Jul ०२, २०१९ १६:३० Asia/Kolkata

विवाह ऐसा बंधन है जो मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकता की पूर्ति करता है। 

नस्ल को चलाने और समाज को बढ़ाने में विवाह की महत्वपूर्ण भूमिका है।  मनुष्य को परिपूर्णता तक पहुंचाने में विवाह को अनदेखा नहीं किया जा सकता।  पिछले कार्यक्रम में हमने बताया था कि इस्लाम ने जिन विषयों को पेश किया है उनमें से एक विवाह भी है।  जब विवाह की बात चलती है तो बहुविवाह का विषय भी बीच में आ जाता है।  हम यह भी बता चुके हैं कि बहुविवाह का मुद्दा कोई इस्लाम की देन नहीं है बल्कि प्राचीनकाल में बहुविवाह की प्रथा संसार के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित रही है।  इस्लाम के उदय से पहले अरब जगत में बहुविवाह एक सामान्य सी बात थी।  उस काल में कुछ एसे लोग भी थे जिनके 10-12 पत्नियां होती थीं।  इस्लाम ने बहुविवाह के लिए कुछ विशेष क़ानून निर्धारित किये हैं।

इस्लाम मनुष्य की प्राकृतिक एवं आतंरिक इच्छाओं के आधार पर उसकी आवश्यकताओं को नकारना नहीं चाहता।  इस्लाम ने कई पत्नियां रखने की कोई सिफ़ारिश नहीं की है बल्कि कुछ शर्तों के साथ इसको वैध माना है। बहुविवाह की सबसे महत्वपूर्ण शर्त पत्नियों के बीच न्याय करना भी है।  पवित्र क़ुरआन स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि तुम अपनी पत्नियों के बीच न्याय नहीं कर सकते तो एक से अधिक विवाह मत करो।  इससे स्पष्ट हो जाता है कि बहुत विवाह से इस्लाम का उद्देश्य केवल यौन इच्छाओं की पूर्ति नहीं बल्कि कुछ सामाजिक, आर्थिक एवं आत्मिक विषय भी टृष्टिगत हैं।

इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार मनुष्य के भीतर पाई जाने वाली समस्त भावनाओं को उसे संतुलित रखना चाहिए।  इस्लाम इस बात की अनुमति नहीं देता कि मनुष्य अपनी कामेच्छा को बेलगास छोड़ दें।  अब अगर कोई केवल कामेच्छा की पूर्ति के लिए बहुविवाह को अपनाता है तो निश्चित रूप से यह बात इस्लामी नहीं बल्कि ग़ैर इस्लामी है।  दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इस्लाम ने कुछ शर्तों के साथ बहुविवाह की अनुमति केवल वासना की पूर्ति के लिए नहीं दी है बल्कि यह आदेश विभिन्न प्रकार की आवशयक्ताओं को पूरा करने के उद्देश्य से दिया गया है।  मनुष्य के लिए कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसी परिस्थितियां या सामाजिक स्थिति पैदा हो जाती है जिसके कारण उसके लिए बहुविवाह आवश्यक हो जाता है।

उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल में उन महिलाओं के साथ विवाह को महत्व प्राप्त था जिनके पति युद्ध में शहीद हो जाते थे या किसी अन्य कारण से महिला विधवा हो जाती थी।  अपने पति की मृत्यु के कारण इस प्रकार की महिलाओं के लिए जीवन व्यतीत करना बहुत कठिन हो जाता था।  उदाहरण स्वरूप अबू सुफ़ियान की बेटी उम्मे हबीबा ने अपने पति के साथ हबशा पलायन किया था।  वहां पर वे बेसरपरस्त हो गईं।  उम्मे हबीबा न तो मक्के वापस आना चाहती थीं और न ही हबशा में किसी से शादी करने की इच्छुक थीं।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) को जब उनके बारे में पता चला तो उन्होंने हब्शा के राजा नज्जाशी के पास अपना दूत भेजकर उन्हें विवाह का प्रस्ताव दिया।  उम्मे हबीबा से पैग़म्बरे इस्लाम के विवाह से उनको उस समस्या से मुक्ति मिल गई जिसमें में असमंज्य की स्थिति में अपने घरबार से दूर रह रही थीं।  इस प्रकार की एसी बहुत सी मिसाले हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि इस्लाम में बहुविवाह का कारण वह नहीं है जिसका दुष्प्रचार किया गया है।  वह व्यक्ति जो दूसरी शादी करना चाहता है उसको अपनी दूसरी शादी के कारणों का उल्लेख करना चाहिए और यह बात पहली बीवी की जानकारी में लानी चाहिए।

