Jul १७, २०१९ १९:१५ Asia/Kolkata

औद्योगिक क्रांति आने से पहले लोगों में शायद ही कोई यह सोचता था कि हम क्यों संतान चाहिए।

इतना ही नहीं बल्कि कुछ लोगों के मन में तो यह विचार आता ही नहीं होगा।  संतान की प्राप्ति एक स्वाभविक भावना थी और इसके न होने के बारे में विगत में तो कुछ सोचा भी नहीं जाता था।  लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद और पश्चिमी सभ्यता के आम होने के साथ जैसे ही आधुनिक युग का आरंभ हुआ बहुत से लोगों के भीतर संतान न पैदा करने का झुकाव देखा जाने लगा।  पाश्चात्य सभ्यता ने यह भूमिका प्रशस्त की कि अगर संतान नहीं है तो क्या बात है इसमें कोई बुराई नहीं है।  इसी के साथ कुछ लोगों के भीतर यह विचार भी पैदा हुआ कि अधिक संतान की कोई आवश्यकता नहीं है और अगर एक संतान हो तो वहीं काफ़ी है।  खेद की बात यह है कि कुछ मुसलमानों को भी इस विचारधारा ने प्रभावित किया।

वर्तमान समय में एसे बहुत से दंपति मिल जाएंगे जिनकी यह सोच है कि औलाद की पैदाइश और उसके जीवन पर बहुत पैसा ख़र्च होता है इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि संतान उत्पत्ति के बारे में विचार किया जाए।  एसे लोगों का मानना है कि बच्चों के पालन-पोषण और उनकी शिक्षा पर बहुत पैसा ख़र्च करना पड़ता है अतः इस मंहगाई के दौर में संतान की कोई आवश्यकता नहीं है।  हालांकि इस सोच के कारण बहुत से देशों के सामने यह समस्या आन खड़ी हुई है कि उसे देश में जनसंख्या में ह्रास देखा जा रहा है जो उसके भविष्य के लिए ख़तरनाक है।  धार्मिक दृष्टि से इस विचार को ईश्वरीय आदेशों के अनुरूप माना जाएगा।  इसका कारण यह है कि जन्म और मरण ईश्वरीय प्रक्रिया है जिसे जारी रहना चाहिए।  इस प्रक्रिया में व्यवधान डालना उचित नहीं है।  महान ईश्वर इस बात को पसंद नहीं करता है कि लोग मात्र रोज़ी या आजीविका के भय से विवाह न करें क्योंकि महान ईश्वर ने पवित्र क़ुरआन में वादा किया है कि अगर वे निर्धन होंगे तो हम अपनी असीमित कृपा से उन्हें आवश्यकतामुक्त कर देंगे। महान ईश्वर पवित्र क़ुरआन में कहता है” जिन पुरुषों और महिलाओं के पास पति या पत्नी नहीं है उनका विवाह करवाओ। इसी प्रकार अपने भले दासों और भलि दासियों का विवाह करो। ईश्वर अपनी कृपा से उन्हें आवश्यकता मुक्त कर देगा"।

 

मनुष्य के भीतर बाक़ी रहने की जो भावना है उसकी पूर्ति संतान से ही संभव है।  संतान एसी ईश्वरीय विभूति है जिसकी उपस्थिति से घर का माहौल ही बदल जाता है।  बच्चे के पैदा होने से दैनिक जीवन के कई समीकरण धराशाई हो जाते हैं।  नवजान शिशु देखने में तो बहुत ही छोटा होता है किंतु यह इतना सशक्त होता है कि परिवार विशेषकर माता-पिता के भीतर खुशियों के दीप जला देता है।  मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि वे दंपत्ति जिनके पास संतान होती है वे उन दंपत्तियों से अधिक खुशहाल होते हैं जो संतान नहीं रखते।  संतान के आगमन से माता-पिता को प्रसन्नता प्राप्त होती है उसका उल्लेख शब्दों में संभव नहीं है।

समाज शास्त्रियों का कहना है कि जब पति-पत्नी के बीच अलगवा की बात आती है तो उसका सबसे बड़ा कारण संतान का न होना है।  बच्चे के न होने से परिवार के वातावरण में नीरसपन छा जाता है।  यह नीरसपन कभी-कभी संयुक्त जीवन के प्रेम को भी प्रभावित करता है और कुछ अवसरों पर अलगाव का कारण बन जाता है।  ईरान में किये गए शोध दर्शाते हैं कि देश में पाए जाने वाले निःसन्तान परिवारों के बिखरने का ख़तरा बहुत अधिक पाया जाता है।

