Nov ०३, २०१९ १७:१७ Asia/Kolkata

फ़िरदौसी ने शाहनामे में ख़ुद इस बात का उल्लेख किया है कि इस किताब की रचना में उन्हें तीस साल का समय लगा और इसके लिए उन्हें बहुत कठिनाइयां सहन करनी पड़ीं। वे कहते हैं।

“इन तीस बरसों में मैंने बहुत अधिक कष्ट उठाए हैं, इस पारसी के माध्यम से मैंने ईरान को जीवित कर दिया है, मैंने पद्य द्वारा एक ऐसे बड़े महल का आधार रखा है जिसे तेज़ हवाओं और बारिश से कुछ नुक़सान नहीं होगा। मैं अब नहीं मरूंगा और जीवित रहूंगा क्योंकि मैंने कथनों के बीज बो दिए हैं।“

फ़िरदौसी सामानी काल के अहम शायरों में से एक थे। उन्होंने अपनी मशहूर काव्य रचना शाहनामे उस समय लिखना आरंभ किया था जब सामानी शासकों का शासन अपने चरम पर था। यह किताब सामानी शासकों की राजनैतिक और राष्ट्रीय उमंगों की परिचायक है जो अपने आपको सासानी शासकों का वारिस और ईरान की स्वाधीनता तथा ईरानियों की राष्ट्रीय परंपराओं की बहाली का आधार रखने वाला समझते थे।

फ़िरदौसी ने मंसूर बिन नूह सामानी के शासनकाल में शाहनामे की कुछ कहानियों को पद्य का रूप दिया था। उन्होंने वर्ष 370 हिजरी बराबर 977 ईसवी में मशहूर शायर अबू मंसूर दक़ीक़ी के मरने के बाद शाहनामे के शेरों को उनके शाहनामे के आधार पर कहना शुरू किया। फ़िरदौसी के बारे में शोध करने वाले समकालीन विशेषज्ञ अमीन रियाही का मानना है कि शायद सामानी शासकों के कविता प्रेम और प्राचीन कथाओं से उनके लगाव की ख्याति ने फ़िरदौसी के भीतर यह आशा पैदा कर दी थी जब वे अपनी किताब को पूरा कर लेंगे तो उसे उस राजपरिवार के शासक को भेंट कर सकेंगे।

फ़िरदौसी का कहना है कि उन्होंने शाहनामे का आरंभिक संकलन 25 इस्फ़ंद सन 384 हिजरी क़मरी बराबर 10 मार्च सन 995 ईसवी में शुरू किया था जब उनकी आयु 55 साल की थी और उस समय मंसूर सामानी के बेट नूह द्वितीय का शासन था। वे कहते हैं। “अब यज़्दगर्द की कहानी समाप्त हो चुकी है, यह इस्फ़ंद महीने की पचीस तारीख़ है और हिजरत को 384 साल हो चुके हैं, संसार के रचयिता और पालनहार के नाम से।“ यह समय सामानी सरकार के कमज़ोर पड़ने का था और उसके पतन के चिन्ह स्पष्ट होने लगे थे। शाहनामे का पहला संकलन फ़िरदौसी की जवानी, ऊर्जा और प्रफुल्लता के बरसों की यादगार था। शाहनामे का यह भाग अधिकतर पहलवानी के क़िस्सों पर आधारित है और इसमें कवि की ऊर्जा व प्रफुल्लता भरपूर ढंग से दिखाई देती है।

शाहनामे के पहले संकलन की अन्य विशेषताओं में उसके ऐतिहासिक भाग का संक्षिप्त होना है अर्थात सासानी काल से संबंधित भाग छोटा है लेकिन ऐसा नहीं है कि फ़िरदौसी शाहनामे के संकलन के बाद बेकार बैठ गए हों बल्कि ठोस दस्तावेज़ों के अनुसार और विशेष रूप से शाहनामे में मौजूद अनेक शेरों से इस बात की पुष्टि होती है कि शाहनामे के पहले संकलन के बाद भी फ़िरदौसी ने उसे पूरा करने का काम जारी रहा। फ़िरदौसी ने आरंभिक संकलन में अपना पद्य संकलन किसी भी शासक को पेश नहीं किया और किताब की समाप्ति पर अपने नाम के अमर होने को अपनी कोशिशों का प्रतिफल बताया है। वे कहते हैं कि “जब यह किताब अपने अंत को पहुंच गई है तो पूरे देश में मेरे नाम का चर्चा है। अब मैं मरूंगा नहीं कि मैं जीवित हूं क्योंकि मैंने कथनों के बीज बो दिए हैं। जिसके पास भी बुद्धि, विचार और धर्म होगा वह मेरे मरने के बाद भी मुझे शाबाशी देगा।“

