Dec २४, २०२३ १३:५७ Asia/Kolkata
  • सात हज़ार साल प्राचीन धरोहर औैर साल की सबसे बड़ी रात शबे यल्दा को ईरानी लोग क्यों महत्व देते हैं?

आमतौर पर लोग पुरानी और एतिहासिक चीज़ों को ज़मीन से बाहर निकालने को पसंद करते हैं।

आज दुनिया में हज़ारों नहीं बल्कि शायद लाखों संग्रहालय मौजूद हैं और उन संग्राहलयों में हज़ारों साल पुरानी चीज़ों को देखा जा सकता है। यही नहीं उन पुरानी चीज़ों को देखने के लिए टिकट लेकर संग्रहालय के अंदर जाना पड़ता है और लोग टिकट लेकर जाते और उन पुरानी चीज़ों को देखते हैं। बहुत से लोग एसे हैं जो पुरानी और एतिहासिक चीज़ों को बहुत संभाल कर अपने घरों में सजा कर रखते हैं।

आज दुनिया में जो हज़ारों संग्रहालय हैं उनका उद्देश्य पुरानी और एतिहासिक चीज़ों की सुरक्षा है। संग्रहालय में मौजूद पुरानी और एतिहासिक चीज़ों के देखने के बाद इंसान पुराने ज़माने में रहने वाले लोगों की जीवन शैली के बारे में सोचने लगता है। दूसरे शब्दों में इंसान ज़ेहनी तौर पर पुराने ज़माने में चला जाता है और पुराने ज़माने की चीज़ों को देखकर उस समय के लोगों की जीवन शैली और संस्कृति व सभ्यता के बारे में सोचता है। पुरानी चीज़ें उस प्राचीन सभ्यता का सूचक होती हैं जो समाप्त हो चुकी हैं।

आज की डिज़िटल दुनिया में हज़ारों चीज़ों की फिल्म बनाकर छोटी से छोटी चीज़ों में रखा जा सकता है और जब लोग पुरानी फिल्मों और ग़ैर फिल्मों को देखते हैं तो मानसिक और जेहनीरूप से वह खुद प्राचीन समय में चले जाते हैं और अतीत में चले जाने का अनुभव बहुत ही अच्छा होता है। बहुत से लोग यह कामना करते हैं कि काश उनके बाल्याकाल की घटनायें उनके जीवन में दोहरा आ जातीं। इंसान के जीवन और सालों पहले की उसकी आंखों की देखी घटनायें कहानी लगने लगती हैं। बचपने के बहुत से मंज़र फिल्म की भांति उसकी नज़रों में घुमने लगते हैं।

आज पुराने ज़माने की बहुत सी चीजें मौजूद हैं और एसा लगता है कि जब उन्हें हम देखते हैं तो हम भी कुछ देर के लिए पुराने ज़माने में चले जाते हैं। एसा लगता है कि इन पुरानी चीज़ों को ममी करके हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए रखी हैं। आज पुरानी चीजें और उनकी यादें हमारे जीवन का एक मूल्यवान भाग हैं।

मैं ममी की हुई एक एसी चीज को जानता हूं जो सात हज़ार साल पुरानी है और हर साल ठंडक के मौसम में दिखाई देती है और उसे देखने और उससे मुलाकात के बाद इंसान एक विशेषकर प्रकार की खुशी व आनंद का अनुभव करता है। जो ममी की हुई सात हज़ार साल पुरानी चीज़ है वह शबे यल्दा अर्थात यल्दा की रात, दोबारा उगना, दोबारा पैदा होना और दोबारा ताज़ा होना है। शबे यल्दा यानी यल्दा की रात को घर वाले और निकट संबंधी जागते हैं और सुबह तक एक दूसरे को कहानियां आदि सुनाते हैं। शबे यल्दा पूरे साल की सबसे लंबी रात होती है।

यह वह रात होती है जब सूरज ज़मीन से सबसे अधिक दूरी पर होता है। आप यह सवाल कर सकते हैं कि इस रात को शबे यल्दा क्यों कहा जाता है? जबकि आम तौर पर बहुत सी चीज़ें दिन और सूरज की रोशनी में बढ़ती और ताज़ा होती हैं। शबे यल्दा दूसरी समस्त रातों से केवल एक मिनट बड़ी होती है और उसके बाद दिन बड़े होने लगते हैं। दूसरे शब्दों में जमीन सूरज की रोशनी से अधिक लाभ उठाने लगती है। पुराने ज़माने के लोगों की यह आस्था थी कि ज़मीन के नीचे के दाने शबे यल्दा में अंकुरित होते हैं और अधिक से अधिक उन पर सूरज की रोशनी पड़ती रहती हैं यहां तक कि वे ज़मीन से निकल आते हैं। शबे यल्दा को शबे चिल्ला भी कहते हैं और इस रात के बीत जाने के बाद सूरज का उदय आरंभ होता है।

