Aug १८, २०१९ १५:५८ Asia/Kolkata

सबसे पहले हमें यह बात समझ में आनी चाहिए कि जीवन हमेशा संपूर्ण और एक स्थिति में नहीं रहता, यह हमेशा वही रहेगा जैसा हम उसे बनाएंगे।

इसलिए जीवन को यादगार बनाने की कोशिश करनी चाहिए और किसी दूसरे को इस बात की इजाज़त न दें कि वह हमारे सौभाग्य व सुकून को हम से छीन ले।

पवित्र क़ुरआन के रूम सूरे की आयत नंबर 21 के अनुसार, इस्लाम ने शादी और परिवार के गठन को मियां-बीवी के मन को सुकून का माध्यम बताया है। जैसा कि इसी बात की ओर नहल नामक सूरे की 80वीं आयत में भी इशारा है कि ईश्वर ने तुम्हारे घर को तुम्हारे लिए सुकून की जगह क़रार दिया है।

इस आयत पर विचार करने से पता चलता है कि इंसान को हर घर में शांति व सुकून की अनुभूति नहीं हो सकती, जैसा कि हर परिवार और जीवन साथी सुकून नहीं दे सकता क्योंकि इसके पीछे बहुत से कारक होते हैं। कभी हालात ऐसे होते हैं कि न सिर्फ़ शांति व सुकून में वृद्धि नहीं होती बल्कि इसके विपरीत इंसान से शांति छिन जाती है। इस मामले की जड़ घर और परिवार में संबंधों की शैली में ढूंढना चाहिए क्योंकि कुछ परिवारों में केवल अधिकार पर बल दिया जाता है और पति पत्नी सिर्फ़ अपने अधिकारों की प्राप्ति चाहते हैं। वे संयुक्त जीवन के मूल सिद्धांत अर्थात प्रेम, मोहब्बत व मेहरबानी को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ऐसे परिवार के आधार मज़बूत नहीं होते और घर में एक दूसरे के प्रति भरोसा नहीं होता क्योंकि उन्होंने अपने जीवन को कुछ कठोर नियमों व अधिकारों पर केन्द्रित कर रखा है। हालांकि अधिकार संयुक्त जीवन के लिए ज़रूरी है लेकिन इसके स्थायित्व की गैरंटी नहीं है।    

                

इस्लाम की नज़र में एक स्वस्थ व मज़बूत परिवार वह है जिसका मुख्य लक्ष्य प्रेम और धार्मिक आस्था की छाया में दांपत्य संबंध को मज़बूत करना है। ऐसे परिवार में पति पत्नी के संबंधों को स्वस्थ करने और बच्चों के अच्छे प्रशिक्षण के लिए वैवाहिक संबंध की मज़बूती को प्राथमिकता हासिल होती है। ईश्वरीय दूतों और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की यह कोशिश रही है कि पारिवारिक व्यवस्था मज़बूत हो और कोई भी तत्व उसे नुक़सान न पहुंचा सके। इन महान हस्तियों की नज़र में परिवार का स्वाभाविक स्वरूप यह है कि घर और परिवार एक दूसरे के पूरक के रूप में व्यवहार करें ताकि शांति मिले और इंसान जीवन में ख़ुशी व सौभाग्य का एहसास करे। वह अपने परिवार को उस मार्ग पर ले जाने के लिए प्रेरित हो जो ईश्वर की ओर से निर्धारित हुआ है। इसलिए प्रेम व सौभाग्य के इस केन्द्र के आधार की रक्षा का स्रोत मियां बीवी के नैतिक गुण हैं। नैतिक मूल्यों के प्रति कटिबद्ध हुए बिना कोई भी दांपत्य जीवन और बच्चों के अच्छे प्रशिक्षण के अपने सपने को साकार नहीं कर सकता। इस तरह के परिवारों में कुछ नैतिक मूल्य होते हैं जो इस प्रकार हैः

