Oct १०, २०१६ १४:४९ Asia/Kolkata

ईश्वर की प्रसन्नता हासिल करना उन उच्च स्थानों में है जो ईश्वर की संपूर्ण पहचान से हासिल होती है।

इसी प्रकार ईश्वर की अनुकंपा और दुनिया की असलियत की पहचान भी ईश्वर की प्रसन्नता हासिल करने में मदद करती है। ईश्वर के फ़ैसले पर राज़ी रहने की सबसे अच्छी मिसाल कर्बला है। ईश्वर के फ़ैसले पर राज़ी रहना वह चरण है जब इंसान ख़ुद को कुछ न समझे और ईश्वर के सिवा कुछ न सोचे। इसी प्रकार ईश्वर की इच्छा के सामने अपनी कोई इच्छा इंसान में बाक़ी न रहे। एक बार इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने पास मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए फ़रमाया, “अनिवार्य और ग़ैर अनिवार्य नमाज़ में फ़ज्र सूरे को पढ़ो! क्योंकि यह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का सूरा है। इस सूरे पर विशेष रूप से ध्यान दो।” सभा में मौजूद एक व्यक्ति ने पूछा कि यह सूरा इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से क्यों विशेष है? इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया, क्या तुमने नहीं सुना कि ईश्वर फ़ज्र सूरे के अंत में कह रहा है, हे संतुष्ट आत्मा! अपने ईश्वर की ओर पलट आ। ऐसी हालत में कि तू उससे राज़ी और वह भी तुझसे राज़ी है। अतः मेरे बंदों में शामिल हो जा और मेरी स्वर्ग में दाख़िल हो जा। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम आत्मिक दृष्टि से संतुष्ट थे। वह ईश्वर से राज़ी थे और ईश्वर भी उनसे राज़ी था। उनके परिजनों और साथी ईश्वर से राज़ी थे।

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इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना से निकलते समय पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की क़ब्र की ज़ियारत के लिए गए और नमाज़ पढ़ने के बाद यूं दुआ की, “हे ईश्वर इस क़ब्र और इसमें आराम करने वाले के हक़ की क़सम मेरे लिए ऐसा मार्ग का चयन कर जिस पर चल कर तेरी प्रसन्नता हासिल कर सकूं और पैग़म्बरे इस्लाम भी राज़ी हों।” इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने पूरे सफ़र में सिर्फ़ ईश्वर की प्रसन्नता हासिल करने के बारे में सोचते थे। जिस समय वह मक्के से कर्बला जा रहे थे, उन्होंने अपने साथियों के बीच भाषण दिया और इस सफ़र के अंत में अपने और अपने साथियों की शहादत होने की ओर इशारा करते हुए कहा, “जिस चीज़ से ईश्वर राज़ी है उससे हम पैग़म्बरे के परिजन राज़ी हैं।”

एक व्यक्ति ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ख़त लिख कर पूछा, “लोक-परलोक की भलाई किस चीज़ में है?”

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उसके जवाब में लिखा, “जो व्यक्ति ईश्वर की प्रसन्नता हासिल करने की कोशिश में हो, चाहे लोग उससे नाराज़ हो जाएं, तो उसके काम ईश्वर करता है और जो व्यक्ति ईश्वर की अवज्ञा करके लोगों को ख़ुश करने की कोशिश करता है, ईश्वर उसे लोगों के हवाले कर देता है।”

अरब के मशहूर शायर फ़रज़दक़ कहते हैं कि मैं मक्के के निकट इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सेवा में पहुंचा तो इमाम ने मुझसे कूफ़े के हालात के बारे में पूछा तो मैंने कहा, “हे मेरे स्वामी, लोगों के दिल आपके साथ हैं लेकिन उनकी तलवारें आपके ख़िलाफ़ हैं।”