एक फ़्रांसीसी इतिहासकार Gustave Le Bon गस्टेव लीबान कहते हैं कि इस्लाम में बहुत सी शर्तों के साथ बहुविवाह का आदेश एक प्रशंसनीय काम है।  वे कहते हैं कि यूरोप में पुरूषों द्वारा कई महिलाओं के साथ अवैध शारीरिक संबन्ध रखने वाले वातावरण में इस्लाम का शर्तों के साथ बहुविवाह का नियम आदर्श नियम है।  यह फ़्रांसीसी इतिहासकार लिखता है कि पश्चिम में आधिकारिक रूप में कई पत्नियां नहीं रखी जातीं और एक पत्नी के साथ रहने का ही चलन है।  वे कहते हैं कि हालांकि व्यवहारिक रूप में यहां पर एसा नहीं है।  केवल एक ही पत्नी के साथ पूरा जीवन गुज़ारने की बात अब तो केवल किताबों तक ही सीमित है।  मुझे यह बात अच्छी लगती है कि पूर्व में बहुत सी शर्तों के साथ बहु विवाह संभव है।

बहुत से लोग इस बात से सहमत नहीं है कि बहुविवाह की प्रथा सही है और इसे लागू होना चाहिए।  इस्लाम के उदय के आरंभिक काल में कुछ महिलाएं इकट्ठा होकर हज़रत अली अलैहिस्सलाम की सेवा में उपस्थित हुईं।  इन महिलाओं का कहना था कि इस्लाम ने पुरूषों को कई महिलाओं के साथ विवाह की अनुमति दी है किंतु महिलाओं को कई पुरूषों के साथ विवाह की अनुमति क्यों नहीं है?

इन महिलाओं की बात सुनकर हज़रत अली ने उनसे कहा कि वे अलग-अलग बर्तनों में पानी लेकर आएं।  बाद में उन्होंने उनसे कहा कि वे अपने-अपने बरतन का पानी एक बड़े बरतन में डाल दें।  जब सब महिलाओं ने अपने-अपने पानी को बड़े वाले बरतन में डाल दिया तो इमाम अली अलैहिस्सलाम ने उन महिलाओं से कहा कि वे बड़े वाले बरतन से अपने छोटे बरतन में पानी भरें लेकिन शर्त यह है कि वही पानी वापस लें जो उन्होंने पहले डाला था।  इसपर महिलाओं ने कहा कि यह तो संभव ही नहीं है।  सारा पानी आपस में मिल चुका है।  महिलाओं की बात पर हज़रत अली ने कहा कि अगर किसी एक महिला के कई पति होंगे तो स्वभाविक सी बात है कि उसके बच्चा भी पैदा होगा।  अब एसे में यह बात कैसे पता चलेगी कि उसका बच्चा किस पति की संतान है? इस उदाहरण से महिलाओं को पूरी बात समझ में आ गई और वे शांत हो गईं।

