इस्लाम में बाल अधिकार- 10
मां के पेट में जो भ्रूण व बच्चा होता है उसका एक अधिकार स्वस्थ होना और उसकी निगरानी है।
जब भ्रूण मां के पेट में होता है तब उसका ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है और इसका उसके स्वास्थ्य और विकास पर बहुत प्रभाव पड़ता है। जब भ्रूण मां के पेट में होता है तो बहुत चीज़ें हैं जो उसके विकास में बहुत सहायक होती हैं। मां के खाने- पीने और और उसके मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य का भ्रूण पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार भ्रूण पर उन बीमारियों का भी बहुत दुष्प्रभाव पड़ता है जिनमें मां ग्रस्त होती है। जब भ्रूण मां के पेट में होता है तो कुछ चीज़ों का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है और इस्लाम में उनकी अनुशंसा भी की गयी है क्योंकि भ्रूण पर उनका उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है।
चूंकि मां के खान- पान और उसके शारीरिक स्वास्थ्य का सीधा प्रभाव भ्रूण पर पड़ता है इसलिए मां के खान- पान और उसके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिये। महिला के गर्भ धारण करने में मर्द और औरत दोनों की भूमिका होती है परंतु गर्भ धारण करने के बाद मुख्य और असली भूमिका मां की होती है और मां के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य का सीधा प्रभाव भ्रूण चरपड़ता है। भ्रूण को मां के पेट से भोजन मिलता है। वह मां के शरीर के एक अंग की भांति होता है तो जिस -जिस चीज़ का प्रभाव मां पर पड़ेगा उस- उस चीज़ का प्रभाव भ्रूण पर भी पड़ेगा। इसी बात के दृष्टिगत इस्लाम में खाने- पीने की बहुत सी बातों की अनुशंसा की गयी है ताकि स्वस्थ, सुन्दर और बच्चा दुनिया में कदम रखे।
वैज्ञानिक दृष्टि से यह बात सिद्ध हो गयी है कि जो बच्चे अपंग पैदा होते हैं या वे किसी जन्मजात बीमारी से ग्रस्त होते हैं तो इसका कारण गर्भावस्था के दौरान मां का भोजन होता है। यद्यपि बच्चे को दुनिया में लाने में माता- पिता दोनों की भूमिका होती है परंतु मां की भूमिका अधिक होती है। भ्रूण मां के पेट से भोजन करता है। उसके शारीरिक व मानसिक विकास के लिए जिस चीज़ की भी ज़रूरत होती है वह मां के पेट से लेता है। इसी कारण भ्रूण के स्वास्थ्य पर मां के स्वास्थ्य का सीधा प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह सिद्ध हो चुका है कि जब भ्रूण मां के पेट में होता है और जगह सीमित होती है परंतु उस दौरान भ्रूण पर जो प्रभाव पड़ता है वह लगभग हमेशा के लिए और असीमित होता है। इसी प्रकार मानसिक दृष्टि से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि भ्रूण जब मां के पेट में होता है और उसका पहला महीना होता है तो मां के खान- पान और इसी प्रकार उसकी बीमारी का भ्रूण पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इस दौरान मां जो दवा खाती है, ध्रूमपान करती है, मादक पदार्थों का सेवन करती है या शराब पीती है तो उसका सीधा असर भ्रूण के स्वास्थ्य पर पड़ता है इसलिए मां को चाहिये कि खान- पान के साथ इस प्रकार की चीज़ों पर भी ध्यान दे और इस्लामी शिक्षाओं में भी इन बातों की ओर संकेत किया गया है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने गर्भावस्था को