Oct ०३, २०२१ १९:२० Asia/Kolkata
  • लोकतंत्र की प्रतीक आंग सान सू ची भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुईं, उनकी नज़रों के सामने मांओं की गोद सूनी होती गयी और ख़ानदान बर्बाद होते रहे लेकिन...

म्यांमार की राजनीतिक पार्टी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी की नेता और इस देश में लोकतांत्रिक आंदोलन का प्रतीक समझे जाने वाली आंग सान सू ची द्वारा म्यांमार सेना और बौद्ध चरमपंथियों के हाथों रोहिंग्या मुलमानों की नस्लकुशी का समर्थन किया।

हमने बताया था कि किस तरह से म्यांमार में लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए संघर्ष की प्रतीक समझी जाने वाली नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी की नेता आंग सान सू ची ने सत्ता की हवस में सेना द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों के जनसंहार को सही ठहराया और इस तरह से अपने क़रीब दो दशक के आंदोलन से हासिल होने वाले परिणामों पर पानी फेर दिया। स्पष्ट रूप से सू ची ने निजी हितों और राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के चलते सेना का बचाव किया। इससे पहले दुनिया भर में उनकी अच्छी ख़ासी लोकप्रियता थी, लेकिन 2017 में म्यांमार के रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी के बाद, सब कुछ बदल गया। हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में सू ची ने सेना द्वारा किये गए नरसंहार के आरोपों के जवाब में व्यक्तिगत रूप से म्यांमार सेना का बचाव किया। उन्होंने म्यांमार की दायित्वहीन और नरसंहारी सेना के जघन्य अपराधों को सही ठहराया। लोगों का मानना है कि सू ची अब अपनी पहले वाली साख और हैसियत खो चुकी हैं, इसलिए उन्हें एक बार फिर सैन्य तानाशाही से म्यांमार को आज़ाद कराने वाले संघर्ष का चेहरा नहीं होना चाहिए।

 

 

म्यांमार के रखाइन सूबे के मूल निवास रोहिंग्या मुसलमानों का जब क़त्लेआम शुरू हुआ तो वहां से लाखों लोग जान बचाकर बांग्लादेश और कुछ पड़ोसी देशों की ओर भागे। दुनिया भर ने इन पीड़ितों पर म्यांमार सेना और बौद्ध चरमपंथियों के अत्याचारों और उन्हें उनके घरों से उजाड़ने की दिल दहलाने वाली तस्वीरें देखीं, लेकिन इस ज़ुल्म को रोकने के लिए जैसी प्रतिक्रिया की ज़रूरत थी, वैसी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। इस कमज़ोर प्रतिक्रिया के लिए जितने दोषी पश्चिमी देश हैं, दुनिया भर के मुस्लिम और विशेष रूप से अरब मुस्लिम देश भी उससे कहीं कम दोषी नहीं हैं।

 

रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी और उन पर होने वाले अत्याचारों पर मुस्लिम देशों की कमज़ोर प्रतिक्रिया के कई कारण हो सकते हैं। हालांकि इस बारे में कुछ भी कहने से पहले प्रभावशाली मुस्लिम देशों और आम मुसलमानों के बीच अंतर करना ज़रूरी है। दुनिया भर के आम मुसलमानों ने पूरी ताक़त से म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी और उनके निष्कासन की निंदा  की है और आज भी वह अपने इस फ़ैसले पर अटल हैं। उन्होंने अपनी सरकारों से भी यही उम्मीद की थी कि वे भी इस संबंध में निर्णायक क़दम उठायेंयी और रोहिंग्या पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा के लिए इस्लामी जगत की संभावनाओं का भरपूर इस्तेमाल करेंगी। हालांकि वास्तविकता यह है कि मुस्लिम देशों की सरकारों ने अपनी जनता को निराश किया और अपेक्षा के अनुसार उन्होंने रोहिंग्याओं की नस्लकुशी को रोकने के लिए कार्यवाही नहीं की। इस पर सितम यह कि म्यांमार में तख़्तापलट हो गया और सत्ता पर पूरी तरह से अत्याचारी और दमनकारी जनरलों का क़ब्ज़ा हो गया।