यद्यपि शाहनामे के पहले संकलन में सामानी शासनकाल का वैचारिक वातावरण दिखाई देता है लेकिन उसमें सामानियों का कोई नाम नहीं है। इस किताब के पहले संकलन में केवल एक शेर है जिसमें सामानियों के नाम का उल्लेख है। अशकानी शासकों के भाग में संसार की अस्थिरता और पिछले शासकों का उल्लेख करते हुए फ़िरदौसी ने सामानियों का भी नाम लिया है। यह बात स्पष्ट नहीं है कि सामानी शासकों से फ़िरदौसी की दूरी इस बात का कारण बनी है कि शाहनामे में उनका कोई उल्लेख नहीं है या फिर संभावित रूप से इस किताब के कुछ शेरों में उनका भी गुणगान था लेकिन बाद में महमूद ग़ज़नवी के काल में उन्हें काट दिया गया।

जब फ़िरदौसी की 55 साल की आयु में शाहनामे का पहला संस्करण पूरा हो गया तो उसकी कुछ हस्तलिखित प्रतियां तैयार की गईं और उनके कविता प्रेमी मित्रों को दी गईं। अलबत्ता शाहनामे के शेरों के अनुसार स्वयं उनका कहना है कि चूंकि उन्होंने किसी को भी अपनी इस महान कलाकृति के योग्य नहीं पाया इस लिए इसके शेरों को छिपाए रखा ताकि इसे कभी किसी योग्य व सक्षम व्यक्ति के हवाले कर सकें।

फ़िरदौसी अपने काम के महत्व से अच्छी तरह अवगत थे। वे जानते थे कि शाहनामे की रचना किस प्रकार ईरान की आत्मा को जीवित करने और उसे जीवित रखने का कारण है। इसी लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन शाहनामे की रचना में बिता दिया और उसके पहले संकलन के बाद भी निरंतर प्रयास करते रहे और शाहनामे को संपूर्ण किया क्योंकि ईरान व फ़ारसी भाषा व संस्कृति से प्रेम उनकी घुट्टी में पड़ा हुआ था।

वर्ष 387 हिजरी बराबर 997 ईसवी में सामानी सरकार का पतन हो गया और ग़ज़नी के तुर्कों ने सत्ता अपने हाथ में ले ली। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि सामानी शासन के पतन की वजह सामानियों के अधीन क्षेत्रों विशेष कर राजधानी बुख़ारा की सामाजिक व सांस्कृतिक स्थिति से अब्बासी शासकों की अप्रसन्नता थी। सामानी शासकों के अधीन क्षेत्रों में विभिन्न धर्मों के अनुयाई रहा करते थे जिनमें अधिक संख्या मुसलमानों की थी। ईरान के मुसलमान जहां अपनी इस्लामी आस्थाओं में ठोस थे वहीं अपने ईरानी होने पर भी बल देते थे। ईरान में शिया मत की विभिन्न शाखाएं प्रचलित हो गई थीं किंतु उनके बीच इस्माईली मत के मानने वाले अधिक थे। इस मत ने समाज के प्रतिष्ठित लोगों और सामानी दरबार में भी पैठ बना ली थी। दूसरी ओर अब्बासी शासक, क़राख़ानी तुर्कों और बग़दाद के धर्मशास्त्रियों को सामानियों के विरुद्ध उकसा रहे थे और परिणाम स्वरूप वर्ष 389 हिजरी में ईरान के सामानी शासन का अंत हो गया।