अच्छे समय की संज्ञा दी है और फरमाया है कि जब महिला गर्भावस्था में होती है तो उस वक्त वह उस व्यक्ति की भांति होती है जो दिनों को रोज़ा रखता है और रातों को जागकर ईश्वर की उपासना करता है। इस दौरान महिला को बेहतरीन नामों से याद किया गया है और उसे बेहतरीन प्रतिदान दिया जायेगा। इस्लामी रवायतों में गर्भावस्था में महिला को शहीद का स्थान दिया गया है और कहा गया है कि अगर गर्भावस्था के दौरान या बच्चा पैदा होने के समय या दूध पीलाने के कारण महिला की मृत्यु हो जाये तो महान ईश्वर उसे खून में लथ- पथ शहीद का दर्जा देगा और गर्भावस्था के दौरान वह उस मुजाहिद की भांति है जो अपनी जान व माल से रणक्षेत्र में सत्य का समर्थन करता है।
जब महिला गर्भावस्था में होती है तो एक चीज़ उसके और भ्रूण के स्वास्थ्य में बहुत प्रभावी होती है वह परिवार का समर्थन है। अगर महिला को इस बात का आभास हो जाये कि उसके घर वाले उसका विशेष ध्यान रख रहे हैं तो वह बड़े आराम से उस समय की बहुत सी समस्याओं व कठिनाइयों को झेल जाती है और शारीरिक व मानसिक दृष्टि से एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है।
जब महिला गर्भावस्था में होती है तो उसे मतली, उल्टी, तेज़ प्यास, कमर दर्द, सिर दर्द और भार के बढ़ने जैसी बहुत सी शारीरिक समस्याओं का सामना होता है। पवित्र कुरआन इस बारे में कहता है "हमने इंसान से मां- बाप के बारे में अनुशंसा की है।"
मां उस हालत में बच्चे को अपने पेट में वहन करती है जब उसे कमज़ोरी जैसी विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना होता है। गर्भावस्था के दौरान मां बहुत सारी कठिनाइयों व समस्याओं का सहन करती है। महान ईश्वर उस दौरान सहन की जाने वाली बहुत सारी कठिनाइयों को याद दिलाते हुए पवित्र कुरआन के सूरये लुक़मान में इंसान की अनुशंसा करता है कि वह मां- बाप विशेषकर मां को न भूले।" पवित्र कुरआन की इस आयत में माता के प्रति एक प्रकार के मानसिक समर्थन को देखा जा सकता है।
इस्लामी शिक्षाओं में इस बात की अनुशंसा की गई है कि गर्भावस्था के पूरे नौ महीने के दौरान मां को क्या खाना चाहिये। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों ने इस संबंध में जो अनुशंसाएं की हैं वे आदेश के रूप में नहीं हैं बल्कि वे स्वास्थ्य अनुशंसाएं हैं और उन्हें अंजाम देने या न देने में इंसान पूरी तरह स्वतंत्र है और अगर किसी ने उन पर अमल नहीं किया तो उसने कोई पाप नहीं किया है। उन्होंने इस प्रकार की जो अनुशंसायें की हैं उसका लक्ष्य समाज में स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियों में वृद्धि करना है।
हदीसों और इस्लामी शिक्षाओं का अध्ययन करने के बाद ईरानी डाक्टर हसन अकबरी इस संबंध में कहते हैं कि गर्भावस्था के पहले महीने में महिला को हर सुबह एक मीठा सेब खाना चाहिये। शुक्रवार को नाश्ते से पहले अनार और प्रतिदिन नहार मुंह दो खजूर खाना चाहिये। दूसरे महीने में हर सप्ताह भेड़ का थोड़ा मांस खाना चाहिये और थोड़ा गाय का प्राकृतिक व शुद्ध दूध लेना चाहिये। इसी तरह प्रतिदिन नहार मुंह दो अदद ओनाब लेना चाहिये। ओनाब लेने से पहले उस पर पवित्र कुरआन के सूरये तौहिद की तिलावत करना चाहिये।
