Oct १०, २०१६ १४:३२ Asia/Kolkata

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जो महाआंदोलन किया था उसका उद्देश्य सत्य स्थापित और धर्म को जीवित करना था।

        

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कर्बला के मैदान में आशूर की दोपहर को जो नमाज़ पढ़ा था उसने प्रलय के दिन तक समस्त मुसलमानों को यह संदेश दिया कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का युद्ध, जेहाद और परित्याग ईश्वरीय धर्म को जीवित रखने और नमाज़ क़ायेम करने के लिए है। नमाज़ धर्म का स्तंभ है और उसके बिना धर्म का कोई अर्थ नहीं है। जिस तरह कोई मकान दीवार के बिना खड़ा नहीं हो सकता उसी तरह नमाज के बिना धर्म का कोई अर्थ नहीं है। वास्तव में इंसान के समस्त कार्यों के स्वीकार होने की शर्त नमाज़ का स्वीकार होना है। नमाज़ का न केवल इस्लाम बल्कि दूसरे धर्मों में भी विशेष महत्व है यद्यपि दूसरे धर्मों में उसका तरीका भिन्न है। हज़रत इब्राहीम जब अपनी पत्नी हाजर और बेटे हज़रत इस्माईल को काबे के पास सूखे और गर्म मरुस्थल में छोड़ देते हैं तो ईश्वर से कहते है” पालनहार इन लोगों को निर्जल क्षेत्र में ले आया हूं ताकि नमाज़ कायेम करें” इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने नमाज़ से प्रेम और ईश्वर की उपासना को अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम से सीखा था। जब सिफ्फीन नामक युद्ध अपने चरम पर था तो उस समय इस्लाम के आरंभिक काल में पवित्र कुरआन के महान व्याख्याकार इब्ने अब्बास ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को देखा कि उन्होंने आसमान की ओर देखा और वे किसी चीज़ की प्रतीक्षा में हैं। उन्होंने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से पूछा हे अमीरुल मोमिनीन क्या किसी चीज़ से चिंतित हैं? फरमाया हां नमाज़ के समय की प्रतीक्षा में हूं। इब्ने अब्बास ने कहा क्या यह नहीं हो सकता कि इस संवेदनशील समय में युद्ध छोड़ दें और नमाज़ पढ़ें। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अर्थपूर्ण नज़रों से उन्हें देखा और कहा हम नमाज़ के लिए उनसे युद्ध कर रहे हैं। ईश्वर जानता है कि मैं उसके लिए नमाज़ पढ़ता हूं और उसकी किताब की तिलावत पसंद करता हूं।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़बान पर सदैव यह वाक्य रहता था कि “हैहात मिन्ना ज़िल्लत” अर्थात मैं कदापि अपमान को स्वीकार नहीं करूंगा। नवीं मोहर्रम की दोपहर को यज़ीद की राक्षसी सेना  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के तंबुओं पर हमला कर देना चाहती थी पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने बहादुर भाई हज़रत अब्बास को शत्रु की सेना के पास भेजा और उनसे कहा अगर हो सके तो युद्ध को कल तक के लिए टलवा दो। उसके बाद हज़रत अब्बास से कहा आज रात भी हम अपने पालनहार की नमाज़ पढ़ना चाहते हैं। ईश्वर जानता है कि मैं उसके लिए नमाज़ पढ़ता हूं, उसकी किताब पढ़ना, अधिक दुआ करना और प्रायश्चित करना पसंद करता हूं।“ इसका अर्थ यह है कि नमाज़ और दुआ इंसान के लिए कैसी प्रतिष्ठा लाती है जिसके लिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने शत्रु से एक रात के लिए युद्ध को टाल देने के लिए कहा।

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नमाज़ का रहस्य महान ईश्वर की बारगाह में उपस्थिति, बंदगी प्रकट करना, उपासना करना, एकेश्वरवाद की स्वीकारोक्ति है और उसका परिणाम इंसान का कल्याण और परिपूर्णता तक पहुंचना है। इंसान जब नमाज़ पढ़ता है तो उसकी याद में होता है और यही हालत उसे पापों से रोकती है और समस्त ग़लत कार्यों के मार्ग में बाधा बनती है।

