Dec ३१, २०१८ १७:०२ Asia/Kolkata

हमने ईरान की वास्तुकला की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए यह कहा था कि ईरान में भवन निर्माण के लिए जिन वस्तुओं का प्रयोग किया जाता था वे सामान्यतः देश के भीतर ही पाई जाती थीं।

यह चीज़ें ईरान की जलवायु के अनुरूप हुआ करती थीं।  ईरान की वास्तुकला में एसी विशेषताएं पाई जाती हैं जिनकी तुलना यदि अन्य देशों की वास्तुकला से की जाए तो हमें उनकी विशिष्टताओं का पता चलेगा।  इन विशेषताओं में उचित डिज़ाइनिंग, अच्छी संरचना और इंटीरियर डिज़ाइनिंग के साथ ही उसकी सादगी का उल्लेख किया जा सकता है।  इस प्रकार की विशेषताएं, ईरान की वास्तुकला को प्रदर्शित करती हैं।  इन सारी बातों के साथ ही ईरान की वास्तुकला आदिकाल से ही प्रकृति से प्रभावित रही है।

सृष्टि की रचना और उसमें पाई जाने वाली प्रकृति, आरंभ से ही वास्तुकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही है।  मनुष्य ने जब से घर बनाकर रहना सीखा है उस समय से उसकी वास्तुकला प्राकृति से प्रभावित रही है।  प्रकृति ने मनुष्य को वास्तुकला के क्षेत्र में रचनात्मकता प्रदान की है अर्थात ईश्वर की रचना को देखते हुए वास्तुकारों ने नए-नए विचार प्राप्त किये हैं।  प्रकृति हमेशा और हर जगह मौजूद है जो सदैव ही वास्तुकारों के लिए प्रेरणा स्रोत रही है।  दूसरी ओर मानव समाज सदैव प्रगति की ओर अग्रसर रहा है और उसकी इस प्रगति में भी प्रकृति के प्रभाव को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।

घरों के बनाने में प्राकृतिक तत्वों का प्रयोग आदिकाल से होता आया है।  आरंभिक काल में मनुष्य ने मिट्टी, पानी तथा पत्थर के संयोग से इमारतें बनाईं थी जो साधारण सी होती थीं।  अति प्राचीनकाल से मनुष्य, प्रकृति में पाई जाने वाली चीज़ों को सम्मान देता आया है जैसे पानी, आग, पेड़, पहाड़, नदी, सूरज और चांद आदि।  पुरानी आस्था से अलग हटकर अगर देखा जाए तो प्रकृति में पाई जाने वाली बहुत सी वस्तुओं को वास्तुकला में प्रयोग किया जाता रहा है।  ईरान की वास्तुकला में भी इनको स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।

ईरान की भवन निर्माण शैली विगत से संस्कृति, परंपराओं और भौगोलिक स्थिति के अनुकूल रही है जिसमें धार्मिक आस्था की भी छाप दिखाई देती है।  पुराने ज़माने में ईरान के शिल्पकारों का प्रयास घर के भीतरी भाग को सुसज्जित करने में रहता था।  वे लोग घर के बाहरी रूप को कोई विशेष महत्व नहीं दिया करते थे।  उस ज़माने में घर के भीतरी भाग को इसलिए अधिक सुसज्जि किया जाता था क्योंकि घरवालों का अधिकतर काम इसके भीतरी भाग से होता था न कि बाहरी भाग से।