चूंकि हमारे पूर्वज अपनी रोज़ी- रोज़ी खेती- बाड़ी से चलाते थे इसलिए शबे यल्दा उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। यह रात उनके लिए इतना महत्वपूर्ण थी वे पूरी रात जागते थे। विभिन्न तरीकों से खुशी मनाते और मनोरंजन करते थे। यह रात इतना महत्वपूर्ण थी कि इसके बीत जाने के बाद अगले दिन को साल का नया दिन मानते थे।

कुछ लोगों का कहना है कि शबे यल्दा एक प्रकार का अंधा अनुसरण है जबकि कुछ का कहना है कि यह एक अच्छी परम्परा है और इससे हमारे धर्म को किसी प्रकार का कोई नुकसान नहीं पहुंचता है। अतः शबे यल्दा मनाने में कोई समस्या व हरज नहीं है।

अबू रैहान बिरूनी शबे यल्दा को मिलादे अकबर अर्थात सबसे बड़ी ईद के रूप में याद करते थे। दूसरे राष्ट्रों के मध्य प्रचलित संस्कृति का अध्ययन इस बात का सूचक है कि विभिन्न राष्ट्रों के लोग भी शबे यल्दा को अपने अपने तरीकों से मनाते हैं। लगभग चार हज़ार साल पहले अति प्राचीन मिस्र के लोग शबे यल्दा को मनाते थे। यही नहीं मिस्री उस रात नाचते - गाते और अंधकार पर प्रकाश की विजय के रूप में शबे यल्दा को मनाते थे। इसी प्रकार प्राचीन यूनान के लोग भी ठंडक के पहले दिन को विशेष दिन के रूप में मनाते थे। इसी प्रकार वे सूरज को प्रकाश के देवता के रूप में मानते थे।

रूस के दक्षिणी भागों में भी लोग शबे यल्दा को जश्न व उत्सव के रूप में मनाते थे। आज शबे यल्दा को जश्न के रूप में केवल ईरान के आप पास के देशों में नहीं बल्कि पूरब और दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों में भी मनाया जाता है। यल्दा की रात को बहुत से लोग खुशी से ढ़ोल बजाते और जश्न मनाते हैं और उनके घरों में स्वादिष्ट व्यंजन बनाये जाते हैं। इसी प्रकार खुशी के दूसरे कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं।

दोस्तो यहां इस बात का उल्लेख करते चलें कि जापान में “तूइजी” के नाम से शब्दे यल्दा मनाई जाती है। यही नहीं जापान के बहुत से लोग शबे यल्दा को इतना महत्व देते हैं कि उस रात को नहाकर अच्छा कपड़ा पहनते हैं। उनका मानना है कि उनका यह कार्य नकारात्मक ऊर्जा के खत्म होने का कारण बनेगा और पूरे साल उन्हें सर्दी ज़ुकाम नहीं होगी।

स्काटलैंड, बोलिविया और एकवाडोर में भी शबे यल्दा के उपलक्ष्य में जश्न मनाये जाते हैं। सूरज से अपना संपर्क बनाये रखने के लिए वे इस अवसर पर पर्वतों के टीलों पर जाते हैं और वहां पर सूरज से संबंधित कार्यक्रम आयोजित करते हैं। शबे यल्दा ईरान की एक अति प्राचीन परम्परा है। कुछ अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि इस परम्परा का संबंध लगभग 7 हज़ार साल पुराना है और यह परम्परा ईरानी लोगों में काफी लोकप्रिय है और आज भी ईरानी इसे बहुत महत्व देते हैं और हज़ारों साल का समय बीत जाने के बावजूद इसे जश्न के रूप में मनाते हैं। पठारों में रहने वाले अधिकांश ईरानी कृषि करते थे। प्राचीन समय में रहने वाले ईरानियों का मानना था कि शबे यल्दा के बाद जो दिन आने वाले हैं वे लम्बे होंगे। यानी रात के मुकाबले में दिन धीरे -धीरे दिन बड़े होने लगेंगे और प्रकृति नया रूप धारण करेगी।