 

 

रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी पर मुस्लिम देशों की ओर से उठाए गए छिटपुट क़दम और कमज़ोर प्रतिक्रिया के बारे में कहा जा सकता है कि मुस्लिम देशों के पास ऐसा कोई एजेंडा या योनजा नहीं है कि जिससे दुनिया में अल्पसंख्यक मुसलमानों के अधिकारों को सुरक्षित रक्षा जा सके यह पीड़ित मुसलमानों का समर्थन किया जा सके। रोहिंग्या मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा कैसे की जाए या उनका किस तरह से समर्थन किया जाए, इस बारे में भी मुस्लिम सरकारें एकमत नहीं हैं। मुस्लिम देशों में से कुछ देश म्यांमार सरकार पर दबाव डालने के लिए उसके राजनीतिक-आर्थिक बहिष्कार की मांग कर रहे थे और उनका कहना था कि अगर नौबत सैन्य हस्तक्षेप की भी आती है तो इससे भी पीछे नहीं हटना चाहिए। लेकिन इस बीच सऊदी अरब जैसे कुछ ऐसे भी देश थे, जो अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए किसी भी तरह की गंभीर कार्यवाही का विरोध कर रहे थे। हालांकि सऊदी अरब इस्लामी जगत का नेतृत्व करने का दावा करता है, लेकिन दुनिया के किसी कोने में मुसलमानों पर किया गुज़र रही है, उसे इसकी कोई परवाह नहीं है।

 

रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी के बारे में सऊदी अरब ने न केवल चुप्पी साधे रखी, बल्कि उसने ऐसा रवैया अपनाया कि जिससे पर्दे के पीछे म्यांमार सरकार के समर्थन का संदेह पैदा हो रहा था। सऊदी अरब उन 6 मुस्लिम देशों में से एक है, जो बड़े पैमाने पर म्यांमार के साथ व्यापार करते हैं। इसके अलावा, इंडोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान ने म्यांमार के साथ अपने राजनीतिक और आर्थिक सहयोग में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं किया।

 

रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी के बारे में मुस्लिम देशों की कमज़ोर प्रतिक्रिया से जहां पीड़ितों के ज़ख़्मों पर मरहम रखने में कोई मदद नहीं मिली, वहीं इससे म्यांमार सेना और सरकार का  दुस्साहस बढ़ गया और उन्हें खुलकर अपना एजेंडा आगे बढ़ाने का मौक़ा मिल गया। बांग्लादेश के गंदगी भरे और हर प्रकार की बुनियादी सुविधाओं से दूर शरणार्थी शिविरों में रोहिंग्या शरणार्थियों की स्थिति को बेहतर बनाने तक के लिए मुस्लिम देश आगे नहीं आए और उनमें वित्तीय सहायता के लिए किसी तरह का कोई उत्साह देखने में नहीं आया। तेल की दौलत से मालामाल फ़ार्स खाड़ी के अरब देशों ने भी रोहिंग्याओं की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कोई ख़ास मदद नहीं की। जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ के हाई कमीशन ने बार-बार दुनिया भर के देशों से रोहिंग्या शरणार्थियों की मदद के लिए आगे आने की अपील की, ताकि कम से कम शरणार्थी कैम्पों में रहने वालों के ज़ख़्मों पर कुछ मरहम रखा जा सके। 

 

