घर परिवार- 46
इंसान की सफलता या विफलता में परिवार का बहुत हाथ होता है यहां तक कि गुमराही के कारणों को समझने और उसे कम करने में परिवार की सहायता ली जा सकती है और इस संबंध में वह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
इस दृष्टि से भी परिवार महत्वपूर्ण होता है कि उसमें इंसान बहुत से संस्कार सीखता है और वह परम्पराओं, विश्वासों और विभिन्न प्रकार के सामाजिक मूल्यों के हस्तांतरित करने का स्थान होता है। यही नहीं इंसान परिवार में खाने- पीने, उठने- बैठने और दूसरों से बात- चीत का तरीका भी सीखता है। मां- बाप अपने बच्चों को सामाजिक बनाने के लिए उन्हें सांस्कृतिक धरोहरों की शिक्षा देते हैं। कुल मिलाकर परिवार वह जगह है जहां बच्चा सामाजिक होने ओर पहला कदम उठाता है और अंततः वह सामाजिक प्राणी व इंसान में परिवर्तित हो जाता है। परिवार अपना नाम बच्चे को देता है और वह सामाजिक धारे में आ जाता है। इस आधार पर परिवार बच्चे को सबसे पहले सामाजिक पहचान देता है।
परिवार और उसके सदस्यों को खाना, कपड़ा, वस्त्र और दूसरी चीज़ों की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार परिवार के सदस्यों को प्रेम, निष्ठा, स्फूर्ति, विकास और एकता आदि की भी ज़रूरत होती है। इस आधार पर परिवार का सदस्य होने का मतलब उन चीज़ों में एक प्रकार का भागीदार होना है जिनका संबंध परिवार से होता है जैसे संयुक्त इतिहास और विशेष जीवन के वातावरण का आदी हो जाना। परिवार का महत्व भी इन्हीं चीज़ों के कारण है।
परिवार बहुत महत्वपूर्ण और प्रभावी होता है और हर परिवार को माता- पिता की आवश्यकता होती है ताकि परिवार के सदस्यों के मध्य अच्छा संबंध रहे और वे एक दूसरे के प्रति कटिबद्ध रहें और इस हद तक सुरक्षा का आभास करें कि वे दूषित वातावरण से दूर रहकर अपने बच्चों का पालन- पोषण और प्रशिक्षा कर सकें। परिवार में हमने माता- पिता और बड़ों की भूमिका का उल्लेख किया और यह भी बताया कि जीवन के मूल्यों और उसके तरीकों को किस प्रकार हम उनसे सीखते हैं। परिवार या घर पाठशाला होता है और परिवार के सदस्य शिक्षक और जो शिक्षक हमें शिक्षा देते हैं यानी जीवन का जो तरीका बताते व सिखाते हैं उसकी परीक्षा हमसे समाज लेता है। दूसरे शब्दों में इंसान की सफलता इस बात की सूचक है कि परिवार में किस सीमा तक और कितनी सही उसकी प्रशिक्षा हुई है।
परिवार विशेषज्ञ परिवारों में दी जाने वाली प्रशिक्षाओं के दृष्टिगत उन्हें कई भागों में विभाजित करते हैं। जैसे कड़ाई से पेश आने वाले परिवार, नर्मी से पेश आने वाले परिवार, बिखरे हुए परिवार और स्वस्थ और शक्तिशाली परिवार।
जो परिवार कड़ाई या नर्मी से पेश आते हैं वास्तव में वे दोनों एक प्रकार के अतिवाद के शिकार होते हैं। दूसरे शब्दों में जो परिवार कड़ाई से पेश हैं उस परिवार के माता- पिता अपने बच्चों से उसी तरह से पेश आते हैं जिस तरह उनके माता- पिता उनके साथ व्यवहार किये हुए होते हैं। इस प्रकार के परिवार में निर्णय माता- पिता विशेषकर पिता लेता है। आम तौर पर परिवार का मुखिया पिता होता है और बच्चों की देखभाल और उनके व्यवहार पर पिता की ही निगरानी होती है और परिवार के किसी भी सदस्य के अंदर अपने दृष्टिकोणों को बयान