एक संतुलित परिवार में सदस्य एक दूसरे पर भरोसा रखते हैं और उस भरोसे का दुरुपयोग नहीं करते बल्कि उसे सफल दांपत्य जीवन व सम्मानित परिवार के मूल गुण समझते हैं।

वे एक दूसरे के शारीरिक व आत्मिक स्वास्थ्य की ओर से चिंतित होते और उसकी देखभाल करते हैं।

वे सकारात्मक सोच रखते और नकारात्मक सोच से दूर रहते हैं।

ऐसे परिवार में बल प्रयोग के बजाए बुद्धि, तर्क और इस्लामी शरीआ का प्रभुत्व होता है।

एक दूसरे की कमियों को नज़र अंदाज़ व माफ़ करना उनकी प्राथमिकता होती है।

वे अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियों को अहमियत देते और एक दूसरे से तन मन से लगाव रखते हैं।

सबसे अहम यह कि मिया बीवी में हर एक अपने जीवन साथी के सिवा किसी दूसरे पर नज़र नहीं रखता और इसी तरह अपने जीवन साथी की क्षमता व योग्यता की दूसरों से तुलना नहीं करता।                

आज-कल परिवार चूंकि मां-बाप और बच्चों पर आधारित होता है इसलिए परिवार के सदस्यों के साथ दादा-दीदी की मौजूदगी कम होती है लेकिन बहुत से एशियाई देशों और हमारे देश में भी अभी भी ऐसे बहुत से परिवार हैं जिसमें दादा-दादी भी रहते हैं या मां के काम करने की वजह से बच्चे का ज़्यादातर समय दादा-दादी के पास गुज़रता है इसी वजह से इस पीढ़ी का बच्चे के व्यक्तित्व पर अधिक असर पड़ता है। अध्ययन दर्शाते हैं कि ईरान सहित एशियाई देशों में बच्चों के प्रशिक्षण में दादा-दादी का रोल बहुत अहमियत रखता है और बच्चे जो अच्छाइयां बाप से सीखते हैं वही दादा से भी सीखते हैं और जो अच्छाइयां मां से सीखते हैं वही दादी से भी सीखते हैं। चूंकि दादा-दादी को जीवन का बहुत अनुभव होता है इसलिए वे बच्चे को समाज के अनुकूल नागरिक बनाने में बहुत बड़ा योगदान दे सकते हैं।

बहुत सी संस्थाएं, 93 फ़ीसद से ज़्यादा दादा-दादी द्वारा ऐसे बच्चों की देखभाल और मां-बाप की मदद की और इशारा करती हैं जिनके मां-बाप काम करते हैं। ये संस्थाएं दादा-दादी को बच्चों के लिए नेमत समझते हैं क्योंकि बच्चे उनके पास ख़ुश रहते और ख़ुद को सुरक्षित समझते हैं।

अभी हाल में स्कॉटलैंड की ग्लास्गो यूनिवर्सिटी में हुए शोध के अनुसार, दादा-दादी बच्चों के साथ मेहरबानी सहानुभूति करना चाहते हैं लेकिन कभी कभी उनके कुछ व्यवहार का बच्चे के स्वास्थ्य पर उलटा असर पड़ता है। कभी दयालु दादी बच्चे को ख़ुश करने के लिए उनकी थाली में ज़्यादा खाना परोस देती हैं या उन्हें बहुत अधिक मिठाई और टाफ़ियां देती हैं और उन्हें यह पता नहीं होता कि ये चीज़ बच्चे के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

अध्ययन दर्शाते हैं कि 9 महीने से 3 साल तक के बच्चे जो अपने दादा-दादी की भी निगरानी में होते हैं, उन बच्चों की तुलना में अधिक मोटे होते हैं जिन बच्चों की देखभाल सिर्फ़ उनके मॉ बाप करते हैं। इन सब बातों के बावजूद घर में दादा-दादी का वजूद बच्चे के प्रशिक्षण के लिए विशिष्टता रखता है। बच्चे दादा-दादी के साथ जो नैतिक मूल्य सीखते हैं वे उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए ज़रूरी होते हैं।

