Jan ३०, २०२१ १५:४६ Asia/Kolkata

अराकान (रखाइन) समेत पूरे म्यांमार पर ब्रिटिश साम्राज्य के क़ब्ज़े का दिलचस्प इतिहास है। अंग्रेज़ों ने जब पूरे भारत पर क़ब्जा कर लिया तो उन्होंने नाफ़ नदी के उस पार और वर्तमान म्यांमार पर ध्यान दिया और वहां सैन्य चढ़ाई कर दी। अरकान में बर्मा की पहली लड़ाई लड़ी गई।

अराकान (रखाइन) समेत पूरे म्यांमार पर ब्रिटिश साम्राज्य के क़ब्ज़े का दिलचस्प इतिहास है। अंग्रेज़ों ने जब पूरे भारत पर क़ब्जा कर लिया तो उन्होंने नाफ़ नदी के उस पार और वर्तमान म्यांमार पर ध्यान दिया और वहां सैन्य चढ़ाई कर दी। अरकान में बर्मा की पहली लड़ाई लड़ी गई। अरकान में अंग्रेज़ों और स्थानीय लोगों के बीच तीन महत्वपूर्ण लड़ाईयां लड़ी गईं। पहली दो लड़ाईयो में रोहिंग्या मुसलमानो ने कड़ी टक्कर दी, लेकिन 1828 में तीसरी लड़ाई हुई और इसमें ब्रिटिश सेना ने उन्हें हरा दिया और अराकान पर क़ब्ज़ा कर लिया। अराकान पर क़ब्ज़ा करने के बाद, ब्रिटिश सेना ने बाक़ी बर्मा पर भी क़ब्ज़ा कर लिया, जिसे अब म्यांमार के नाम से जाना जाता है। ब्रिटिश राज ने बर्मा के प्रबंधन के लिए भारत से अलग व्यवस्था की। उसने एक भारत की तर्ज़ पर अराकान में एक वायसराय की तैनाती की, जिसे लंदन से दिशा-निर्देश दिए जाते थे। इस प्रकार, ब्रिटिश साम्राज्य ने शुरूआत से ही अराकान को बंगाल से अलग करके बर्मा से जोड़ दिया। जिसके कारण, रोहिंग्या मुसमलानों के लिए समस्या खड़ी हो गई जो आज तक जारी है। भारत के वरिष्ठ राजनीतिक टीकाकार क़मर आग़ा कहते हैं कि रोहिंग्या तो म्यांमार के मूल निवासी हैं और इस बात के सबूत इतिहास में मिलते हैं। अंग्रेज़ों ने रोहिंग्याओं की संपत्तियों और खेतों को ज़ब्त कर लिया। उन्होंने अन्य स्थानों से आप्रवासियों को अराकान में बसाना शुरू कर दिया। इसका एक कारण, लाल सागर और भूमध्य सागर के बीच स्वेज़ नहर की खुदाई करके, यूरोप के लिए चावल के व्यापार को अधिक किफ़ायती बनाना था, जिसमें लागत और समय की बचत हो। अराकान की उपजाऊ ज़मीन में चावल की खेती का ख़ूब विकास हुआ और ब्रिटिश निवेशकों सस्ते मज़दूरों के रूप में, आप्रवासियों से जमकर सेवा ली, लेकिन इससे धीरे-धीरे अराकान के मूल निवासी रोहिंग्याओं की आबादी का अनुपात बिगड़ गया। म्यांमार सरकार का यह दावा कि रोहिंग्या, भारत और वर्तमान बांग्लादेश से पलायन करके वहां बसे हैं, एक मुग़ालता है। इसलिए कि सभी नए आप्रवासी मुसलमान नहीं थे, दूसरे उनका रोहिंग्या समुदाय से कोई संबंध नहीं था। पूरे भारत से आप्रवासियों को अराकान के धान के खेतों में काम के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। आज भी तमिल और बौद्धों की एक बड़ी संख्या वहां रहती है। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स के निदेशक सुबाष चकमा का कहना है कि म्यांमार में जो कुछ भी रोहिंग्याओं के साथ हो रहा है वह ग़ैर क़ानूनी है। 

 