करने की अनुमति व साहस नहीं होता है। दूसरे शब्दों में कड़ाई से पेश आने वाले परिवारों में सीमा से अधिक माता- पिता की भूमिका पर बल दिया जाता है और माता -पिता चाहते हैं कि किसी प्रकार की ना- नकुर के बिना उनकी बात मान ली जाये और वे कारण बताने की आवश्यकता का आभास ही नहीं करते और परिवार का अभिभावक व मुखिया प्रायः पिता होता है इसलिए जो कुछ उसका दिल छाहता है उसे अंजाम देता है। यहां तक कि जो कार्य बच्चों से संबंधित होते हैं उनमें भी उनके विचारों व रुझानों को कोई महत्व नहीं देता है और जो कार्य वह अंजाम देता या नहीं देता है उसके बारे में बच्चों को प्रश्न करने की भी हिम्मत नहीं होती। इस आधार पर बच्चे अपने अधिकार से भी लाभ नहीं उठा सकते। इस प्रकार के परिवारों के बच्चे बहुत कम अपनी इच्छा से कोई कार्य करते हैं और उनमें यह कहने की भी हिम्मत नहीं होती है कि यह मेरा अधिकार है। इस प्रकार के बच्चों में जिज्ञासा की भावना नहीं होती है और नैतिक व शिष्टाचारिक और भावनात्मक मामलों में उनमें कमज़ोरी होती है और वे यह समझते हैं कि उनके माता- पिता उन पर ध्यान नहीं देते हैं। जो बच्चे कड़ाई से पेश आने वाले परिवारों में बड़े होते हैं आम तौर पर वे मां- बाप की बात सुनने वाले होते हैं परंतु अधिकांश अवसरों पर बात सुनने का उनका यह रवइया हिंसात्मक प्रवृत्ति के साथ होता है। इस प्रकार के परिवारों के बच्चे असुरक्षा का आभास करते हैं और स्वयं में पर्याप्त स्वाधीनता नहीं देखते। इसी प्रकार इस प्रकार के परिवारों के बच्चे अपनी उम्र के दूसरे बच्चों के मध्य अधिक लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पाते।
परिवार का एक प्रकार यह है कि वह अपने बच्चों के साथ सरलता व नर्मी का व्यवहार करता है यानी उनके साथ कड़ाई से पेश नहीं आता है। इस प्रकार के परिवारों की विशेषता यह होती है कि वे सामाजिक मूल्यों की शिक्षा को गंभीरता से नहीं लेते हैं। इस प्रकार के परिवारों में बहुत सीमित कानून होते हैं और परिवार के सदस्य कानूनों और शिष्टाचारिक परम्पराओं पर अमल करने के प्रति विशेष कटिबद्ध नहीं होते और वे जो कार्य करना चाहते हैं कर सकते हैं। इस प्रकार के परिवारों की नज़र में दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि परिवार में जितने सदस्य होते हैं उन सबके अलग- अलग दृष्टिकोण होते हैं यहां तक कि खाना- खाने जैसे छोटे से दिनचर्या के मामले में भी सबके अलग -अलग विचार होते हैं। सरलता या ढ़िलाई से पेश आने वाले परिवार बच्चों की शारीरिक व मानसिक आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं देते हैं क्योकिं वे हर बात को आसानी से लेते हैं और बच्चों की आवाज़ों को जल्द से जल्द खामोश करने के लिए हर वह कार्य अंजाम देते हैं जो उनके बच्चे चाहते हैं। अतः वे अधिक अपेक्षा रखने वाले बच्चों की प्रशिक्षा करते हैं।