धार्मिक शिक्षाओं में संतान को फल की संज्ञा दी गई है।  इसको माता-पिता की शांति का कारण बताया गया है।  कुछ कथनों में संतान को आखों की ठंडक भी बताया गया है।  इस्लामी शिक्षाओं में अपनी संतान से प्यार करने की बहुत अनुशंसा की गई है।  इन शिक्षाओं के अनुसार संतान को प्यार भरी निगाह से देखने का भी पुण्य है।  संतान के कारण पति-पत्नी के संबन्धों में अधिक मज़बूती आती है।

जब एक दंपति संतान से वंचित होता है और संतान होने की दुआ करता रहता है और बाद में उसे संतान की प्राप्ति होती है तो इससे उसके भीतर एक नया जोश भर जाता है।  एक शोधकर्ता हाफमेन ने उन दंपतियों पर शोध किया है जो संतान रखते हैं।  वे कहते हैं कि औलाद, मां-बाप के सामाजिक जीवन को भी प्रभावित करती है।  जब बच्चा पढ़ाई के लिए स्कूल जाने लगता है तो उसके माता-पिता का सामाजिक संपर्क भी बढने लगता है।  इस प्रकार से बच्चा अपने माता-पिता को समाज से अधिक जोड़ता है।  वह अपने माता-पिता की तन्हाई को दूर करता है।  बच्चे के जन्म लेने से मां-बाप के बीच भविष्य के प्रति नई आशा जागृत होती है।

घर में प्रेम और स्नेह का वातावरण उत्पन्न करने में मां और बाप दोनों की ही भूमिका महत्वपूर्ण होती है, लेकिन बच्चों पर दोनों के प्रेम व स्नेह और भावनात्मक रिश्तों का अलग-अलग प्रभाव होता है। दोनों में से किसी एक के प्रेम व स्नेह के अभाव की किसी भी चीज़ से पूर्ति नहीं की जा सकती और यह स्वयं भी एक-दूसरे का विकल्प नहीं बन सकते।

शिशु अपने जीवन में जिस चीज़ से सबसे पहले परिचित होता है उस हस्ती का नाम है मां। मां ही वह हस्ती है जो बच्चे को जीवन और विश्व से परिचित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जीवन के बारे में आगे चलकर बच्चे का जो दृष्टिकोण बनेगा वह काफ़ी हद तक मां पर ही निर्भर करता है। बच्चे का व्यवहार, धर्म और समाज के प्रति उसका दृष्टिकोण तथा जीवन के बारे में उसकी धारणाएं मां के व्यक्तित्व पर ही निर्भर करती है। हालांकि बड़े होकर निश्चित रूप से उसके दृष्टिकोणों में परिवर्तन आता है और जीवन के अनेक आयामों के प्रति वह ख़ुद अपना दृष्टिकोण क़ायम करता है, लेकिन जीवन के आरम्भिक वर्षों में उसके व्यक्तित्व पर मां के व्यक्तित्व और दृष्टिकोणों की जो छाप पड़ती है, उसका असर अतिंम सांसों तक उसके मन पर रहता है।

बच्चों के संदर्भ में उनके प्रशिक्षण के विषय को बिल्कुल भी अनेदखा नहीं किया जा सकता।  प्रशिक्षण वह विषय है जिसका सबसे पहले संबन्ध बच्चे के माता-पिता और अभिभावकों से होता है।  उचित प्रशिक्षण से बच्चे का मानसिक विकास बहुत सही ढंग से होता है।  माता और पिता के अनुभव बच्चे के प्रशिक्षण को बहुत हद तक प्रभावित करते हैं।  संतान की प्राप्ति का मां और बाप दोनों पर अलग-अलग ढंग से प्रभाव पड़ता है।  औलाद के होने से माता और पिता के जीवन में जहां पर खुशियां आ जाती हैं वहीं पर उनके भीतर आशा की भावना बढ़ती है और निराशा समाप्त हो जाती है।

किसी सफल परिवार की एक विशेषता यह है कि उसके सदस्य एक दूसरे के प्रति विनम्र और ज़िम्मेदार हों।  यह बात उसी समय लागू होगी जब दोनों ही एक-दूसरे की आवश्यकताओं को भलिभांति समझते हों।  पति और पत्नी शारीरिक संरचना और मानसिक दृष्टि से थोड़ा भिन्न होते हैं।  सफल दामपत्य जीवन व्यतीत करने के लिए पति और पत्नी को एक दूसरे की समानताओं और विभिन्नताओं को समझना बहुत ज़रूरी है।  दोनो को अपने आगामी जीवन और मन की बातों को एकसाथ बैठकर डिसकस करना चाहिए।  पत्नी की इच्छा होती है कि उसका पति उसकी ओर अधिक से अधिक ध्यान दे।  पति को समय-समय पर अपनी पत्नी के लिए कोई उपहार लाकर उसे देना चाहिए।

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