किस तरह चीन की विस्तारवादी नीतियों के ख़िलाफ़ भारत के सफल प्रतिरोध से एशिया की जियोपॉलिटिक्स फिर से परिभाषित होगी
(last modified Tue, 30 Jun 2020 12:05:27 GMT )
Jun ३०, २०२० १७:३५ Asia/Kolkata
  • किस तरह चीन की विस्तारवादी नीतियों के ख़िलाफ़ भारत के सफल प्रतिरोध से एशिया की जियोपॉलिटिक्स फिर से परिभाषित होगी

सिंगापूर की नेश्नल यूनिवर्सिटी में दक्षिण अशियाई स्टडीज़ के निदेशक सी राजामोहन ने इंडियन एक्सप्रेस के लिए “गलवान के बाद कूटनीति” के शीर्षक के तहत भारत-चीन के बीच जारी तनाव कैसे ख़त्म होगा, इसकी समीक्षा की है।

वह कहते हैं. “दिल्ली में आम ख़्याल यह है कि गलवान झड़प से भारत की चीन नीति रुक गयी”, संशयवादियों की दलील है कि जैसे ही आक्रोश ठंडा होगा, ढाँचागत रुकावटें नीतियों में बड़े बदलाव में रुकावट बनेगीं।

लद्दाख़ में मौजूदा सैन्य टकराव को हल करने के तौर-तरीक़े पर भारत-चीन संबंधों की संभावित दिशा निर्भर करेगी। अगर यह अप्रैल में मौजूद यथास्थिति (स्टेटस को) पर तेज़ी से पलटी तो जड़ता (इनर्शिया) नीति में मूल बदलाव को संभवता सीमित करेगी, लेकिन दूसरी तरफ़ अगर लद्दाख़ संकट भारत के लिए नाकामी साबित हुआ तो दिल्ली पर चीन के संबंध में नीति में मूल बदलाव के लिए दबाव बढ़ जाएगा।

ऐसे समय जब दुनिया के बहुत से देश बीजिंग के सैन्य, आर्थिक व राजनैतिक दबाव का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं, चीन की विस्तारवादी नीतियों के ख़िलाफ़ भारत का सफल प्रतिरोध, एशिया के जियोपॉलिटिकल इवोलुशन में निर्णायक क्षण होगा। लेकिन ऐसा करना आसान नहीं है। दिल्ली 1962 की तुलना में आज बेहतर हालत में है लेकिन तबसे चीन की क्षमता और स्टेटस कई गुना बढ़ गया है। आज दुनिया के ज़्यादातर देशों के लिए चीन दूसरी सबसे बड़ी ताक़त व अहम राजनैतिक व आर्थिक पार्टनर बन चुका है। बहुत कम देश भारत-चीन विवाद में ख़ुद को शामिल करना चाहेंगे। इसलिए दिल्ली को पूरी दुनिया से जनमत इकट्ठा करने में अपनी कूटनैतिक संपत्ति बर्बाद नहीं करनी चाहिए।

वह निष्कर्श पेश करते हैं कि अगर दिल्ली इस संकट में नाकाम होकर निकला तो न सिर्फ़ देश के भीतर बल्कि दुनिया के स्तर पर उसकी मुश्किलें बहुत बढ़ जाएंगी। कमज़ोर भारत के लिए चीन के बारे में अपनी नीति बदलना और कठिन हो जाएगा। लेकिन अगर भारत मौजूदा टकराव में सर बुलंद होकर निकला तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका राजनैतिक असर बढ़ेगा और चीन के विस्तारवाद के ख़िलाफ़ उसका विकल्प बढ़ेगा। यही वजह है कि भारत और दुनिया की भागीदारी 1962 की तुलना में तब जाकर आज कहीं ज़्यादा होगी। (स्रोतः इंडियन एक्सप्रेस)

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