इस प्रकार के परिवारों के लिए उद्देश्य व अपेक्षाएं स्पष्ट नहीं हैं और इसी कारण वे अपने बच्चों की प्रशिक्षा में किसी विशेष शैली का अनुपालन नहीं करते हैं। इसी प्रकार वे अपने बच्चों को स्वाधीन बनाने के लिए कोई विशेष कार्य अंजाम नहीं देते हैं। जैसाकि अगर उनका कोई बच्चा मां- बाप या परिवार के किसी अन्य सदस्य से अधिक हिल जाये तो उसके लगाव को कम करने के लिए कुछ नहीं करते जबकि बच्चे का यही लगाव आगे चलकर उसके लिए हानिकारक होगा और उनके लिए समस्याजनक होगा। आसानी से पेश आने वाले माता- पिता या परिवार के दूसरे सदस्य परिवार में प्रशिक्षा के नियम पर ध्यान नहीं देते हैं और इस संबंध में वे अपने बच्चों से कोई विशेष अपेक्षा भी नहीं रखते हैं।
जो बच्चे आसानी से पेश आने वाले परिवारों में पलते- बढ़ते हैं जब उन्हें समस्याओं का सामना होता है तो वे समाज में जल्दी उन समस्याओं के सामने घुटने टेक देते हैं जिनका उन्हें सामना होता है। क्योंकि उनके पास न तो अनुभव होता है और न ही उन्हें यह सिखाया गया होता है कि समस्याओं से मुकाबला कैसे किया जाना चाहिये। उसकी एक वजह यह है कि आसानी से पेश आने वाले परिवारों का हर सदस्य सामूहिक हितों के बजाये व्यक्तिगत हितों पर ध्यान देता है उसकी वजह यह है कि वह अंदर से कमज़ोर होता है और यही आंतरिक कमज़ोरी ज़िम्मेदारी का आभास न करने का कारण बनती है। परिणाम स्वरूप बच्चे सामाजिक जीवन व्यतीत करने में सक्षम नहीं होते हैं और समाज में हमेशा उन्हें नैतिक व गैर नैतिक समस्याओं का सामना रहता है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम एक सुन्दर कथन में फरमाते हैं ”अपने बच्चों को अपना शिष्टाचार मत सिखाओ क्योंकि उनकी रचना तुम्हारे समय के अलावा किसी दूसरे समय के लिए की गयी है।“
हज़रत अली अलैहिस्सलाम का यह सुन्दर कथन जहां यह संदेश लिए हुए है कि भविष्य को दृष्टिगत रखना चाहिये वहीं यह संदेश भी लिए हुए है कि सामाजिक शिष्टाचार हर समय में बदलते रहते हैं और माता- पिता को चाहिये कि वे अपने व्यक्तिगत विश्वासों व आस्थाओं को अपने बच्चों से थोपने से बचें। मिसाल के तौर पर कभी यह भी देखा जाता है कि मां- बाप चाहे- अनचाहे में अपने बच्चों से वह काम करने के लिए कहते हैं जिसे वे किसी वजह से अंजाम नहीं दे सके हैं। इसका मतलब एक प्रकार से बच्चे का शोषण करना और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए उसे खिलौना बनाना है।
प्रसिद्ध ईरानी विचारक व बुद्धिजीवी उस्ताद शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी का मानना है कि अगर इंसान प्रगति करना चाहता है तो उसे अपने कार्य में आज़ाद होना चाहिये, उसे अपने काम के चयन में स्वतंत्र होना चाहिये। आप अपने बच्चे की प्रशिक्षा करते हैं और बहुत चाहते हैं कि उसकी प्रशिक्षा वैसी करें जैसे आप का दिल चाह रहा है और वह वही बने जो आप चाहते हैं परंतु अगर हमेशा यह चाहें कि वह वही करे जो आप चाहते हैं तो यह संभव नहीं है। आपके लिए ज़रूरी है कि एक सीमा तक बच्चे का दिशा- निर्देशन करें और एक सीमा तक उसे आज़ाद छोड़ दें।“
जिब्रान ख़लील जिब्रान इस संबंध में लिखते हैं” आप अपने बच्चों को प्रेम दे सकते हैं किन्तु आप अपनी आकांक्षाओं और शिष्टाचारों को उन्हें न दीजिये, आप उनके शरीर को अपने घर में रख सकते हैं परंतु उनकी सोचों को भविष्य के दृष्टिगत विस्तृत पैमाने पर विकसित होना चाहिये। आप उन्हें अपना जैसा बनाने की कोशिश न करें क्योंकि समय पीछे नहीं जायेगा और वह कल के बंधन में नहीं रहेगा। हम अपने बच्चों के मालिक नहीं हैं हम उनके संरक्षक हैं।"