शबे यल्दा को कुछ ईरानी सब्जी पोलो और माही पोलो नाम का विशेष और स्वादिष्ट व्यंजन तैयार करते हैं और घर के सदस्य मिलकर एक साथ बड़े चाव से उसे खाते हैं। प्राचीन समय के ईरानियों का मानना था कि शबे यल्दा के दस्तरखान से खाना ईदे नौरोज में सुफरये हफ्तसीन से उठाकर खाने जैसा है और अपने गर्म स्वभाव को ठंडा और ठंडे स्वभाव को गर्म कर सकते हैं। इस प्रकार कि अगर कोई अपने गर्म मेज़ाज व स्वभाव से परेशान है तो तरबूज और अनार जैसे फलों को खाकर इस समस्या से छुटकारा पा सकता है। इसी तरह अगर कोई अपने ठंडे स्वभाव से परेशान है तो शहदूत, किशमिश और खजूर जैसे मेवों को खाकर अपनी समस्या से छुटकारा पा सकते हैं। 

बहरहाल आज यल्दा की रात है। इस रात को जब घरवाले एक दूसरे के साथ मिलकर बैठते हैं और एक दूसरे को कहानियां सुनाते हैं, विभिन्न प्रकार के सूखे मेवे और फल खाते हैं जैसे तरबूज़, खरबूज, अनार, सेब, पिस्ता और बादाज तो उसका एक विशेष आनंद होता है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। यल्दा की रात को लोग एतिहासिक और पौराणिक बहुत सारी कहानियों को एक दूसरे को सुनाते हैं। इन कहानियों में बहुत सी कहानियां शिक्षाप्रद होती हैं और कहानी सुनने वाले लोग विशेषकर बच्चे बहुत सी प्रेरणादायक बातें इन कहानियों से सीखते हैं। शबे यल्दा अर्थात यल्दा की रात को बहुत से ईरानी जागते और दुआ पढ़ते हैं, नमाज़ पढ़ते हैं और पवित्र कुरआन की तिलावत करते हैं और अगले दिन को छुट्टी के रूप में मनाते हैं।

हमें इस बात को ध्यान से सोचना चाहिये कि कौन सी परम्परायें हानिकारक और कौन सी लाभदायक हैं। एसा नहीं है कि जितनी भी परम्परायें हैं सबकी सब हानिकारक हैं बल्कि कुछ परम्परायें हानिकारक तो कुछ लाभदायक हैं। हमें खुद को और अपने बच्चों को ग़लत परम्पराधों से बचाना चाहिये और केवल उन्हीं परम्पराओं पर अमल करना चाहिये जो हमारे, हमारे बच्चों और समाज के लिए लाभदायक हैं। आज ज्ञान- विज्ञान की दुनिया है। बहुत आसानी से इस बात को समझा जा सकता है कि कौन सी परम्परा अच्छी है और कौन सी अच्छी नहीं है।

प्राचीन ईरान में शबे यल्दा के अगले दिन समस्त लोग सादा कपड़ा पहनते थे ताकि कोई बड़ा- छोटा यानी अमीर -ग़रीब न लगे और सब समान प्रतीत हों और किसी को दूसरे को आदेश देने का अधिकार नहीं होता था। लोग स्वेच्छा से काम करते थे। शबे यल्दा के अगले दिन युद्ध करना यहां तक कि खून बहाना मना होता था यहां तक बकरी और मुर्गे का काटना भी मना होता था। ईरानियों के दुश्मन भी इस बात को जानते और इस चीज़ को ध्यान में रखते थे और एसा बहुत देखने को मिला है कि यही अस्थाई युद्ध व रक्तपात का बंद होना लंबे समय तक युद्ध के बंद होने का कारण बनता था।

बहरहाल शब्दे यल्दा पूरे साल की सबसे बड़ी रात है और ईरानी परिवार पूरी रात एक दूसरे के साथ गुज़रते हैं। दूसरे शब्दों में आज आपाधापी के दौर में अधिक से अधिक समय एक दूसरे के साथ रहना स्वयं अपने आप में एक बहुत अच्छी चीज़ है। आप सबके लिए कामना करते हैं कि शबे यल्दा बीत जाने के बाद निकलने वाला सूरज आप सबके लिए मंगलमय दिन सिद्ध हो। MM

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