अगर पुरूष द्वारा बहुविवाह करने के मनोवैज्ञानिक कारणों की गहन समीक्षा न की जाए तो निश्चित रूप में यह विषय, सरलता से समझ में आने वाला नहीं है।  महिलाओं का कई पतियों से विवाह करना न तो उनकी प्रवृति के अनुरूप है और न ही यह उनके हितों से मेल खाता है।  महिला, अपने पति से केवल शारीरिक संबन्धों की ही कामना नहीं करती बल्कि उसकी इच्छा रहती है कि उसके पति का उसके हृदय पर अधिकार हो, वह उसका समर्थक हो, उसके लिए बलिदान दे, उसके लिए कठिनाइयां सहन करे, उसको समझे और उसके सुख और दुख का भागीदार बने।  दूसरी ओर यह बात भी प्रमाणित हो चुकी है कि किसी पुरूष के लिए सबसे अधिक प्रेरक उसकी पत्नी और बच्चे होते हैं। महिला का कई पुरूषों के साथ विवाह न तो पुरूष के स्वभाव के अनुसार है और न ही महिला की प्रकृति के अनुरूप है।

आगामी पीढ़ी की दृष्टि से एक पत्नी का होना, एक प्रकार से क़ानूनी, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और प्रशिक्षण से संबन्धित क्षतियों से बचाता है।  परिवार का गठन करना और पिछली तथा आगामी पीढ़ियों के बीच स्पष्ट संपर्क, मानव की प्रकृतिक आवश्यकता है।  इस्लामी दृष्टि से महिलाओं के लिए कई पुरूषों से शादी करने पर रोक इसलिए है कि यह काम महिला की प्रवृत्ति और उसकी भावनाओं के विपरीत है।  दूसरी बात यह है कि इस प्रकार बाद वाली नस्लों की पहचान बाक़ी नहीं रहेगी।

इस प्रकार कई पुरूषों के साथ एक महिला की शादी, परिवार के गठन की भावना को समाप्त करने वाली तथा आगामी पीढ़ी के बढ़ने में बाधा सिद्ध होगी।  स्वभाविक सी बात है कि हर व्यक्ति अपनी संतान को ही प्यार करता है और उसके लिए सबकुछ करने को तैयार रहता है लेकिन इसके विपरीत वह एसे किसी के साथ सहयोग करना नहीं चाहता जिसे उससे जोड़ा जाए और वह उसके बारे में शंका रखता हो।

कार्यक्रम के अंत में हम हलाल आजीविका के परिवार पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में चर्चा करेंगे।  हम सब यह बात जानते हैं कि अच्छा परिवार, एक अच्छे समाज की पृष्ठभूमि होता है।  यदि कोई परिवार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्वस्थ होगा तो वह समाज भी उसी अनुपात में स्वस्थ होगा।  किसी भी परिवार के सही होने का एक आधार आर्थिक स्थिति है।  इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार मनुष्य को अपने परिवार का पालन-पोषण, हलाल आजीविका से करना चाहिए।  हलाल रोज़ी कमाने के लिए इस्लाम, अपने मानने वालों को बहुत प्रेरित करता है।  पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के कथनों में इस बात पर विशेष रूप से बल दिया गया है कि मनुष्य को अपनी आजीविका के लिए हलाल रोज़ी ही कमानी चाहिए।

सूरे बक़रा की आयत संख्या 168 में ईश्वर कहता है कि हे लोगो! जो कुछ भी धरती पर है उसमे से जो हलाल हे उसे खाओ।  इसी संबन्ध में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कथन है कि जो व्यक्ति अपने परिवार का ख़र्च चलाने के लिए प्रयास करता है उसको ईश्वर की राह में संघर्ष करने वाला मुजाहिद बताया गया है।  इस आधार पर कमाई जाने वाली आजीविका से आत्म सम्मान बढ़ता है और साथ ही दूसरों पर निर्भर्ता समाप्त होती है।  इसका एक अन्य लाभ यह भी है कि मनुष्य को एक प्रकार की आत्मिक शांति का आभास होता है।  इस प्रकार हलाल रोज़ी कमाकर मनुष्य अपने परिवार का उचित ढंग से पालन-पोषण करके उसके भविष्य को संवार सकता है।

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