Jun २६, २०१९ १६:१३ Asia/Kolkata

यह एक कटु वास्तविकता है कि युद्धों ने मानव जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया है। 

युद्धों से उत्पन्न होने वाले प्रभावों को युद्धों की समाप्ति के बाद भी लोगों के जीवन में देखा जा सकता है।  युद्धों की बलि चढ़ने वालों की संख्या अनगिनत है।  क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाए गए नियमों के बावजूद मानव समाज युद्धों का साक्षी रहा है।   युद्ध व्यापक स्तर पर राष्ट्रों की शांति एवं सुरक्षा, स्वास्थ्य, विकास और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं किंतु इस बीच सबसे दुखदाई बात यह है कि इन युद्धों का सबसे अधिक दुष्प्रभाव बच्चों पर पड़ता है।  युद्ध अपने साथ स्वभाविक रूप में अपने साथ भौतिक, मानवीय, नैतिक और सांस्कृतिक कई प्रकार की बुराइयां लाते हैं।  यह बच्चों के अधिकारों को लगभग पूरी तरह से प्रभावित करते हैं।  युद्ध के कारण बच्चों के अपने परिवार के साथ रहने, समाज में रहने, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकारों का हनन होता है।

सरकारों के दायित्वों में से एक महत्वपूर्ण दायित्व, युद्ध के समय और उसके पश्चात बच्चों के अधिकारों का समर्थन करना है।  युद्ध के समय या फिर पलायन के समय बच्चे अपनों को खो देते हैं।  यह काम बच्चों के जीवन पर बहुत ही नकारात्मक प्रभाव डालता है।  इसका सबसे पहला नकारात्मक प्रभाव बच्चों का मानसिक रूप से बीमार होना है।  अपनों से बिछड़कर बच्चे, बुझ से जाते हैं और उनका उत्साह कम हो जाता है।  युद्धों के कारण बच्चे अपनी पढ़ाई से वंचित हो जाते हैं।  अपने से बिछुड़ने के बाद यदि बच्चों को अपना कोई संगा-संबन्धी मिल जाता है तो इससे उसको बहुत ढारस होती है किंतु माता-पिता से अलग होने का दुख समाप्त नहीं होता एसे में इस प्रकार के बच्चों को अधिक से अधिक समर्थन की आवश्यकता होती है।

 

विश्व समुदाय ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद बच्चों के समर्थन के विषय पर ध्यान देना आरंभ किया।  इसका मुख्य कारण यह था कि प्रथम विश्व युद्ध से व्यापक स्तर पर विनाश हुआ था जिससे बड़ी संख्या में बच्चे भी प्रभावित हुए थे।  द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सन 1949 में विश्व समुदाय ने चार एसे कन्वेशन पास किये जिनमें से चौथे का संबन्ध उन लोगों के समर्थन से था जो युद्ध की स्थिति में हों।  इस कन्वेंशन के अन्तर्गत सन 1949 में युद्ध के दौरान बच्चों के अधिकारों के संबन्ध में क़ानून बनाए गए जिसमें सन 1959 और 1977 में दो पूरक प्रोटोकोल जोड़े गए।  बाद में 1989 में युद्ध में घिरे बच्चों और महिलाओं से संबन्धित पूरक प्रोटोकोल बढ़ाए गए।/

जनेवा कन्वेंशन के 17वें अन्चुछेद में कहा गया है कि युद्धरत पक्षों के लिए आवश्यक है कि वे अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों से बच्चों और गर्भवती महिलाओं को निकलने की अनुमति दें।  इसी प्रकार 23वें अनुच्छेद में कहा गया है कि हर सरकार को कटिबद्ध बनाया जाता है कि वह हर प्रकार की दवाओं को जाने की अनुमति प्रदान करें।  इसी कन्वेंशन का 38वां अनुच्छेद कहता है कि 15 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों का विशेष रूप में समर्थन किया जाए।  वह संवेदनशील बिंदु जो विशेष महत्व का स्वामी है वह यह है कि इस नियम के लागू करने की गारेंटी को अन्तर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय में देखा जा सकता है।  इसके क़ानून के अनुसार इसके नियमों के उल्लंघन को युद्ध अपराध बताया गया है।

