Apr ०३, २०२१ १८:०२ Asia/Kolkata

इस बात के पर्याप्त सबूत मौजूद हैं कि म्यांमार की सेना और सरकार ने रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों के मूल अधिकारों का व्यापक रूप से यथासंभव हनन किया है।

रोहिंग्याओं के अधिकारों का हनन इतने बड़े पैमाने पर किया गया है कि इससे जीवन और मानवाधिकारों का हर पहलू प्रभावित हुआ है। यह सब ऐसी स्थिति में किया गया है कि जब म्यांमार, नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन (1966), बाल अधिकारों के कन्वेंशन, महिलाओं के ख़िलाफ़ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन के कन्वेंशन और कुछ अन्य अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों का सदस्य है।

म्यांमार सरकार के लिए मानवाधिकारों का सम्मान बाध्यकारी करने वाले अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशनों और संधियों से हटकर, अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों के मुताबिक़ इस देश की सरकार रोहिंग्याओं के मानवाधिकारों का सम्मान करने के लिए बाध्य है। 2008 में म्यांमार के नए संविधान में सभी राष्ट्रीय जातियों को औपचारिकता प्रदान की गई है। संविधान के आठवें अध्याय में नागरिकों को समान अधिकार देने और शिक्षा तथा चिकित्सा सेवाएं प्रदान करने में भेदभाव को नकार दिया गया है। ग़ैर क़ानूनी गिरफ़्तारियों पर पाबंदी लगा दी गई है। लेकिन संविधान का घोर उल्लंघन करते हुए म्यांमार की सरकार ने रोहिंग्या मुसलमानों को मूल मानवाधिकारों से भी वंचित कर दिया और उनका नरसंहार करके उन्हें बांग्लादेश भागने पर मजबूर कर दिया है। रोहिंग्याओं पर होने वाले अत्याचारों के बारे में बात करते हुए भारत के गाज़ियाबाद के एक मुफ़्ती ने कुछ इस तरह अपनी प्रतिक्रिया दी।

नागरिकों के अधिकारों को मान्यता देने वाले म्यांमार के अपने क़ानूनों के अलावा, अंतर्राष्ट्रीय क़ानून, किसी देश में नागरिकों की नागरिकता को छीने जाने और उनके मौलिक अधिकारों के हनन को अपराध मानता है। अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशनो के अनुसार, जिनका पालन करना म्यांमार के लिए ज़रूरी है, किसी एक नागरिक की नागरिकता छीनना भी, ग़ैर क़ानूनी और निंदनीय है, एक पूरे समुदाय का व्यवस्थित दमन तो और ही बात है। म्यांमार सरकार ने अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के विपरीत, न केवल रोहिंग्या मुसलमानों को नागरिकता से वंचित कर दिया, बल्कि उनका नस्लीय सफ़ाया भी किया और उन्हें उनके वतन से दर-बदर कर दिया। जबकि अगर म्यांमार रोहिंग्या मुसलमानों को एक जातीय समूह के रूप में औपचारिकता प्रदान भी न करे, तब भी अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के मुताबिक़, उनके मूल मानवाधिकारों का सम्मान करना ही पड़ेगा। गाज़ियाबाद के ही एक अन्य मुफ़्ती ने कहा कि म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार का नागरिक स्वीकार न करना एक बहुत बड़ा अराध है।

समस्त अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और मानवाधिकार कन्वेंशनों की धज्जियां उड़ाते हुए म्यांमार ने 1982 में रोहिंग्या मुसलमानों को नागरिकता से वंचित कर दिया और उनसे उनके मूल अधिकार भी छीन लिए। देश के संविधान का उल्लंघन करते हुए सरकार ने बहुसंख्यक बौद्धों और अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिकता को हवा दी और रोहिंग्याओं के नरसंहार के लिए भूमि प्रशस्त की। यह आपराध, जाति और धर्म का संरक्षण जैसे ग़ैर क़ानूनी नस्लवादी संगठनों द्वारा करवाया गया, जिसे स्पष्ट रूप से म्यांमार की सेना का संरक्षण प्राप्त है। रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ जातीय और धार्मिक भेदभाव का दायरा बहुत व्यापक और व्यवस्थित है, जिसमें आवाजाही की आज़ादी को ख़त्म करना, निवास की स्वतंत्रता के अधिकार से लेकर भोजन, स्वास्थ्य और रोहिंग्या बच्चों की शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन करना शामिल है। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के तहत, हर किसी को अपने देश में आवाजाही और निवास स्थान चुनने का अधिकार है। लेकिन इसके विपरीत, रखाइन प्रांत में रोहिंग्याओं को शहरों की यात्रा और एक गांव से दूसरे गांव जाने के लिए भी, किसी अधिकारी से अनुमति लेने की आवश्यकता होती है।