ग़ज़नवी शासन के आरंभ में ईरानियों ने, जिन्हें देश की स्थिति की बेहतरी की अपेक्षा थी, महमूद ग़ज़नवी का समर्थन किया क्योंकि उन्हें आशा थी कि वह ईरान में एक एकजुट और सशक्त सरकार गठित करेगा। फ़िरदौसी ने शाहनामे के कुछ शेरों में इस विषय का उल्लेख किया है। उन्होंने महमूद ग़ज़नवी के सत्ता में आने और ईरान के लोगों की समस्त आशाओं का वर्णन किया है।

महमूद ग़ज़नवी, अपने आपको ईरान की संस्कृति और परंपराओं का पक्षधर दिखाता था और ईरान से प्रेम का दावा करता था। उसका कहना था कि वह ईरान के अंतिम सासानी शासक यज़्दगर्द तृतीय के वंश से है। उसने अपने शासन के आरंभ में यह प्रकट करने की कोशिश की कि वह सामानी सरकार की नीतियों और शासन शैली को जारी रखेगा। महमूद ग़ज़नवी ने अपने शासन के आरंभ में अपने सिंहासन को मज़बूत बनाने के लिए लोगों की इच्छाओं पर ध्यान दिया, यहां तक कि उसने इसके लिए ईरान से प्रेम करने वाले अहम मंत्रियों को इस्तेमाल किया। वह ज्ञान व साहित्य से जुड़े लोगों के समर्थन का दम भरता था और उसके गद्य प्रेम और कवियों की मदद के चर्चे हर एक तक पहुंच गए। विदित रूप से इसी समय, फ़िरदौसी ने शाहनामे का दूसरा संकलन पूरा किया और यह किताब संपूर्ण हो गई थी। अतः उन्होंने फ़ैसला किया कि शाहनामे को महमूद ग़ज़नवी के समक्ष पेश किया जाए।

फ़िरदौसी के कुछ शेरों के अनुसार शाहनामे का दूसरा संकलन कवि की आयु 71 साल होने पर पूरा हुआ। शाहनामे, सात खंडों में महमूद ग़ज़नवी को पेश किया गया लेकिन फ़िरदौसी और उनकी इस महान कलाकृति को सुलतान की कृपादृष्टि हासिल नहीं हुई। कुछ लोगों का कहना है कि महमूद ग़ज़नवी के निकटवर्ती लोगों विशेष कर दरबार के शायरों फ़िरदौसी के ख़िलाफ़ उसके कान भर दिए थे जिसके कारण उसने उन्हें महत्व नहीं दिया। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि महमूद ग़ज़नवी के दरबार के शायरों को लगने लगा था कि अगर फ़िरदौसी के शेरों को सुलतान ने महत्व दिया तो उनका स्थान ख़तरे में पड़ जाएगा। इसी लिए वे फ़िरदौसी और शाहनामे की बुराई करने लगे जिसके चलते महमूद ग़ज़नवी और फ़िरदौसी के बीच मतभेद पैदा हो गए। कुछ अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि महमूद ग़ज़नवी और फ़िरदौसी का वैचारिक व आस्था संबंधी अंतर दोनों के बीच मतभेद का कारण बना।

ग़ज़नवी काल की राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियों की गहन समीक्षा से ऐसा प्रतीत होता है कि फ़िरदौसी और शाहनामे की अनदेखी का कारण सुलतान महमूद ग़ज़नवी की मूल नीति में परिवर्तन था। शाहनामे उस समय ग़ज़नी के दरबार में पहुंचा जब वहां अरबी भाषा की ओर रुझान बहुत अधिक प्रचलित हो चुका था और महमूद ग़ज़नवी, अब्बासी शासन का आंख बंद करके अनुसरण करता था। इन परिस्थितियों में अगर वह शाहनामे को बहुत महत्व देता और उसे कहने वाले यानी फ़िरदौसी पर कृपादृष्टि डालता तो आश्चर्य की बात होती। शाहनामे का संदेश, ईरान की महानता व स्वाधीनता की बहाली है जिसका अर्थ यह होता कि वह अब्बासी शासन के अधीन क्षेत्रों से अलग हो जाए और महमूद ग़ज़नवी इस प्रकार की काव्य रचना को किस प्रकार स्वीकार कर सकता था। इतिहास की किताबों में वर्णित है कि महमूद ग़ज़नवी को अपने किए पर पछतावा हुआ लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और फ़िरदौसी इस संसार को विदा कह चुके थे। (HN)

 

 

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