड़े बड़े कारवां के रूप में हज के लिए निकलते थे। कुछ तो गर्मी, प्यास और थकान से रास्ते में मर जाते थे। उस समय हज का सफ़र पैदल कई हज़ार किलोमीटर का होता था और पैदल होने की वजह से और कठिन था जिसके लिए बड़े संकल्प की ज़रूरत होती थी। मुल्ला सदरा ने 7 बार यह अनुभव किया और अंततः सातवीं बार मक्के के सफ़र पर जाते हुए इराक़ के बसरा नगर में सन 1050 हिजरी क़मरी बराबर 1640 ईसवी में इस नश्वर संसार से चल बसे। उस समय उनकी उम्र 71 साल थी। कुछ लोगों का यह मानना है कि उन्हें बसरा शहर में दफ़्न किया गया जबकि मुल्ला सदरा के दामाद फ़य्याज़ लाहीजी के कथनानुसार, इस महान दार्शनिक व आत्मज्ञानी का शव इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के रौज़े के बायी तरफ वाले प्रांगण में दफ़्न किया गया।
मुल्ला सदरा ने अनेक किताबें लिखीं जिनके बारे में बाद में चर्चा करेंगे, पहले आपको यह बताते चलें कि उनकी छह संतानें थीं जिनमें हर एक अपने ज्ञान के क्षेत्र में महान हस्ती थी। मुल्ला सदरा की पहली संतान बेटी थी जिनका नाम उम्मे कुल्सूम था। उन्होंने दर्शनशास्त्र की शिक्षा अपने पिता मुल्ला सदरा से हासिल की थी। उनकी शादी पिता के शिष्य मुल्ला अब्दुर्रज़्ज़ाक़ लाहीजी से हुयी जो ख़ुद भी बड़े धर्मगुरु थे। उम्मे कुल्सूम ने शादी के बाद भी शिक्षा हासिल करनी जारी रखी यहां तक कि ज्ञान की अनेक शाखाओं में वे दक्ष हुयीं। वे विद्वानों की सभाओं में उनसे शास्त्रार्थ करती थीं।
मोहम्मद इब्राहीम बू अली, मुल्ला सदरा की दूसरी संतान थी। मोहम्मद इब्राहीम बू अली दार्शनिक, आत्मज्ञानी और बहुत बड़े मोहद्दिस थे। मोहद्दिस उसे कहते हैं जिसे पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों का ज्ञान हो। उन्होंने भी अपने पिता से ज्ञान हासिल किया और अनेक किताबें लिखीं। उनकी उक किताब का नाम "उर्वतुल वुस्क़ा" है जो पवित्र क़ुरआन के बक़रह नामक सूरे में आयतल कुर्सी के नाम से मौजूद विशेष आयतों की व्याख्या है। यह किताब फ़ारसी ज़बान में लिखी गयी। शोधकर्ताओं का मोहम्मद इब्राहीम की किताबों के हवाले से कहना है कि उन्होंने अपनी उम्र के अंतिम वर्षों में दर्शन शास्त्र को छोड़ दिया था।
मुल्ला सदरा की तीसरी संतान बेटी थी जिनका नाम ज़ुबैदा ख़ातून था। वे अपने समय की साहित्यकार, विद्वान, पवित्र क़ुरआन की हाफ़िज़ थीं। उनकी शादी तत्कालीन विद्वान मीरज़ा मुईनुद्दीन फ़साई से हुयी थी। उन्होंने हदीस और पवित्र क़ुरआन की व्याख्या का ज्ञान अपने पिता और बड़ी बहन से हासिल किया।
मुल्ला सदरा की चौथी संतान बेटी थी जिनका नाम ज़ैनब था। वह भी विद्वान, दार्शनिक और धर्मगुरु होने के साथ बहुत बड़ी उपासक भी थीं। साहित्य और वाकपटुता में वे अपने समय में बहुत मशहूर थीं। उन्होंने भी अपने पिता और भाई से बहुत ज्ञान हासिल किया। तत्कालीन दार्शनिक, मोहद्दिस, आत्मज्ञानी और विद्वान मुल्ला मोहसिन फ़ैज़ काशानी से जो उस समय मुल्ला सदरा के शिष्य से,उनकी शादी हुयी जिसके बाद उन्होंने अपने पति से ज्ञान के उच्च चरण को हासिल किया।
मुल्ला सदरा की पांचवीं संतान बेटा था जिनका नाम नेज़ामुद्दीन अहमद था। वह भी बड़े साहित्यकार, दार्शनिक और शायर थे। उनकी शायरी आत्मज्ञान से भरी होती थी। उनकी एक किताब फ़ारसी में है जिसका शीर्षक "मिज़्मारे दानिश" है।
मुल्ला सदरा की आख़िरी संतान बेटी थी जिनका नाम मासूमा ख़ातून था। उनकी शादी बड़े विद्वान मीरज़ा क़ेवामुद्दीन नैरीज़ी से हुयी जो मुल्ला सदरा के शिष्य थे उन्होंने मुल्ला सदरा की मशहूर किताब अस्फ़ार पर हाशिया लिखा। मासूमा ख़ातून बहुत बुद्धिमान, साहित्य में रूचि रखने वाली, हदीस की ज्ञानी, उपासक और पवित्र क़ुरआन की हाफ़िज़ थीं। उन्होंने अपने पिता, उसके बाद अपनी बहनों से ज्ञान हासिल किया।