रोहिंग्या मुसलमानों को जिन मौलिक अधिकारों से वंचित किया गया है, उनमें से एक अपने पैत्रिक गांवों में संपत्ति के मालिकाना अधिकार से वंचित करना है। जबकि विश्व मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुच्छेद 17 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हर व्यक्ति को अकेले या दूसरों की भागीदारी में संपत्ति रखने का अधिकार है। संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्यों की तरह म्यांमार भी इस बाध्यकारी घोषणापत्र पर अमल करने के लिए बाध्य है। लेकिन म्यांमार सरकार ने घरों को ध्वस्त करके और रोहिंग्याओं की संपत्तियों को ज़ब्त करके, उनके मौलिक अधिकारों का व्यापक हनन किया है। म्यांमार सरकार ने रोहिंग्या मुसलमानों के भोजन के अधिकार का भी हनन किया है और सभी अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशनों के विपरीत, रोहिंग्याओं की संपत्तियों को नष्ट करके, खाद्य सामग्रियों तक उनकी पहुंच के मार्ग में रुकावटें डाली हैं। सौनिकों और बौद्ध चरमपंथियों ने गांवों और खेत-खलियानों को आग के हवाले कर दिया, जिससे रोहिंग्या ग्रामीणों के भोजन के मुख्य स्रोत नष्ट हो गए और उनकी आबादी गंभीर रूप से कुपोषण का शिकार हो गई।

म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों को जिन मौलिक अधिकारों से वंचित किया गया है, उनमें से एक रोहिंग्या बच्चों से शिक्षा का अधिकार छीनना है। रखाइन प्रांत में देश के किसी भी क्षेत्र की तुलना में सबसे कम साक्षरता दर है, और रोहिंग्याओं के चिकित्सा और इंजीनियरिंग जैसे विषयों में अध्ययन करने पर पाबंदी है। रोहिंग्या छात्र, विश्वविद्यालयों में एडमिशन नहीं ले सकते हैं, इसलिए कि विश्वविद्यालों में एडमिशन के लिए नागरिकता कार्ड की आवश्यकता होती है, जो उनसे छीन लिए गए हैं। स्वैदुल्लाह नामक एक रोहिंग्या युवक कहता है कि म्यांमार में हमारे पास पढ़ने का मौक़ा था लेकिन वहां सरकार के समर्थन से कट्टरपंथी बौद्धौं द्वारा किए जाने वाले जनसंहार की वजह से हमे पढ़ाई छोड़नी पड़ गई, पीड़ित रोहिंग्या छात्र ने संयुक्त राष्ट्र संघ सहित दुनिया भर से सवाल पूछा कि जब शिक्षा प्राप्त करना मानवाधिकार का एक हिस्सा है तो हमे इससे क्यों वंचित रहना पड़ रहा है, क्या हम मानव नहीं हैं?

दुर्भाग्य से, कोरोना वायरस महामारी के फैलने के कारण, आंग सान सूची और रोहिंग्या मुसलमानों के अन्य हत्यारों ने अपनी ज़िम्मेदारी से बचने और अपनी दमनकारी नीतियों को जारी रखने के लिए, कोविड-19 को बहाना बनाया। महीनों बीत जाने के बावजूद, सैकड़ों मुसलमान, जिनमें एक बड़ी संख्या महिलाओं की है, लापता हैं और अधिकांश पीड़ितों के शव बंगाल की खाड़ी के पूर्व में स्थित एक द्वीप के पास पाए गए हैं।

म्यांमार सरकार, सेना और बौद्ध चरमपंथियों के अपराधों के ख़िलाफ़, संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव पर यूरो न्यूज़ टीवी चैनल ने रिपोर्ट उल्लेख कियाः संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव, क़ानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं, लेकिन वे विश्व समुदाय के विचारों और चिंताओं को दर्शाते हैं। म्यांमार सरकार ने कई मानवाधिकार और अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशनों पर हस्ताक्षर किए हैं और मानव अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन सच्चाई यह है कि म्यांमार सरकार, रोहिंग्याओं के प्रति हमेशा ही अपने दायित्वों से बचती रही है। इस देश की सेना, सुरक्षा बल और बौद्ध चरमपंथी रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ अमानवीय अपराधों को अंजाम दे रहे हैं। अफ़सोस की बात यह है कि रोहिंग्या मुसलमानों के दमन और नरसंहार के ख़िलाफ़, संयुक्त राष्ट्र महासभा के ग़ैर-बाध्यकारी प्रस्तावों के अलावा, इस संबंध में सुरक्षा परिषद ने कोई बाध्यकारी प्रस्ताव पारित नहीं किया है।

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