Sep ३०, २०२३ १६:२६ Asia/Kolkata
  • क्या भारत में नफ़रत फैलाने वालों का इलाज संभव है? सरदार पटेल के आदर्श समाज में ज़हर घोलने वालों का बंद कर सकते हैं हुक्का-पानी!

पिछले कुछ महीनों में देश में कई ऐसी घिनौनी घटनाएं हुई हैं जिनसे यह पता चलता है कि हमारे समाज में नफ़रत का ज़हर किस हद तक घुल चुका है और यह भी कि यह नफ़रत दिन-दोगुनी रात-चौगुनी गति से बढ़ती जा रही है।

नए भारत में तेज़ी से आम हो रही मानवता को शर्मसार कर देने वाली की घटनाओं ने दुनिया भर में इस महान देश की छवि को भारी नुक़सान पहुंचाया है। शवों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ-साथ घृणा के संस्थागतकरण के प्रमाण भी बढ़ते जा रहे हैं। हाल ही में, वाशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट ने कथित तौर पर भारतीय जनता पार्टी और उसके छायादार सहयोगियों द्वारा समर्थित और प्रोत्साहित एक परियोजना पर से पर्दा हटा दिया, जिसका उद्देश्य चुनावी राज्यों में हिंदू समुदाय को भड़काना था; दो मानवाधिकार संगठनों, उनमें से एक हिंदुत्व वॉच ने भी व्यापक डेटा प्रकाशित किया, जिसमें अल्पसंख्यकों को लक्षित करने के लिए घृणास्पद भाषण के व्यवस्थित उपयोग का संकेत दिया गया। कोई भी निष्कर्ष अप्रत्याशित नहीं होता। घृणास्पद भाषण और घृणा अपराधों में वृद्धि का संकेत देने वाली घरेलू रिपोर्टें बहुत अधिक हैं। भारत की सर्वोच्च अदालत ने बार-बार इस ख़तरे के ख़िलाफ़ प्रशासनिक हस्तक्षेप का आग्रह किया है। राजनीतिक विपक्ष इस तरह की विभाजनकारी बयानबाज़ी के ख़िलाफ़ अपने अभियान में मुखर रहा है। एक नए क़ानून में कड़े जुर्माने का प्रस्ताव किया गया है। फिर भी, लिंचिंग दण्डमुक्ति के साथ होती है। वे उच्चतम स्तर पर मिलीभगत का संकेत देते हैं। दोष पूरी तरह से भाजपा पर है जो नफ़रत का भूत खड़ा करके राजनीतिक लाभ उठाने पर अड़ी हुई है। संयोग से, भाजपा सांसद, रमेश बिधूड़ी, जिन्होंने सदन के एक मुस्लिम सदस्य पर अपनी वीभत्स कट्टरता से संसद और देश को शर्मसार किया था, को लगता है कि उन्हें एक महत्वपूर्ण चुनावी ज़िम्मेदारी से पुरस्कृत किया गया है। नीतिगत विफलताओं से जनता का ध्यान हटाने की उनकी क्षमता को देखते हुए, जैसे-जैसे भारत महत्वपूर्ण चुनावों की ओर बढ़ रहा है, घृणा अपराध बढ़ सकते हैं।

दिल्ली में एक विशेष रूप से सक्षम मुस्लिम व्यक्ति की पीट-पीट कर की गई दिल दहला देने वाली हत्या देश को झकझोर देने की क्षमता रखती है, भले ही वह अल्पसंख्यक समुदायों के ख़िलाफ़ होने वाले घृणा अपराधों के प्रति उदासीन हो गया हो। मोहम्मद ईसार को भगवा कपड़े से बिजली के खंभे से बांध दिया गया और फिर पीट-पीटकर मार डाला गया: पीड़ित ने कथित तौर पर अस्थाई तौर पर बनाए गए एक मंदिर से प्रसाद चुराया था। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों का यह भी कहना है कि मोहम्मद ईसार बहुत देर से लोगों से कुछ खाने के लिए मांग रहा था, ऐसा लगता था कि वह बहुत भूखा था, लेकिन जब उसे कुछ नहीं मिला तो वह मंदिर में रखे हुए ढेर सारे प्रसाद में से एक केला उठाकर खाने लगा। फिर क्या था, जैसे ही लोगों का पता चला कि वह मुसलमान है वहां मौजूद भगवाधारी आंतकी उसपर टूट पड़े। वहीं एक भीड़ ने बिहार में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे एक मुस्लिम युवक को पीट-पीट कर मार डाला था, जबकि एक बुज़ुर्ग व्यक्ति को मध्य प्रदेश में मुस्लिम होने के संदेह में दिव्यांग की हत्या कर दी गई। अब यहां यह सवाल उठता है कि क्या देश में जिस तरह की भयावह घटनाएं हो रहीं हैं, क्या उनकी निंदा करना, उन पर टिपण्णी करना ही पर्याप्त है? क्या हम मूक दर्शक बने रह सकते हैं? क्या संपूर्ण विपक्ष एक स्वर में हेट स्पीच और हत्याओं का विरोध नहीं कर सकता? क्या भारत के संविधान के मूल्यों में यक़ीन रखने वाले राजनैतिक दल, सामाजिक संगठन और मानवाधिकार समूह, देश में भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए कुछ नहीं कर सकते? यह सब जल्द से जल्द होना चाहिए। पहले ही बहुत देर हो चुकी है।