ईरान की भौगोलिक स्थिति कुछ क्षेत्रों में संतुलित और मेडिट्रेनियन जैसी है।  यह विषय सदैव ही पारंपरिक वास्तुकारों के ध्यान का केन्द्र रहा है।  घरों को बनाने वाले, भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए ही घरों का निर्माण किया करते थे।  इस बारे में एक ईरानी शोधकर्ता मुहम्मद हसन अबरीशमी लिखते हैं कि काशान, नतन्ज़, काशमर और शाहरूद जैसे मरूस्थलीय क्षेत्रों में बने घर वहां की जलवायु या भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल बनाए गए हैं।  इन घरों की दीवारें ऊंची होती है जिनपर सरदाब बनाया जाता था।  जिन घरों में सरदाब बनाए जाते थे वे जाड़ों में गर्म और गर्मी में ठण्डे रहते थे।  इनकी छतों और दीवारों पर कच्ची मिट्टी तथा भूसे का लेप हुआ करता था।  ईरान के वास्तुकार घरों के निर्माण में सूर्य की परिक्रमा और उसकी घूप को भी दृष्टिगत रखा करते थे।  यही कारण है कि उनके द्वारा बनाए गए घरों में सर्दी और गर्मी दोनों मौसमों में विपरीत वातावरण पाया जाता था।  प्राचीनकाल में ईरान में खाने के बरतन भी क्षेत्रीय भौगोलिक स्थिति के दृष्टिगत ही बनाए जाते थे।

ईरान की भवन निर्माण शैली की एक विशेषता उसमें लकड़ी का प्रयोग है।  इस प्रकार के घर सामान्यतः उत्तरी ईरान में बनाए जाते हैं जैसे गीलान और माज़ंदरान।  दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कैस्पियन सागर के तटवर्ती क्षेत्रों में बने घरों में लकड़ी का प्रयोग किया गया है।  इन क्षेत्रों में बने घरों में लकड़ी का प्रयोग खिड़कियों, स्तंभों, शहतीरों और छतों में किया जाता है।  घर के ढांचे में लकड़ी के प्रयोग के अतरिक्त घरों के आतंरिक डेकोरेशन में भी लकड़ी का प्रयोग किया जाता है।  इस क्षेत्र में प्रचलित पारंपरिक इमारतों को "गालीपूश" कहा जाता है।  गाली वास्तव में एक प्रकार की वनस्पति है जो तालाबों के किनारे उगती है।

इन क्षेत्रों में जो घर बनाए गए हैं वे सामान्यतः दो मंज़िला होते हैं।  केन्द्रीय ईरान के क्षेत्रों के विपरीत जहां के घरों में आंगन के चारों ओर कमरे बनाए जाते थे, उत्तरी क्षेत्रों में कमरे एक-दूसरे के ऊपर बनाए जाते थे।  उत्तरी ईरान में धान के खेतों के किनारे घने जंगल, घरों में प्रयोग की जाने वाली लकड़ी का प्रमुख स्रोत होते हैं।  यहां पर अधिक वर्षा के दृष्टिगत छतों को कई परतों वाला और ढलुआ बनाया जाता है।  उत्तरी ईरान के कुछ क्षेत्रों में घर में प्रयोग की गई लकड़ियों पर मिट्टी की लिपाई की जाती है।

जिसने भी ईरान के केन्द्रीय, उत्तरी और पूर्वोत्तरी क्षेत्रों को देखा होगा उनको ईरान के दक्षिणी क्षेत्रों में बने हुए घरों के बीच अंतर स्पष्ट दिखाई देगा।  ईरान के पारंपरिक वास्तुकारों ने देश के दक्षिणी क्षेत्रों में बहुत ही रोचक काम किये हैं।  उन्होंने एसी इमारतों का निर्माण किया है जो भीषण गर्मी और बाढ में भी सुरक्षित रहते हैं।  इनमें पत्थरों का भी प्रयोग किया जाता है।

दक्षिणी ईरान में घरों की दीवारों पर अधिकतर पत्थर लगे होते हैं जिनपर चूनाकारी की जाती है।  दीवारें लगभग 5 मीटर ऊंची होती है।  इन घरों में चूने की बनी जालीदार खिड़कियां होती हैं।  जालीदार खिड़कियों का एक उद्देश्य इमारत के भीतरी हिस्से को ठंडा रखना होता है।  इस क्षेत्र में घरों के दरवाज़े, जिस लकड़ी के बने हुए होते हैं वे "सीरस्म या कहूर" नामक पेड़ की लकड़ी के होते हैं।  यह लकड़ी ठंड और गर्मी दोनो मौसम में सर्दी और गर्मी के मुक़ाबले में बहुत मज़बूत होती है।  यहां पर घरों के दरवाज़ों पर इतने सुन्दर बेलबूटे बनाए जाते हैं जिसे देखकर मनुष्य को आनंद मिलता है।  इस क्षेत्र में मस्जिदों, बाज़ारों या सार्वजनिक स्थलों की छतों पर बांस से बनी चटाई पड़ी होती है जिससे इमारत के भीतर प्रकाश आता रहता है।  इसको सामान्यतः लाल, काले और पीले रंगों से रंगा जाता है जो देखने में अच्छी लगती है।