प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान से ही युद्ध के दौरान बच्चों की सुरक्षा के विषय को पेश किया जाने लगा था।  सन 1959 में सुरक्षा परिषद में पारित बाल अधिकार घोषणापत्र के अनुसार युद्धों और सशस्त्र झड़पों के दौरान बच्चों के अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया जाए और एसी स्थिति में उनको आवश्यकता के अनुसार सुविधाएं प्रदान की जाएं।  सन 1989 के बाल अधिकार कन्वेंशन के 38वें अनुच्छेद के अनुच्छेद में कुछ बातें कही गई हैं।

 

1-देशों के युद्धों के समय बाल अधिकारों पर पूरी गंभीरता के साथ ध्यान देना चाहिए।

2-देशों को चाहिए कि वे इस बात सुनिश्चित बनाएं कि 15 वर्ष की आयु से कम के किशोर युद्ध में भाग न ले सकें।

3-देशों को 15 वर्ष के कम की आयु के बच्चों को अपनी सेना में भर्ती करने से बचना चाहिए।  इन देशों को सेना में भर्ती के समय 15 के स्थान पर 18 वर्ष के किशोरों को वरीयता देनी चाहिए।  इससे यह भी निष्कर्श निकाला जा सकता है कि 15 से 18 वर्ष के बीच के किशोरों का उपयुक्त समर्थन नहीं किया गया है।  यही कारण है कि सन 2000 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा ने युद्ध के दौरान बाल अधिकारों से संबन्धित एक पूरक प्रोटोकोल को बढ़ाया जो सन 2002 से लागू हुआ।

इस्लामी शिक्षाओं में युद्ध के दौरान बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं की सुरक्षा के बारे में बताया गया है।  जेहाद में भाग लेने वालों के संबन्ध में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के आदेश में आया है कि इस दौरान किसी को भी बच्चों को परेशान करने का अधिकार नहीं है चाहे उसे बच्चे ने युद्ध के दौरान युद्ध करने वाले की सहायता ही क्यों न की हो।  जब भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) किसी को सेनापति बनाकर भेजते थे तो उससे कहते थे कि जेहाद के दौरान कभी भी विश्वासघात न करना, मरने वालों के शवों को कभी भी क्षत-विक्षत न करना, बच्चे और वे लोग जो उपासना में लीन हों उनकी कभी भी हत्या न करना।  पेड़ों को आग न लगाना।  खजूर के पेड़ों को आग लगाकर नदी में न बहाना।  किसी भी ऐसे पेड़ को न काटना जिसपर फल लगे हों।  फ़सलों को कभी आग न लगाना।  जब कभी भी मुसलमानों के दुश्मनों से मुक़ाबला हो तो पहले उनके सामने तीन शर्तें रखना।  एक यह कि वे मुसलमान हो जाएं, या वे जिज़िया दें और या फिर युद्ध से पीछे हट जाएं।  अब अगर उन्होंने तुम्हारी बात मान ली तो तुम उनसे युद्ध न करना।  इसी प्रकार से पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से कहा गया है कि युद्ध के दौरान महिलाओं और बच्चों की हत्या करना हराम है।

उल्लेखनीय है कि इस्लाम में बाल अधिकारों के अन्तर्गत ओआईसी ने 26 अनुच्छेदों को पारित किया है।  इसके संकलनकर्ताओं का कहना है कि इस बात के दृष्टिगत कि बच्चे समाज का एसा हिस्सा हैं जो हर प्रकार की समस्याओं से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।  एसे में समाज के इस भाग का हर स्थिति में समर्थन किया जाना चाहिए।  हालांकि बड़े खेद की बात है कि वर्तमान समय में भी हम देख रहे हैं कि संसार में अब भी व्यापक स्तर पर युद्धों की बलि चढ रहे हैं।

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