तीसरे महीने में सुबह में जेली के एक चम्मच से शहद खाना चाहिये। इसी तरह प्रतिदिन नहार मुंह आयतल कुर्सी पढ़कर एक सेब और कुन्दुर खाना चाहिये।
चौथे महीने में प्रतिदिन एक मीठा सेब, शहद और अनार खाना चाहिये। इसी तरह प्रतिदिन दो अंजीर पर पवित्र कुरआन के सूरये वत्तीन की तिलावत करके नहार मुंह खाना चाहिये।
पांचवें महीने में सुबह में थोड़ी खजूर खाना चाहिये और छठे महीने में सुबह में नाश्ते के बाद अंजीर और ज़ैतून खाना चाहिये और प्रतिदिन सूरये फत्ह पढ़कर नहार मुंह एक अनार खाना चाहिये। सातवें महीने में बादाम पर सूरये अनआम पढ़कर खाना चाहिये। अलबत्ता 40 दिन तक एसा करें तो बेहतर है। अगर गर्मी का मौसम हो तो हर खाने के बाद फूट खायें और उसके खाने से पहले और बाद में पानी न पीयें। इसी प्रकार प्रतिदिन एक फल पर सूरे यासीन पढ़कर नहार मुंह खाना चाहिये।
आठवें महीने के बारे में भी इस्लामी रवायतों और उसकी शिक्षाओं में आया है कि मीठा दही, शहद और मीठा अनार खाना चाहिचे।
नवें और अंतिम महीने के बारे में भी अनुशंसा की गयी है कि भेड़ के मांस का कबाब खाना चाहिये। इसी प्रकार गर्भवती महिला को मसाले के सेवन से मना किया गया है। खजूर खाना चाहिये या प्रतिदिन थोड़ा दूध और खजूर पर सूरे दह्र की तिलावत करके नहार मुंह खाना चाहिये। इस आशा के साथ कि बच्चा स्वस्थ और सुन्दर पैदा होगा।
अलबत्ता इस्लाम धर्म में गर्भावस्था के दौरान इसके अलावा दूसरी चीज़ों के भी खाने- पीने की अनुशंसा की गयी है। जैसे गर्भवती महिलाओं को नाशपाती खाना चाहिये। इससे बच्चे अच्छे और सुन्दर होते हैं। नाशपाती खाने से दिल मज़बूत होता है, अमाशय अच्छा होता है और बच्चा बहादुर व सुन्दर होता है। इसी तरह लोबा या कुन्दुर गोन्द खाने से बच्चा अधिक बुद्धिमान, समझदार, बहादुर और सुन्दर होता है।
इस्लामी शिक्षाओं में आया है कि तलाक, अलग होने या आर्थिक समस्याओं के कारण भी भ्रूण को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिये। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार तलाक या किसी दूसरे कारण से पत्नी के अलग होने की स्थिति में उसका खर्च पति को देना ज़रूरी है। इस आधार पर अगर गर्भवती महिला अपने पति से अलग हो जाये तो पति पर उसका खर्च देना अनिवार्य है। इस बात को पवित्र कुरआन के सूरे तलाक की 6ठीं आयत से समझा जा सकता है। इस आयत में महान ईश्वर कहता है" जहां तुम रहते हो वहीं अपनी क्षमता के अनुसार उन्हें भी जगह दो और उन्हें कोई क्षति न पहुंचाओ अगर वे गर्भवती हों। उनका खर्च दो यहां तक कि वे बच्चे को जन्म दे दें। और अगर वे तुम्हारे बच्चे को दूध पीलायें तो उसके पैसे दे दो।"
बहरहाल बच्चे की भलाई के लिए और गर्भावस्था के समय को अच्छी तरह गुज़ारने के लिए पति को चाहिये कि पत्नी का खर्च दे। गर्भावस्था के दौरान महिला के खर्च से संबंधित इस्लाम के जो आदेश हैं उनसे यह बिन्दु स्पष्ट है कि गर्भ में पलने वाले बच्चे को कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिये। इस्लाम धर्म की शिक्षाओं में गर्भवती महिलाओं पर विशेष ध्यान दिया गया है और उनमें से कुछ बातों बल्कि ज़्यादातर बिन्दु बच्चे के जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं। बच्चे के पालन- पोषण का पहला और सबसे महत्वपूर्ण स्थान मां का पेट है और वह बच्चे के व्यक्तित्व के गठन में मौलिक भूमिका निभाता है।