इस्लाम में बाल अधिकार- 13
बच्चे का एक अधिकार वंश व पारिवारिक संबंध है यानी यह ज्ञात होना ज़रूरी है कि जो बच्चा पैदा हुआ है उसके माता- पिता कौन हैं?
क्योंकि जब यह ज्ञात हो जाता है कि बच्चे के माता- पिता कौन हैं तो उसके बहुत से अधिकार माता- पिता पर हो जाते हैं। जैसे के पालन- पोषण का खर्च और उसकी अभिभावकता। जब बच्चे के माता- पिता मालूम हो जाते हैं तो बच्चा लावरिस नहीं रहता है और वह अयोग्य लोगों के हाथ लगने से बच जाता है और अयोग्य लोग बच्चे का शोषण नहीं कर सकते। कुछ लेखकों के अनुसार माता- पिता का होना और उनके साथ अच्छा संबंध होना बच्चे का मौलिक अधिकार है।
महान व सर्वसमर्थ ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरये फुरक़ान की 54वीं आयत में कहता है” वह ईश्वर है जिसने पानी से इंसान पैदा किया फिर उसे वंशगत संबंधों और ससुराली रिश्तेवाला बनाया और तुम्हारा पालनहार हमेशा सामर्थ्यवान है।
इस्लाम में परिवार की बहुत पहत्वपूर्ण भूमिका है। इस आधार पर उसके कुछ विशेष कानून हैं ताकि बच्चे शारीरिक व मानसिक दृष्टि से सुरक्षित रहें। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से पूछा गया कि एसा क्यों है कि जब कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति की हत्या करता है तो दो व्यक्तियों की गवाही ही इस बात के लिए काफी होती है कि हत्यारा कौन है जबकि बलात्कार सिद्ध होने के लिए चार व्यक्तियों की गवाही ज़रूरी है? तो इमाम ने फरमाया कि इसका कारण बलात्कार का सिद्ध होना दूसरे अधिकारों व कार्यों की तुलना में कठिन है। इसमें बच्चे के वंश के खत्म होने और परिणाम स्वरूप मिरास के अधिकार से वंचित का ख़तरा मौजूद है।“
इमाम का यह कथन सांकेतिक रूप में इस बात का सूचक है कि वंश बहुत महत्वपूर्ण चीज़ है और इस्लाम में उस पर बहुत कड़ाई से ध्यान दिया गया है।
इस्लामी रवायतों में भी पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से आया है कि आपने फरमाया है” जो व्यक्ति यह जानता है कि पैदा होने वाला बच्चा उसका बच्चा है और वह इससे इंकार करे तो ईश्वर उसे अपनी कृपा से वंचित कर देगा और प्रलय के दिन समस्त इंसानों के सामने उसे अपमानित करेगा।
बच्चे की देखभाल और उसकी रक्षा उसका मौलिक अधिकार है क्योंकि बच्चे के पैदा होने के बाद उसकी रक्षा, देखभाल और उसकी प्रशिक्षा एक महत्वपूर्ण कार्य है। बच्चे के लिए संतोषजनक ठिकाना व प्रशिक्षण केन्द्र होना चाहिये इस बात के दृष्टिगत बच्चे के इस अधिकार में किसी प्रकार का संदेह नहीं है। बच्चे हर समाज का भविष्य होते हैं और बचपने में ही विशेषकर पैदा होने के बाद के आरंभिक वर्षों में ही इंसान के व्यक्तित्व का निर्माण होता है इसलिए बचपने में बच्चे की देखभाल और उसकी प्रशिक्षा का विशेष महत्व है।
हिज़ानत, हज़ेन शब्द से लिया गया है और उसका अर्थ हर चीज़ का किनारा होता है। इसी प्रकार भुजा के नीचे से लेकर पहलु तक और छाती से लेकर भुजा तक के बीच के अंतर को भी हिज़ानत कहते हॅं। हिज़ानत मसदर है यानी इससे संबंधित दूसरे शब्द इसी से बने हैं। बहरहाल हाल हिज़ानत यानी बच्चे को पहलु में लेना, उसकी देखभाल और उसका समर्थन करना है और मां या दाइ यह कार्य करके इस अर्थ को व्यवहारिक बनाती हैं।