दिलचस्प बात यह है कि फ़ार्स खाड़ी के समृद्ध अरब देशों ने रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों को वित्तीय सहायता प्रदान करने में तो कोई उत्साह नहीं दिखाया, लेकिन अमरीका के टेक्सास में जब मरीका के्साह नहीं दिखाया, लेकिन के ज़ख़्मों पर कुछ मरहम रखा जा सके।   रोहिंग्या शरणार्थियों की मदद के लिए आगे आने की  अपी्लमानोहार्वे तूफ़ान आया तो वित्तीय सहायता के लिए इन देशों के बीच एक तरह की प्रतिस्पर्धा देखी गई। अमरीका में हार्वे तूफ़ान के पीड़ितों की सहायता के लिए इन देशों ने लाखों डॉलर का दान दिया, जबकि अमरीका दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक है और टेक्सास अमरीका के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है। हालांकि अरब देशों को अपने इस तरह के क़दमों के लिए अपनी जनता और मुसलमानों की आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा।

 

म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार को लेकर मुस्लिम देशों की कमज़ोर प्रक्रिया के अलावा, सऊदी अरब द्वारा रुकावटें उत्पन्न करने के कारण, क़रीब 2 अरब मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करना वाला इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) भी इस संदर्भ में कोई प्रभावशाली क़दम नहीं उठा सका या गंभीर कार्यवाही नहीं कर सका। हालांकि इस्लामी जगत में इस संगठन से यह आशा थी कि वह इस तरह के गंभीर मामले में कोई प्रभावी क़दम उठाएगा और रोहिंग्याओं की नस्लकुशी को रोकने के साथ ही उन्हें उनके वतन से उजाड़ने की प्रक्रिया को रोकेगा।

 

रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी के प्रति इस्लामी देशों और इस्लामी सहयोग संगठन की निष्क्रिय प्रतिक्रिया, काफ़ी हद तक अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों की निष्क्रिय स्थिति के अनुरूप ही है। हालांकि, अगर इस्लामी देश, वास्तव में एकजुट होकर म्यांमार का बहिष्कार करते और म्यांमार सेना पर प्रतिबंध लगा देते तो निश्चित रूप से, रोहिंग्या मुसलमानों पर होने वाले अत्याचारों को किसी हद तक रोका जा सकता था और म्यांमार को अपनी अत्याचारपूर्ण नीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया सकता था। अगर यह मान भी लिया जाए कि इस तरह का गठजोड़ व्यवहारिक रूप से कोई क़दम नहीं उठा सकता था, तो भी 57 देशों की एक अपील, म्यांमार सरकार पर दबाव बनाने में प्रभावी हो सकती थी।  

 

इसके अलावा, पूर्वी एशिया के दो महत्वपूर्ण मुस्लिम देश इंडोनेशिया और मलेशिया, जो दक्षिण पूर्व एशिया संघ के सदस्य हैं, और म्यांमार भी इस संघ का एक सदस्य है, अगर कोई निर्णायक क़दम उठाते और इस संघ से म्यांमार के निष्कासन की मांग करते तो म्यांमार रोहिंग्याओं के  सफ़ाए की अपनी नीति पर पुनर्विचार के लिए मजबूर हो जाता। लेकिन इन दोनों प्रमुख देशों ने भी न केवल ऐसा नहीं किया, बल्कि उन्होंने म्यांमार के साथ अपने व्यापार और कूटनीतिक संबंधों के स्तर को घटाने और रोहिंग्या मुसलमानों के अधिकारों की सुरक्षा से इसे सशर्त बनाने से भी इनकार कर दिया। दोनों देशों का यह रुख़ इस सच्चाई के बावजूद है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त के उप महासचिव एंड्रयू गिलमोर ने कहा है कि रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ म्यांमार सेना की कार्यवाहियां, नस्लकुशी का एक उदाहरण है।  

 

हमारा व्हाट्सएप ग्रुप ज्वाइन करने के लिए क्लिक कीजिए

हमारा टेलीग्राम चैनल ज्वाइन कीजिए

हमारा यूट्यूब चैनल सब्सक्राइब कीजिए!

ट्वीटर  पर हमें फ़ालो कीजिए

टैग्स