इस्लाम में बाल अधिकार- 5
हमने बताय था कि बाल अधिकार का इतिहास बताता है कि बाल अधिकार का विषय इतिहास में बहुत ही उतार चढाव के साथ रहा है।
अक्सर बच्चों के साथ अन्याय हुआ है। बाद में इस शैली में सुधार हुआ और अंततः यह शैली, बच्चों के समर्थन की ओर आगे बढ़ी।
बाल अधिकारों मे परिवर्तन के इतिहास का पांचवां चरण, शिक्षा और प्रशिक्षण से संबन्धित है। 19वीं शताब्दी के आरंभ से 20वीं शताब्दी के मध्य तक बच्चों के साथ व्यव्हार की शैली में बहुत बदलाव आए। इस चरण में इस विचार का बहुत समर्थन किया गया कि बच्चे को शिक्षा एवं प्रशिक्षण के माध्यम से अच्छा नागरिक बनाया जा सकता है। इस बात का समर्थन "वाट्सन फ्रोइड" जैसे मनोवैज्ञानिकों ने भी किया। 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान मानवाधिकारों और बाल अधिकारों की ओर विशेष रूप से ध्यान दिये जाने के कारण इस बारे में नई परिस्थितियों ने जन्म लिया। मानवाधिकारों से संबन्धित बहुत से प्रमाणों में बताया गया है कि अपने विकास और व्यक्तित्व को संवारने के लिए बच्चे को सौहार्दपूर्ण और प्रेमपूर्ण वातावरण में रहना होगा। एसे वातावरण का पलाबढ़ा बच्चा आगे चलकर अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को उचित ढंग से गुज़ार सकता है।
छठा चरण बीसवीं शताब्दी के मध्य से आरंभ होता है जो सहानुभूति एवं सहयोग का काल है। इस चरण की महत्वपूर्ण विशेषताओं को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला यह कि बच्चों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना और दूसरे बच्चों के अधिकारों को पहचानना। इस चरण में बच्चों का पालन-पोषण, मां-बाप पर होता है अर्थात जो भी बच्चे का अभिभावक होता है उसका दायित्व बनता है कि वह बच्चों का सही प्रशिक्षण करे। हालांकि बच्चों की स्थिति एवं उनके अधिकार को प्राप्त करने में अभी लंबा सफ़र तै करता है। रिचर्ड फारसन कहते हैं कि बच्चों के अधिकारों को पूर्ण रूप से पहचानने में अली लंबा समय लगेगा। उन्होंने सन 1974 में बाल अधिकारों के बारे में एक पुस्तक भी लिखी है जिसका नाम है, "बर्थराइट्स"।
बाल अधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन के बनने से पहले इन अधिकारों को पूरे इतिहास में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव का समाना करना पड़ा है। अब हम अन्तर्राष्ट्रीय बाल अधिकार की समीक्षा करेंगे। इस बारे में दो प्रकार के प्रमाण पाए जाते हैं। पहला प्रमाण वह है जिनमें बच्चे को एक इंसान के रूप में बताया गया है और उसे एक इन्सान के रूप में अधिकार प्राप्त करने का अधिकार है। दूसरे प्रमाण में विशेष रूप में केवल बच्चों के अधिकारों की ही बात कही गई है। पहले प्रमाण के संदर्भ में "यूनिवर्सल डिकलेरेशन आफ ह्यूमन राइट्स" की ओर संकेत किया जा सकता है। यहां पर हम इसमें वर्णित कुछ बातों की चर्चा करेंगे। इस डिकलेरेशन के एक अनुच्छेद में कहा गया है कि प्रत्येक को जीवन गुज़ारने, स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार है। यूनिवर्सल डिकलेरेशन आफ ह्यूमन राइट्स में कुछ एसे अनुच्छेद पाए जाते हैं जो सीधे तौर पर बाल अधिकार को बयान करते हैं। इसके 25वें अनुच्छेद में मां और बच्चे के अधिकारों का उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद में कहा गया है कि माता और बच्चे को यह अधिकार है कि उनपर विशेष ध्यान दिया जाए। सारे बच्चे जो विवाह से या बिना विवाह के पैदा हुए हैं उनका अधिकार बनता है कि सामाजिक हिसाब से उनका एक जैसा समर्थन किया जाए।
संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा ने सन 1966 में "द इन्टरनैश्नल कवीनेंट आन इकनामिक सोशल एंड कलचरल राइट्स और इंटरनैश्नल कवीनेंट आन सिविल एंड पोलिटिकल राइट्स में भी बाल अधिकारों के बारे में विस्तार से बताया गया है। इन अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के किशोर को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता, आरोपी बच्चे को बड़ों से अलग करना, सज़ा सुनाते समय आरोपी बच्चे को अलग रखना, आरोपी बच्चे की कार्यवाही बंद कमरे में न होना, सरकारों की ओर से बच्चों के अधिकारों का समर्थन करना तथा इसी प्रकार की कई बातें इन कन्वेंशनों में बयान की गई हैं। अन्य अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों में भी बच्चों के अधिकारों के बारे में विस्तार से बात की गई है। उदाहरण स्वरूप इस संबन्ध में सन 1979 में राष्ट्रसंघ की महासभा में पारित उस प्रस्ताव का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें महिलाओं के विरुद्ध हर प्रकार के भेदभाव को दूर करने की बात कही गई है। इसके अतिरिक्त क़ाहेरा में ओआईसी के विदेशमंत्रियों की उपस्थिति में पारित प्रस्ताव तथा सन 1993 में वियेना में पारित होने वाला अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार समझौता आदि।