समाजशास्त्री अली दादख़्वाह का कहना हैः बच्चों पर दादा-दादी के प्रशिक्षण की शारीरिक, मानसिक और सामाजिक दृष्टि से समीक्षा करनी चाहिए। शारीरिक दृष्टि से बच्चे प्रायः दादा-दादी की ओर से देखभाल होने की वजह से कम नुक़सान उठाते है बल्कि अच्छी नींद सोते और ख़ूब आराम करते है। ऐसे परिवार में बच्चे मानसिक दृष्टि से अकेलेपन का आभास नहीं करते बल्कि अपेक्षाकृत सुकून का आभास करते हैं। ऐसे घर में बच्चे दादी की लोरी से सोते और उनके लाड प्यार से उठते हैं। उनमें डर व बेचैनी कम होती है। उनमें चोर का डर, बिजली और दूसरे ख़तरनाक उपकरणों से डर कम होता है। सामाजिक दृष्टि से ऐसे बच्चे, दादा-दादी के अपने रिश्तेदारों और अपनी उम्र के लोगों के साथ संपर्क होने की वजह से मज़बूत सामाजिक संबंध क़ायम करते हैं और इस मार्ग से बच्चों के दूसरों के साथ संबंध बढ़ते हैं। इस तरह बच्चों में सामाजिक भावना बढ़ती है और वे स्वस्थ पहचान बनाते हैं।

इस बारे में एक अहम बिन्दु मां बाप का दादा-दादी से समन्वित होना बहुत अहम है जिस पर कम ध्यान दिया जाता है। इस बात में शक नहीं कि मां-बाप और दादा-दादी की प्रशिक्षण की शैली एक समान नहीं होती। ऐसी स्थिति में बच्चे उलझन का शिकार हो जाते हैं और नहीं समझ पाते कि उन्हें क्या करना चाहिए। प्राइमरी शिक्षा से पहले वाली उम्र के बच्चे जीवन के बारे में तेज़ी से जानकारियां इकट्ठा करते हैं। जीवन के नियम को समझते हैं। अपने जीवन और दूसरे लोगों के बारे में अपने मन में ख़ाका तय्यार करते हैं। वे यह समझने की कोशिश करते हैं कि कौन सा व्यवहार सही है कौन सा ग़लत? कौन सी चीज़ मूल्यवान है और कौन सी नहीं? दूसरों के साथ किस तरह व्यवहार करना चाहिए। खाने के दस्तरख़ान के क्या शिष्टाचार हैं। जीवन के ये आरंभिक नियम वे इस उम्र में सीखते हैं। जब मां-बाप और दादा-दादी में इनमें से हर एक नियम के संबंध में मतभेद होगा, मुमकिन है बच्चा उलझन का शिकार हो जाए और यह न समझ पाए कि उसे फ़्रिज से खाना निकालना चाहिए या नहीं, किसी अजनबी को सलाम करे या न करे?

 

सबसे अहम बात यह है कि बच्चे को, मां-बाप और दादा-दादी के बीच मतभेद को समझने न दीजिए क्योंकि अगर बच्चे को समझ में आ गया कि मां-बाप और दादा दादी के बीच मतभेद है तो जो व्यवहार उसने सीखा है वह अपने आस-पास के लोगों के साथ दोहरी प्रतिक्रिया दिखाएगा और अवसरवादी व्यवहार अपनाएगा। मां-बाप सम्माजनक तरीक़े से अपने परिवार के सदस्यों या जीवन साथी को यह समझा सकते हैं कि किसी बच्चे को ज़रूरत से ज़्यादा छूट देना या उसकी सभी इच्छाओं को पूरा करना बच्चे के हित में नहीं है। इस बात पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि दादा-दादी पर आपके बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी नहीं है। वह आपके पास हैं, इसके लिए आपको उनका आभारी होना चाहिए और उनके स्नेह की क़द्र करनी चाहिए।

 

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