 समस्त उपासनाओं के मध्य नमाज का एक विशेष महत्व है। इस्लाम में हज, रोज़ा, ज़कात और खुम्स जैसी उपासनायें कुछ शर्तों के साथ अनिवार्य हैं यानी अगर वे शर्तें न हों तो रोज़ा या हज जैसी उपासना अनिवार्य नहीं है परंतु नमाज़ का अनिवार्य होना किसी भी दशा में समाप्त नहीं होता। इंसान जहां भी हो जिस हालत में भी हो उस पर नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है अंतर केवल इतना है कि नमाज़ पढ़ने का तरीका भिन्न हो जायेगा। उदाहरण स्वपरूप अगर कोई खड़े होकर नमाज़ नहीं पढ़ सकता तो बैठ कर नमाज़ पढ़े और अगर बैठ कर नहीं पढ़ सकता तो लेट कर पढ़े। इसी तरह यात्रा की हालत में नमाज़ क़स्र अर्थात आधी हो जाती है दूसरे शब्दों में हर हालत में नमाज़ पढ़नी है यहां तक कि जो इंसान डूब रहा है और वह जानता है कि नमाज़ का समय आ गया है तो उसका दायित्व है कि नमाज़ की नियत करे और केवल अल्लाहो अकबर कहे। उसके इसी अमल को नमाज़ के रूप में स्वीकार किया जायेगा।

कर्बला में आशूर की दोपहर को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जो नमाज़ पढ़ी वह हर इंसान को हतप्रभ कर देती है और वह नमाज़ के महत्व की सूचक है। प्रचंड गर्मी, भूख और प्यास, शत्रुओं का दुस्साहस, वाणों का ख़तरा, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बहुत से साथियों का शहीद हो जाना और दूसरा कोई भी कारण नमाज़ कायेम करने में विघ्न उत्पन्न नहीं कर सका और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इस प्रकार नमाज़ न पढ़ने वालों के लिए समस्त बहानों को समाप्त कर दिया। साथ ही इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने अमल से नमाज़ के महत्व को स्पष्ट कर दिया। दूसरी ओर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने आशूर के दिन अपनी नमाज़ से जागृत आत्मा रखने वालों के लिए सिद्ध कर दिया कि उनके महाआंदोलन का उद्देश्य धर्म की रक्षा और उसके आदेशों पर अमल करना है न कि कोई सांसारिक लक्ष्य किन्तु आशूर की दोपहर को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जो अंतिम नमाज़ पढ़ी। यह वह नमाज़ थी जिसकी तकबीर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उस समय कही जब वे घोड़े से नीचे आ रहे थे। क़याम उस समय किया जब वे घोड़े से नीचे गिर चुके थे और रूकूअ उस समय किया जब वह बहुत घायल हो चुके थे। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में कुनूत में उन्होंने कहा हे पालनहार! हे ईश्वर जिसका स्थान बहुत ऊंचा है अत्याचारियों पर तेरा क्रोध बहुत कड़ा है तेरी शक्ति हर शक्ति से उपर है ईश्वर कि जो समस्त रचनाओं से आवश्यकतामुक्त, और तू जो चाहे कर सकता है हे पालनहार! हम तेरे प्रिय और चुने हुए पैग़म्बर के कुटंब से हैं। इन लोगों ने मुझे धोखा दिया है और मेरी मदद करने से पीछे हट गये हैं और हमारे साथियों को शहीद किया जबकि हमने सत्य और न्याय के लिए आंदोलन किया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अंतिम सजदा ज़मीन पर अपना माथा रख कर किया। इसी प्रकार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पावन शरीर से उनकी महान आत्मा के निकलने से तशह्हुद और सलाम अंजाम पाया। अंत में जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पावन सिर को उनके शरीर से अलग किया गया तो सजदा अंजाम दिया। इसी प्रकार जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का पावन सिर भाले की नोक पर रखा गया तो उन्होंने सूरे कहफ की तिलावत की जिसे दूसरों ने भी सुना।