बच्चों के अधिकारों के संबन्ध में कुछ आम अन्तर्राष्ट्रीय प्रस्तावों के साथ ही साथ उनके अधिकारों से संबन्धित कुछ विशेष प्रस्ताव भी पाए जाते हैं। बाल अधिकारों के बारे में पहला अन्तर्राष्ट्रीय प्रस्ताव सन 1956 में पारित किया गया था। संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा ने यह प्रस्ताव 20 नवंबर सन 1956 में पारित किया था। इसकी भूमिका में कहा गया है कि इस बात के दृष्टिगत कि पैदा होने के बाद नवजात को शारीरिक एवं मानसिक रूप में विकसित होने के लिए विशेष ध्यान की आवश्यकता होती है जिसके लिए उसका क़ानूनी समर्थन ज़रूरी है। महासभा इस प्रस्ताव को इस उद्देश्य के लिए पारित कर रही है क्योंकि बच्चे को अपने विकास के लिए स्वतंत्रता और कुछ अधिकारों की आवश्कयता होती है।
इस प्रस्ताव के पारित होने के बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ के बहुत से सदस्यों ने बाल अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया। इस प्रस्ताव ने देशों के आंतरिक नियमों को प्रभावित किया जिसके कारण बाल अधिकारों को मनवाने में बहुत सहायता मिली। इसी प्रकार विभिन्न देशों की ओर से बच्चों के अधिकारों के बारे में विशेष ध्यान के कारण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों के संदर्भ में एक अन्य विशेष प्रस्ताव पारित हुआ। हालांकि 14 सितंबर सन 1974 को सुरक्षा परिषद ने सशस्त्र झड़पों, युद्ध तथा आपातकालीन स्थिति में महिलाओं तथा बच्चों के समर्थन के बारे में प्रस्ताव पारित किया। संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा ने अपने सदस्य देशों के साथ दस वर्षों तक विचार-विमर्श करने के बाद 20 नवंबर 1989 को बच्चों के बारे में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसे 2 सितंबर 1990 को बाध्यकारी बनाया गया। इस कन्वेंशन से संसार के 189 देश जुड़ चुके हैं जिन्होंने इसको लागू करने के प्रति कटिबद्धता जताई है। इस्लामी गणतंत्र ईरान सन 1993 में इस कन्वेंशन से जुड़ा था।
बाल अधिकारों से संबन्धित प्रस्तावों या घोषणापत्रों में मूल रूप से बच्चों के अधिकारों की ही बात कही गई है जिनमें बच्चों के साथ भेदभाव न करना, उनको जीने का अधिकार देना, उनके विकास में सहायक बनना, बच्चों का सम्मान करना तथा इसी प्रकार की बातों को इन कन्वेंशनों में शामिल किया गया है। इसमें युद्ध,बाढ़ सूखा महामारी तथा भूकंप जैसी आपदाओं के समय बच्चों पर पहले ध्यान देने की बात कही गई है। बाल अधिकारों के क्नवेंशन के दो प्रोटोकोल हैं जिसे 25 मई 2000 में महासभा ने पारित किया है। इसके पहले हिस्से में सैनिक झड़पों के समय बच्चों से काम न लेने की बात कही गई है जबकि दूसरे हिस्से में बच्चों को न बेचने और उनके यौन शोषण को रोकने की बात कही गई है।
बाल अधिकारों के बारे में जितने भी प्रस्ताव या आयोग हैं उनमें से अधिकांश में बच्चे की ज़िम्मेदारी उसके मां-बाप को सौंपी गई है। बाल अधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन के 18वें अनुच्छेद में आया है कि इसके सभी सदस्य देश इस बात के लिए वचनबद्ध हुए हैं कि हम इस मूल सिद्धांत को मानते हैं कि बच्चे के प्रशिक्षण की अहम ज़िम्मेदारी उसके माता-पिता के ही कांधों पर आती है। इसके तेरहवें अनुच्छे में बताया गया है कि समझौते में शामिल सभी देश ऐसे उचित कानूनी, प्रशासनिक, सामाजिक और शैक्षणिक उपाय करेंगे जिनसे माता-पिता या अन्य किसी व्यक्ति की देख-रेख में रह रहे बच्चों को सभी प्रकार की शारीरिक और मानसिक हिंसा, चोट अथवा अपमान, उपेक्षा अथवा उपेक्षाजनक व्यवहार, दुर्व्यवहार अथवा शोषण से बचाया जा सकेगा। इस क़ानून के अनुसार बच्चे के माता-पिता या उसके संरक्षक की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह बच्चों के हितों की पूरी रक्षा करें।
इस्लामी शिक्षाओं में भी बच्चे की पूरी ज़िम्मेदारी उसके माता-पिता या अभिभावक पर ही आती है। इसका मूल कारण यह है कि बच्चे की पहली पाठशाला उसका घर है और बच्चा सबसे अधिक अपने मां-बाप या अभिभावक से निकट होता है। इस्लाम की शिक्षाओं के अनुसार बच्चा, घर की बरकत होता है। यह एसी विभूति है जिसे ईश्वर ने उसे बिना किसी बदले के प्रदान किया है। एसे में स्वभाविक सी बात है कि उसके महत्व को समझा जाए। इस ईश्वरीय विभूति के महत्व को समझने के साथ ही उसके प्रति जो दायित्व बनने हैं उनका भी उचित ढंग से निर्वाह किया जाना चाहिए। ऐसा न करने की स्थिति में हमें क्षति उठानी पड़ सकती है।