प्रतीत यह हो रहा है कि हिज़ानत का मूल अर्थ उस इंसान की रक्षा व देखभाल करना है जो अपनी देखभाल करने की क्षमता नहीं रखता। साथ ही इस शब्द में प्रशिक्षा का अर्थ नीहित नहीं है। यद्यपि रक्षा व देखभाल का नतीजा प्रशिक्षा भी है। शायद इसी वजह से कुछ धर्मशास्त्रियों का कहना है कि छोटे बच्चे की प्रशिक्षा के लिए मां अधिक योग्य है जबकि कुछ धर्मशास्त्री प्रशिक्षा को देखभाल और रक्षा का लाभ मानते हैं।
बहरहाल बच्चे की देखभाल व रक्षा की चर्चा दो प्रकार से की जानी चाहिये। एक वह हालत है जब पति- पत्नी संयुक्त रूप से रह रहे हों और दोनों एक दूसरे से अलग होने का इरादा न रखते हों जबकि दूसरी वह हालत है जब दोनों एक दूसरे से अलग होने का इरादा रखते हों और बच्चे को किसी एक के हवाले करने की बात हो रही हो। स्पष्ट है कि पहली हालत में बच्चे की देखभाल और उसका समर्थन पति- पत्नी दोनों की जिम्मेदारी है किन्तु दूसरी हालत में जब पति- पत्नी के बीच कोई सहमति न बन पाये तो यह देखा जायेगा कि बच्चे की देख- भाल करने में प्राथमिकता किसे प्राप्त है। समस्त तर्कों और रवायतों से इस प्रकार का नतीजा निकलता है कि बच्चे की देखभाल, निगरानी और रक्षा से संबंधित जो कानून हैं उन्हें बच्चे के हित में होना चाहिये और चूंकि प्राकृतिक रूप से माता- पिता बच्चे से प्रेम करते हैं इसलिए उसकी देखभाल परिवार के भीतर होनी चाहिये। हां उस वक्त बच्चे को परिवार या माता- पिता से अलग किया जा सकता है जब परिवार या माता- पिता के साथ रखना बच्चे के लिए हानिकारक व खतरनाक हो।
बच्चों के अधिकारों के कंवेन्शन में भी उसकी निगरानी एवं देखभाल में उसके हितों पर ध्यान दिया गया है। इस कंवेन्शन में एक सूक्ष्म बिन्दु पर ध्यान दिया गया है और मूल बिन्दु इस बात को माना है कि संभव होने की स्थिति में बच्चों को माता- पिता से अलग नहीं करना चाहिये। हां उस स्थिति में बच्चों को माता- पिता से अलग किया जा सकता है जब बच्चों का हित माता- पिता से अलग करने में ही हो। इसी प्रकार इस कंवेन्शन में आया है कि इसके पक्षधर देशों ने वचन दिया है कि बच्चों को उनके माता- पिता से अलग नहीं किया जायेगा केवल उसी स्थिति में उन्हें अपने माता- पिता से अलग किया जायेगा जब कानून से जुड़े अधिकारी इस बात का निर्णय लेंगे कि बच्चे की भलाई माता- पिता से अलग होने में ही है।
इसी प्रकार बच्चों के अधिकारों के कंवेन्शन में इस बिन्दु पर भी ध्यान दिया गया है कि बच्चे का संबंध माता- पिता दोनों से है और बच्चे के विकास और उसके लालन- पालन में माता- पिता दोनों की भूमिका है।
प्रतीत यह हो रहा है कि बच्चे से संपर्क में रहने का कार्यक्रम माता- पिता के हितों को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि बच्चे के हितों को दृष्टि में रखकर बनाया जाना चाहिये। उदाहरण स्वरूप किसी माता- पिता में नहीं बन रही है और दोंनो के मध्य विवाद चल रहा है तो उन्हें चाहिये कि एसा कार्यक्रम बनायें जिससे दोनों आसानी से बच्चे से संपर्क स्थापित कर सकें। सरकारों को चाहिये कि इस कार्य के लिए वे उचित स्थान का प्रबंध करें। बच्चों के अधिकारों की समिति ने गाइड नामक पुस्तक में इस बिन्दु की ओर सरकारों का ध्यान दिलाया है। अलबत्ता यही बात बच्चों के अधिकार घोषणापत्र में इस प्रकार आयी है कि बच्चे के पूर्ण विकास के लिए प्रेम की आवश्यकता है और जितना संभव हो सके उसे माता- पिता की निगरानी और देखभाल में होना चाहिये। इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय कंवेन्शन में भी परिवार के इस महत्व पर बल दिया गया है।