कुल मिलाकर यहां यह भी सवाल उठता है कि क्या नफ़रत हमारे समाज के लिए नई चीज़ है? तो इसका जवाब है कि, बिलकुल नहीं। मुस्लिम और हिन्दू सांप्रदायिक धाराएं अपने जन्म के बाद से ही ‘दूसरे’समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत को हवा देती आई हैं। इसी से देश में सांप्रदायिक हिंसा शुरू हुई। औपनिवेशिक काल में जिस तरह की सांप्रदायिक हिंसा हुई, वह उसके पहले राजे-रजवाड़ों के काल में होनी वाली शिया-सुन्नी या शैव-वैष्णव पंथिक हिंसा से बहुत अलग थी। आज जहां पाकिस्तान, शिया मुसलमानों और ईसाईयों के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक नफरत से उबल रहा है, वहीं भारत में मुसलमानों और ईसाईयों के ख़िलाफ़ नफ़रत बढ़ रही है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत का आख्यान, सांप्रदायिक संगठनों ने गढ़ा और मीडिया ने उसे गहराई और व्यापकता दी। हमारे नेताओं को मीडिया की इस भूमिका का काफ़ी पहले से अहसास था। स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद द्वारा हत्या की खुलकर निंदा करते हुए महात्मा गांधी ने अपने पाठकों का ध्यान अख़बारों की भूमिका की ओर दिलाया। ‘यंग इंडिया’के 30 दिसंबर 1926 के अंक में “श्रद्धानंदजी– द मारटेयर” शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने और समाज में नफ़रत और हिंसा का प्रसार करने में अख़बारों की भूमिका के बारे में लिखा। हिंसा का ज़हर फैलाने में प्रमुख सांप्रदायिक संगठन आरएसएस की भूमिका का ख़ुलासा करते हुए तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने आरएसएस के मुखिया गोलवलकर को लिखी एक चिट्ठी में कहा था: “उनके (आरएसएस) सभी भाषण सांप्रदायिक ज़हर से भरे रहते थे। हिन्दुओं को उत्साहित करने के लिए या उन्हें उनकी सुरक्षा के लिए संगठित करने के लिए, यह ज़हर फैलाने की ज़रुरत नहीं थी। इसी ज़हर के अंतिम नतीजे में देश को गांधीजी की अमूल्य ज़िन्दगी का बलिदान देखना पड़ा।”

बहरहाल आज भी नफ़रत का स्त्रोत वही संगठन है जिसकी सरदार पटेल बात कर रहे हैं। इस नफ़रत को आरएसएस के विभिन्न अनुषांगिक संगठन बढ़ा रहे हैं। इस काम में कॉर्पोरेट-नियंत्रित गोदी मीडिया की भूमिका कम नहीं है। गोदी मीडिया सरकार के आगे नतमस्तक है और विपक्ष और सत्ताधारी दल के आलोचकों पर हमलावर है। सभी प्रमुख टीवी नेटवर्क कॉर्पोरेट घरानों ने ख़रीद लिए हैं और ये घराने सत्ताधारी दल के नज़दीक हैं। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लक्ष्य को लेकर चल रही बीजेपी ने एक सोशल मीडिया सेल खोला है और नफ़रत के अपने सन्देश को फैलाने के लिए लाखों व्हाट्सएप ग्रुप बनाए हैं। इसलिए यह ज़रूरी हो गया है कि देश में नफ़रत का बाज़ार सजाए इन सभी नफ़रती आतंकियों का भारतीय समाज अपने वोट के ज़रिए हुक्का पानी बंद कर दे। ताकि अपनी नफ़रतों की आग में ख़ुद ही जलकर ख़ाक हो जाएं। RZ (रविश ज़ैदी)

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