Aug २३, २०२३ १५:२० Asia/Kolkata
  • चांद पर जाने का अर्थ यह नहीं है कि ज़मीन पर आग लगा दी जाए! भारत के शरीर से उसकी आत्मा निकालने की कौन कर रहा है कोशिशें?

भारत एक ऐसा देश जिसकी सांस्कृति की मिसाल में दुनिया में दी जाती रही है। यह एक ऐसा देश रहा है जो हमेशा से सांप्रदायिक सौहार्द के लिए जाना जाता रहा है। लेकिन इधर कुछ वर्षों में इस संप्रदायिक सौहार्द में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है। इसकी सबसे अहम वजह है हिंसा और दंगे की परिभाषा का बदल जाना। पहले दंगाईयों को किसी धर्म और जात-पात से जोड़कर नहीं देखा जाता था, बल्कि दंगाई को केवल दंगाई के रूप में ही देखा जाता था। 

हालिया वर्षों में भारत में हिंसा और दंगे की परिभाषा ही पूरी तरह बदल चुकी है। अब धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर हो रही हिंसा और दंगों को देश के हित में माना जा रहा है। खुले आम नागरिकों के ख़िलाफ़ दूसरे नागरिक सुनियोजित तरीक़े से संगठित हिंसा कर रहे हैं। हिंसा के ऐसे मामलों में सरकार तब तक किनारा किए रहती है जब तक कि हिंसा अपने आप ही नहीं थम जाती। आज स्थिति यह है कि देश का बहुसंख्यक समुदाय ख़ुद को ही देश और संविधान समझने लगा है, यही कारण है कि वे खुले आम हथियारों को लेकर सड़कों पर उतर आते हैं और तब तक उनका जोश कम नहीं होता जब तक वे बलात्कार, लूट और हत्या की वारदातों को अंजाम नहीं दे देते। कई बार सरकारी मशीनरी भी सक्रिय रूप से हिंसा में उसी भाव से हिस्सा लेती है जिस भावना से बहुसंख्यक समुदाय दूसरे समुदाय को कुचल रहा होता है। ऐसे राज्य जिन्हें हम सबसे अच्छे शासित राज्य मानते हैं उनमें भी ऐसी हिंसा से होने वाले नुक़सान को रोकने की क्षमता नहीं दिखती और इस मोर्चे पर वे मुख्यमंत्री भी नाकाम ही साबित हुए हैं जिन्हें सबसे सक्षम और क़ाबिल माना जाता है। वास्तविक्ता यह भी है कि बहुत से लोग इस हिंसा को सही मानते हैं, इनमें वह लोग भी शामिल हैं जो राज्य का नेतृत्व कर रहे हैं।

कुछ बरस पहले इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ से सवाल पूछा गया था कि, “मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे आपसे पहले वाली सरकार के शासन में हुए थे, लेकिन जिन 44 मामलों में फ़ैसला आया उनमें से 43 में आरोपी दोषमुक्त कर दिए गए। ऐसे में आपकी सरकारी अपील क्यों नहीं दाख़िल कर रही है?” इस पर मुख्यमंत्री का जवाब था, “मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में चार्जशीट पूर्व सरकार ने दायर की थी थी। यह (दंगे) पूर्वाग्रह की नीतियों और सरकार की नाकामी का नतीजा था, जिनके दौर में पूरा समाज, जाति, मान्यता और धर्म के आधार पर विभाजित हो गया। हमारी सरकार के दौर में ऐसा नहीं है। अपील के सवाल पर, हम जो ज़रूरी होगा वह क़दम उठाएंगे। अगर कोई ज़रूरत नहीं है, तो फिर हम अनावश्यक रूप से अदालत के मामले में दख़ल दें।?” दरअसल, ऐसी हिंसा की जड़ में एक अंतर्निहित भावना है जो हमारे समाज के एक बड़े हिस्से में निरंतर मौजूद रहती है और जिसे राजनीति के माध्यम से भड़काया जाता है। फिर कोई बाहरी उकसावा इसमें आग लगा देता है: 1984 में एक हत्या, 1992 में बर्बरता का एक कार्य या 2002 में एक ट्रेन पर हुई एक घटना।

हमारे यहां होने वाले दंगों और दूसरे देशों में होने वाले दंगों में अंतर सहजता और तत्परता का है। ऊपर दिए गए उदाहरणों में जो घटनाएं हैं उनसे दंगों की आशंका नहीं थी। भारत में, हम अच्छी तरह जानते हैं कि जानबूझकर किसी मुद्दे पर तापमान बढ़ाने के क्या परिणाम होंगे। मवेशी परिवहन, गोमांस रखने, अंतरधार्मिक विवाह, तलाक़ का अपराधीकरण, या श्रीनगर में लागू नियमों जैसे केंद्र और बीजेपी शासित राज्यों द्वारा बनाए गए क़ानून या फिर असम में एनआरसी जैसी अप्रिय, भयावह और भ्रमित करने वाली प्रक्रिया को इन्हीं सब संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस तरह के क़दमों से मुद्दे निरंतर गर्म रहते हैं। हाल के वर्षों में भारतीय अख़बारों और समाचार चैनलों ने भी खुलकर इस देश में दंगों और हिंसक घटनाओं को धर्म के आधार पर बांटने की कोशिश की है। अगर बहुसंख्यक समुदाय से संबंध रखने वाला संगठन या व्यक्ति कोई हिंसक घटना अंजाम देता है तो उसे देश हित में उठाया जाने वाला क़दम बताया जाता है, लेकिन अगर इसके विपरीत होता है तो उसको आतंकवादी या देश द्रोही घोषित करने में देर नहीं लगाई जाती है। भारतीय मीडिया के अधिकतर प्लेट फार्मों पर रोज़ाना कुछ न कुछ ऐसा ही हो रहा है।

कुल मिलाकर भारत में दंगों की परिभाषा पूरी तरह बदल दी गई है। जब बहुसंख्यक संगठित तौर पर अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा करते हैं तो उसको दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाता है और वहीं जब अल्पसंख्यक इसका जवाब देते हैं तो वह पूरी तरह देशद्रोह और आतंकवाद से जुड़ी कार्यवाही होती है। इसका ताज़ा उदाहरण मणिपुर और हरियाणा में देखा जा सकता है। लेकिन दंगों का बंटवारा करने वाले यह भूल रहे हैं कि यह देश को एक ऐसी स्थिति में ले जा रहे हैं कि जहां से वापस लौटना असंभव हो जाएगा। आग पर जितनी जल्दी कंट्रोल कर लिया जाए उता कम नुक़सान होता है, लेकिन इसी आग को अगर लगातार भड़काए रखा जाए तो फिर न केवल इसपर क़ाबू पाना मुमकिन नहीं होता बल्कि यह पूरा का पूरा इलाक़ा देखते ही देखते ख़ाक में मिला देती है। इसलिए सांप्रदायिक सौहार्द भारत के शरीर में उसकी आत्मा है अगर इसे ख़त्म करने की कोशिश की गई तो यह शरीर बेजान जिस्म में बदल जाएगा। (RZ)

लेखक- रविश ज़ैदी, वरिष्ठ पत्रकार। ऊपर के लेख में लिखे गए विचार लेखक के अपने हैं। पार्स टुडे हिन्दी का इससे समहत होना ज़रूरी नहीं है। 

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