अति प्राचीन इमारतों की खुदाई या इस्लामी काल के बनी इमारतों के खण्डहरों पर किये गए शोध से पता चलता है कि उस काल में ईरान की पारंपरिक वास्तुकला में शीशे का भी प्रयोग किया जाता था।  इन शीशों का इस्तेमाल प्रकाश के लिए किया जाता था इसीलिए इन्हें खिड़कियों और दरवाजों में लगाया जाता था।  ईरान के "चोग़ाज़ंबील" में की गई खुदाई के दौरान एक हज़ार वर्ष ईसापूर्व से संबन्धित कुछ खिड़कियां मिली हैं जिनमें गोलाकार और अन्य आकार के शीशे लगे हुए थे।  शीशे लगी यह प्राचीन खिड़की इस समय ईरान के राष्ट्रीय संग्रहालय में मौजूद है।

हख़ामनशी काल की इमारतों में जगह-जगह पर शीशों का प्रयोग किया गया है।  बाद में ईरान में सफ़वी शासनकाल की इमारतों में भी विभिन्न रूपों में शीशों का प्रयोग किया गया जैसे "चेहलसुतून" और "हश्त बहिश्त" जैसी इमारतों में।  काज़ारी काल में यह कला अपने चरम को पहुंच चुकी थी।  उस काल के महलों, बड़े लोगों के घरों और पवित्र स्थलों में बहुत ही सुन्दर ढंग से शीशे का प्रयोग किया गया है।

वर्तमान समय में जो इमारतें बनाई जा रही हैं उनमें भी शीशे का प्रयोग किया जाता है।  इस समय घर के भीतर और बाहर दोनो तरफ़ शीशे का प्रयोग किया जाता है जबकि प्राचीनकाल में इसका प्रयोग सामान्यतः घरों के अंदरूनी भागों में किया जाता था।

ईरान में सलजूक़ी काल से इमारतों में टाइल्स का काम शुरू हुआ था।  यह काम आगे भी जारी रहा किंतु तैमूरी और सफ़वीकालों में यह अपने चरम को पहुंच चुका था।  इस्लामी काल में विभिन्न शैलियों में कालकार इमारतों में टायल्स का प्रयोग किया करते थे।  उस काल में एक रंग या सात रंगों वाले टाइल्स भी प्रयोग किये जाने लगे थे कुछ कलकार, टाइल्स और पत्थरों को एक साथ प्रयोग करने लगे थे।  उस समय गुंबदों, मीनारों, दीवारों और मेहराब या धार्मिक स्थलों पर टाइल्स का प्रयोग किया जाता था।

इमारतों की सुन्दर बनाने के लिए जिस वस्तु का प्रयोग किया जाता रहा है वह है रंग।  तीन से चार हज़ार साल ईसापूर्व निवास स्थलों की सजावट, इमारतों और अन्य कामों के लिए रंगों का प्रयोग किया जाता था।  तख़ते जमशेद में रंग के प्रयोग को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।  आज भी एसी बहुत सी प्राचीन इमारतें मिल जाएंगी जिनकी साज सज्जा के लिए कई प्रकार के रंगों का प्रयोग किया गया है।  विशेष बात यह है कि वर्तमान समय में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग न के बराबर होता है अधिक्तर औद्योगिक रंगों का ही प्रयोग होने लगा है।  एतिहासिक स्रोतों के अनुसार सासानी काल के महलों में दीवारों पर पेंटिंग की जाती थी।  इस प्रकार की पेंटिंग से महलों की भव्यता में वृद्धि हुई।  बहुत से प्राचीन शिलालेखी से पता चलता है कि महलों की दीवारों पर लगी पेंटिंग में कई प्रकार के विषयों को दर्शाया गया है।

 

 

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