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया, “सही कहते हो। सब कुछ ईश्वर के हाथ में है। अगर ईश्वर का फ़ैसला वैसा ही रहा जैसा हम चाहते हैं तो ईश्वर का उसकी अनुकंपाओं के लिए आभार व्यक्त करेंगे और उससे आभार व्यक्त करने के लिए मदद चाहेंगे और अगर हमारी इच्छा के मुताबिक़ न हुआ तो वह व्यक्ति जिसकी नियत सत्य की प्राप्ति और ईश्वर से डरना उसकी शैली हो, ईश्वर की रज़ामंदी से दूर नहीं होगा और उसे कोई नुक़सान नहीं होगा।” इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपनी उम्र के अंतिम क्षणों में जब वह अकेले और प्यासे थे, तीर-तलवार के घाव से पूरा शरीर चूर-चूर था, घोड़े से ज़मीन पर गिरते हुए फ़रमाया, “हे ईश्वर! मैं तेरी रज़ामंदी पर राज़ी और तेरे आदेश के सामने नत्मस्तक हूं।”     

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ईश्वर के फ़ैसलों पर राज़ी रहने की मिसाल कर्बला है। जहां ख़ुद को कुछ न समझना व ईश्वर के सिवा कुछ न सोचना और ईश्वर की इच्छा के सामने कोई इच्छा न रखना है। यही कारण है कि हज़रत ज़ैनब ने इतनी बड़ी मुसीबत व पीड़ा के बावजूद अपने समय के सबसे बड़े अपराधी के सामने, जो उनका मखौल उड़ाना चाहता था, कहा कि कर्बला में हमने सिर्फ़ और सिर्फ़ भलाई देखी। हज़रत ज़ैनब की यह बात उस व्यक्ति को कुचलने के लिए नहीं थी जिसे हज़ारों लोग डर कर सलाम करते थे बल्कि हज़रत ज़ैनब भी अपने भाई और ईश्वर के मार्ग में शहीद होने वाले उनके साथियों की तरह हर चीज़ में और हर जगह पर ईश्वर को देख रही थीं। जो कुछ उनके साथ हो रहा था उसमें वे दिल की आखों से ईश्वर को देख रहे थे इसलिए इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि वह घटना आसान हो या कठिन। क्योंकि अस्ल उद्देश्य ईश्वर की प्रसन्नता व रज़ामंदी हासिल करना थी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मत में जो कुछ दुनिया में घटित हो रहा है वह ईश्वरीय नियमानुसार है। तो जो भी ईश्वर के आदेश का पालन करे वह सम्मानीय है चाहे वह ज़ाहिर में हार जाए और जो भी ईश्वर के आदेश की अवज्ञा करे वह नीच है।

हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा कर्बला की घटना को आरंभ से लेकर अंत तक सुदंर पाती हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सला का बयान, याथियों की ओर से उनके प्रति निष्ठा का इज़हार, रात भर जाग कर ईश्वर की उपासना करना, हज़रत ज़ैनब और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सामने साथियों का वफ़ादारी का एलान करना, ये सबके सब ईश्वर के सामने संपूर्ण समर्पण और उसकी मर्ज़ी के सामने राज़ी रहने का उत्कृष्ट नमूना है।

धीरे-धीरे आशूरा एक मत बन कर उभरा। ऐसा मत जो इंसान को , वफ़ादारी, ईश्वर पर आस्था, वीरता, शहादत और आत्मपहचान का पाठ देता है।

कर्बला की पवित्र ज़मीन पर गिरने वाले पाक ख़ून ने अत्याचार की बुनियादों को गिरा दिया। जिन लोगों ने कर्बला की त्रासदी को जन्म दिया वे यह सोच रहे थे कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन और दूसरे सत्य प्रेमियों का जनसंहार करके वे अपने सभी लक्ष्य तक पहुंच जाएंगे, लेकिन वे लोग अपमानित हुए और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों का चेहरा इतना जगमगाया कि अमर हो गए और ईश्वर का धर्म बच गया।

कर्बला की विजेता व महाआत्मज्ञानी हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ये सब जानती थीं और सदियों आगे के समय को देख रही थीं। यही कारण है कि कूफ़े के शासक के चुभते हुए शब्दों के मुक़ाबले में, जब उसने हज़रत ज़ैनब से कहा कि ईश्वर के व्यवहार को अपने भाई और परिवार के साथ कैसा पाया, तो हज़रत ज़ैनब ने सुकून भरे स्वर में कहा, भलाई के अतिरिक्त कुछ और नहीं देखा।    