ब्रिटिश साम्रज्य ने भारत में फूट डालो और राज करो वाली अपनी नीति को अराकान में भी आज़माया और वहां साम्प्रदायिकता को हवा दी। इस नीति ने, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, रोहिंग्याओं को काफ़ी प्रभावित किया और बहुसंख्यक बौद्धों के दिलों में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों की दुश्मनी के बीज बो दिए। म्यांमार में जापान ने ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया, ताकि इस देश पर अपना वर्चस्व जमा सके। बौद्धों को यह उम्मीद हो गई थी कि जापान, उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ाद करा देगा और वादे के तहत उनकी स्वाधीनता को मान्यता प्रदान करेगा। इसीलिए उन्होंने जापान का समर्थन किया। लेकिन इसी तरह का वादा ब्रिटिश साम्राज्य ने रोहिंग्या मुसलमानों से किया और जापान के ख़िलाफ़ उनका समर्थन हासिल कर लिया। इस नीति का पहला ख़तरनाक परिणाम यह निकला कि 1941 में म्यांमार भर में भारतीय मुल के मुसलमानों पर हमले हुए और एक लाख से ज़्यादा भारतीय मूल के मुसलमानों और ग़ैर-मुस्लिमों को मौत के घाट उतार दिया गया। बांग्लादेश में भारत की पूर्व राजदूत वीना सीकरी ने एक टीवी इंटर्व्यू में बताया कि म्यांमार में बौद्धों और मुसलमानों के बीच अब काफ़ी गहरे मतभेद पैदा हो गए हैं। उनका कहना है कि सबसे पहले अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को इस समस्या का समाधान ढूंढना होगा।  दिलचस्प बात यह है कि 1941 के विद्रोह में रोहिंग्याओं ने बौद्धों का समर्थन किया था। इस विद्रोह को स्थानीय मज़दूरों का समर्थन भी हासिल था। म्यांमार के लोगों का मानना था कि आप्रवासियों ने ब्रिटिश साम्राज्य के समर्थन से उनका रोज़गार छीन लिया है। रोहिंग्याओं का भी यही मानना था, इसी वजह से और बेहतर जीवन की उम्मीद में उन्होंने बौद्धों का साथ दिया, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि एक दिन इसी बहाने से उनका भी यही अंजाम किया जाएगा। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, म्यांमार में एक महत्वपूर्ण घटना घटी। देश में जनरल आंग सान के नेतृत्व में जापान के क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ एक प्रकार के राष्ट्रीय गठबंधन का गठन हुआ और रोहिंग्या संगठन अब्दुल रज्ज़ाक़ के नेतृत्व में इस आंदोलन से जुड़ गए। युद्ध के बाद, जनरल आंग सान को म्यांमार की स्वाधीनता के पिता के रूप में लोकप्रियता हासिल हुई। रोहिंग्या मुसलमानों का जनरल सान के साथ सहयोग प्रभावशाली रहा और तत्कीलन राष्ट्रीय सरकार में दो मुसलमान नेताओं को कैबिनेट में शामिल किया गया, जो पहले संविधान में रोहिंग्या समुदाय को एक म्यांमारी समुदाय के रूप में औपचारिकता प्रदान कराने में सफल रहे। हालांकि तख़्तापलट और संविधान के निरस्तीकरण ने इन प्रयासों पर पानी फेर दिया। जनरल आंग सान ने म्यांमार के स्वतंत्र होने की घोषणा के मौक़े पर अपने एक संदेश में कहा था कि यह देश सबका है क्योंकि इस देश की आज़ादी लड़ाई में सबने भाग लिया है। 

संविधान के निरस्त होने से पहले रोहिंग्या मुसलमान, म्यांमार में रजिस्टर्ड 144 जातियों में से एक थे, लेकिन उसके बाद रखाइन के रोहिंग्या मुसलमानों और बौद्धों के बीच टकराव शुरू हो गया और देश के स्वीधीनता आंदोलन में मुसलमानों की क़ुर्बानियों को भुलाकर, उनकी बस्तियों पर पूर्ण योजना के अनुसार हमले होने लगे, जो आज तक जारी हैं। इस बीच, रोहिंग्या मुसलमानों के नस्लीय सफ़ाए पर अमरीका और यूरोपीय देशों की ख़ामोशी पर भी काफ़ी सवाल उठे हैं। ब्रिटेन के अख़बार इंडिपेंडेंट ने अपनी एक रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि रखाइन प्रांत में म्यांमार सैनिकों को एक इस्राईली सैन्य कंपनी ने ट्रेनिंग दी है। इस्राईली सेना ने म्यांमार की सेना को काफ़ी मात्रा में हथियारों की आपूर्ति भी की है।ईरान के एक राजनीतिक टीकाकार मुर्तज़ा अशरफ़ी का कहना है कि म्यांमार सेना रोहिंग्या मुसलमानों पर सैन्य विद्रोह के झूठे आरोप लगाकर, ख़ामोशी से उनके नस्लीय सफ़ाए में लगी हुई है। इस क्षेत्र से सूचनाओं के बहुत कम बाहर आने के कारण, रखाइन प्रांत में मरने वालों और हिंसा के सही आंकड़ों की रिपोर्टिंग नहीं हो पाती है।

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