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उमर बिन अब्दुल्लाह कूफा के एक प्रसिद्ध व जाने पहचाने व्यक्ति थे। वे अबू सोमामा के नाम से प्रसिद्ध थे। इसी प्रकार वे बहादुरी और युद्ध में भी प्रसिद्ध थे। जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के विशेष दूत हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील इमाम की बैअत अर्थात आज्ञा पालन की प्रतिबद्धता लेने के लिए कूफा में दाखिल हुए थे तो उन्होंने अबू सोमामा को आर्थिक सहायता जमा करने और हथियार तैयार करने की ज़िम्मेदारी सौंपी। हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील को कूफा वासियों के छोड़ कर चले जाने और कर्बला में युद्ध आरंभ होने से पहले वे कूफा से कर्बला पहुंच कर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सेना में शामिल हो गये।

आशूर की दोपहर को शिम्र इस सीमा तक तंबूओं के निकट हो गया था कि उसने अपने भाले से एक तंबू में सुराख कर दिया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के वफादार साथियों ने इन हमलों का अदम्य साहस के साथ मुकाबला किया। यज़ीद की राक्षसी सेना ने जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की छोटी सी सेना पर दाहिनी और बायीं ओर से हमला किया और उसका कोई परिणाम नहीं निकला तो उसने सामने से हमला किया ताकि इमाम के बाक़ी बचे सैनिकों को शहीद कर सके परंतु इमाम के वफादार साथियों ने उसी प्रकार अदम्य साहस के साथ राक्षसी सेना का डटकर मुकाबला किया। इसी बीच अबू सोमामा साएदी ने जब देखा कि अधिकांश लोग शहीद हो चुके हैं और थोड़े से ही साथी बचे हैं तो वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सेवा में हाज़िर हुए और कहा मैं आप पर कुर्बान! दुश्मन निकट आ गया है और मेरी उम्र अब नहीं बची है मेरी इच्छा है कि जब ईश्वर से मुलाक़ात करूं तो दोपहर की नमाज़ पढ़ चुका हूं जिसका समय हो गया है इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने आसमान की ओर देखा और कहा तुम नमाज़ को याद दिलाई, ईश्वर तुम्हारी गणना नमाज़ पढ़ने वालों में करे हां नमाज़ का समय हो गया है।“

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इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने नमाज़ पढ़ने का फैसला किया। ज़ुहैर बिन क़ैन और सईद बिन अब्दुल्लाह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों के सामने खड़े हो गये। जिधर से भी तीर आते थे वे बढ़ कर उसे अपने शरीर से रोक लेते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने बाक़ी साथियों के साथ जमाअत अर्थात सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ी। जैसे ही नमाज़ समाप्त हुई बहुत अधिक तीर लगने के कारण सईद ज़मीन पर गिर पड़े। उन्होंने ज़मीन पर गिरने के बाद इस प्रकार कहा पालनहार! मैंने जो कुछ किया है उसका उद्देश्य तेरे पैग़म्बरे के नवासे की रक्षा थी। उसके बाद सईद ने आंखे खोली तो देखा कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम उनके सिर को अपनी गोद में लिए हुए हैं। उसी हालत में सईद ने कहा हे ईश्वरीय दूत के बेटे! आपके संबंध में मेरा जो दायित्व था क्या मैंने उसे अंजाम दे दिया? इमाम ने फरमाया हां! तुमने अपना दायित्व अंजाम दे दिया! तुम मुझसे पहले स्वर्ग में आओगे।

उमर बिन क़िरज़अ भी सईद बिन अब्दुल्लाह के साथ इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों की रक्षा में आगे बढ़- बढ़ कर तीर रोक रहे थे। उनके सिर और सीने में कई तीर लगे थे। वे भी बुरी तरह घायल हो गये थे। वे भी सईद के साथ ही ज़मीन पर गिर पड़े थे वह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और सईद की बात सुन रहे थे। उन्होंने भी इमाम से वही बातें कहीं जो सईद ने कही थीं। उन्होंने इमाम से कहा क्या मैंने भी अपने दायित्व का निर्वाह कर दिया? इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने भी वही जवाब दिया जो सईद को दिया था और कहा मेरा सलाम ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम को पहुंचा देना और उनसे कह देना कि मैं भी तुम्हारे बाद उनके दर्शन करूंगा। इस प्रकार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों ने आशूर के दिन बहुत ही संवेदनशील समय में अपनी नमाज़ पूरी निष्ठा के साथ अदा की।

 

 

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