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आशूरा के आंदोलन में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मुसीबतों व कठिनाइयों के मुक़ाबले में सबसे धैर्य व संयम से काम लेने की अनुशंसा करते थे और ख़ुद भी पहाड़ के समान दुश्मन की फ़ौज के सामने डटे हुए इस्लाम की रक्षा कर रहे थे। कर्बला के बलिदानियों के पैर दुश्मन के बड़े लश्कर और भारी मुसीबतों के बावजूद भी नहीं डिगे, बल्कि शेर की तरह दुश्मन पर टूटते और धर्म की रक्षा करते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने परिजनों व साथियों से धैर्य की अनुशंसा करते थे। जैसा कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा से फ़रमाया, “मेरी बहन धैर्य रखिए और जान लीजिए कि ज़मीन और आसमान में हर एक को मरना है, सिवाए ईश्वर के कि जिसने धरती को अपनी शक्ति से बनाया।”

आशूर के दिन हज़रत ज़ैनब ने अपने दोनों बेटों औन और मोहम्मद को अपने हाथों से तय्यार किया और उनके हाथों में तलवार दी ताकि वे शहीद होने के लिए तय्यार हो जाएं। उसके बाद हज़रत ज़ैनब दोनों बेटों को लेकर अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पास आयीं और उनसे दोनों बेटों को जंग के मैदान में भेजने की इजाज़त मांगी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम शुरु में इजाज़त नहीं दे रहे थे लेकिन जब हज़रत ज़ैनब का आग्रह बढ़ गया तब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इजाज़त दी। हज़रत ज़ैनब ने दोनों बेटों को जंग के मैदान में भेजा। दोनों भाई बहादुरी से लड़े। पहले हज़रत मोहम्मद शहीद हुए तो हज़रत औन अपने भाई के ख़ून से लथपथ शव के पास पहुंचे और कहा, भाई ज़रा ठहरो मैं भी तुम्हारे पास आ रहा हूं। हज़रत औन भी शहीद हुए। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम दोनों बच्चों के पाक शरीर को इस तरह उठा कर ख़ैमें में लाए कि उनके पैर ज़मीन पर लाइन खींचते जा रहे थे। ख़ैमे से बीबियां पवित्र शव के स्वागत के लिए आयीं लेकिन हज़रत ज़ैनब जो अब तक बीबियों में आगे आगे रहती थीं, शव के स्वागत के लिए न आयीं कि कहीं उनके भाई उन्हें इस हाल में देख कर शर्मिंदा महसूस न करें।

हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने महान ईश्वर पर आस्था और पूरी समझ के साथ इमाम हुसैन के परिजनों के कारवां की सरपरस्ती संभाली। हज़रत ज़ैनब जो अपनी मां हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के बाद, दुनिया की महिलाओं के लिए आदर्श हैं, दुश्मन से मुक़ाबले में ऐसी हस्ती का नाम है जिसके संकल्प को कोई चीज़ डिगा नहीं सकती। उन्होंने कुछ बीबियों, बच्चों और नौजवानों की सरपरस्ती के साथ साथ पवित्र परिजनों के अधिकार को साबित करने के लिए अत्याचारी को अपमानित करने के हर अवसर का उपयोग किया और इस रोल को पूरी ज़िम्मेदारी से अदा किया।

हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने जब अपने भाई की ख़ून में डूबी बिना सिर की लाश को देखा तो क़रीब जाकर उनके क्षत-विक्षत शव को उठाते हुए ईश्वर से कहा, “अल्लाहुम्मा तक़ब्बल मिन्ना हाज़ल क़ुर्बान” हे प्रभु! हमारी इस क़ुर्बानी को स्वीकार कर। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने इस वाक्य से यह बताया कि ईश्वर की इच्छा व फ़ैसले के सामने समर्पण की भावना उनकी बात और व्यवहार में झलक रही है।

 

 

 

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