दो साल से कम के बच्चों के लिए आम सहमति पायी जाती है कि बच्चे के लालन- पालन और निगरानी में मां की भूमिका होनी चाहिये। पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के हवाले से आयी इस्लामी रवायतों में कहा गया है कि जब तक बच्चा दूध पी रहा है तब तक उसके देखभाल की ज़िम्मेदारी माता- पिता के मध्य बराबर है। यानी माता- पिता संयुक्त रूप से उसकी देखभाल का दायित्व लेंगे। अलबत्ता कुछ रवायतों में आया है कि जब बच्चा दो वर्ष के अंदर हो तो उसके देखभाल की ज़िम्मेदारी के लिए मां को प्राथमिकता प्राप्त है और कुछ इस्लामी धर्मशास्त्रियों ने इसी बात का चयन किया है। दो वर्ष के बाद और बालिग़ व बड़ा होने तक बच्चे के देखभाल की ज़िम्मेदारी किसकी है इसके बारे में शीया धर्मशास्त्रियों के मध्य मतभेद है।
बच्चे की जो देखभाल व निगरानी की जाती है उसके विकास के लिए की जाती है इस बात के दृष्टिगत प्रतीत यह हो रहा है कि सात वर्ष के बाद बच्चे के हितों को ध्यान में रखकर फैसला किया जाना चाहिये कि इसकी देखभाल कौन करेगा? शायद बच्चे के हित के कारण है कि कुछ धर्मशास्त्रियों ने बच्चे की देखभाल के लिए मां को प्राथमिकता दी है और एक रवायत के अनुसार जब तक मां ने दूसरा विवाह नहीं किया है तब तक बच्चे की देखभाल की वही अधिक पात्र है। इसमें इस बात का अंतर नहीं पड़ता कि मौजूद संतान बच्चा है या बच्ची।
बच्चे की देखभाल का एक पहलु उसके ख़र्च की आपूर्ति है। हर बच्चे को यह अधिकार प्राप्त है कि उसका ख़र्च उसे दिया जाना चाहिये। इस बात को देखा जाना चाहिये कि समाज में आम लोग बच्चे के खर्च के बारे में क्या कहते हैं यानी एक बच्चे की निगरानी के लिए कितना खर्च दिया जाना चाहिये। इस्लामी धर्मशास्त्र में इस बात में आम सहमति पायी जाती है कि बच्चे के खर्च को मां -बाप को देना चाहिये और इसी प्रकार बड़ा हो जाने पर बच्चे को मां- बाप का ख़र्च देना चाहिये और यह वह चीज़ है जिसमें समान दृष्टिकोण पाया जाता है और इसमें किसी प्रकार का मतभेद नहीं है।
बच्चे के खर्च में समस्त ज़रूरी चीज़ें शामिल हैं जैसे दूध पिलाने का पैसा, कपड़े का पैसा, खाने पीने का पैसा, उपचार और मकान आदि का पैसा। इस कार्य के लिए यह देखा जाना चाहिये कि समाज एक बच्चे के खर्च के लिए क्या कहता है। क्योंकि इसके लिए हर समाज में समान खर्च नहीं है बल्कि समय और स्थान की दृष्टि से इसमें अंतर होता है।
इस्लाम में देखभाल और निगरानी के अलावा एक और चीज़ है जिसे विलायत कहते हैं यानी बच्चे पर स्वामित्व किसका है। इस्लाम में बच्चे पर स्वामित्व बाप- दादा का होता है। इसका अर्थ यह है कि बच्चे के प्रशिक्षण और उसके धन की रखवाली की जिम्मेदारी दादा व पिता की है ताकि उनके समर्थन की छत्रछाया में बच्चा सही ढंग से विकास कर सके। परिणाम स्वरूप बच्चे के स्वामित्व का अधिकार जो बाप- दादा को दिया गया है उसका कारण बच्चे के हित हैं। यानी बच्चे के हितों के दृष्टिगत एसा किया गया है।