Oct २५, २०२३ १४:५९ Asia/Kolkata
  • दाइश, अलक़ायदा और अन्य आतंकवादी गुटों का असली चेहरा आया सामने, केवल मुसलमानों के नरसंहार की योजना का नाम है इस्लामी आतंकवाद!

पिछले कुछ दशकों से पूरी दुनिया में आतंकवाद की ऐसी लहर चली कि हर कोई उससे ख़ुद को प्रभावित होता हुआ देख रहा था। वहीं ख़ास बात यह थी कि इस आतंकवाद के साथ इस्लाम का शब्द भी जोड़ दिया गया था। देखते ही देखते अंतर्राष्ट्रीय मंच पर इस्लामी आतंकवाद को लेकर चर्चा होने लगी। इसका असर यह हुआ कि विश्वभर में लोग मुसलमानों को आतंकी के तौर पर देखने लगे। लेकिन इस आतंकवाद ने अगर सबसे ज़्यादा किसी को नुक़सान पहुंचाया तो वह कोई और नहीं बल्कि मुसलमान और इस्लामी देश ही हैं।

पश्चिमी एशिया में एक ओर जैसे-जैसे इस्राईल अपना पैर पसारता जा रहा था वैसे-वैसे इस्लामी देशों और मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िशें भी बढ़ती जा रही थीं। किसी न किसी बहाने से मुसलमानों को परेशान किया जाने लगा था। यह सिलसिला यूं ही चलता रहा यहां तक कि इस दौरान कई अवैध ज़ायोनी शासन के साथ इस्लामी देशों के युद्ध भी हुए। इस बीच अमेरिका की कुख्यात ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए और इस्राईल की कुख्यात ख़ुफ़िया एजेंसी मूसाद ने पूरी दुनिया में अशांति और फूट डलवाने में माहिर ब्रिटेन की ख़ुफ़िया एजेंसी एमआई-6 के सहयोग से मुसलमानों और विशेष रूप से इस्लामी देशों के ख़िलाफ़ एक ख़तरनाक योजना तैयार की। इस योजना का नाम था "इस्लामी आतंकवाद।" इन तीनों ख़ुफ़िया एजेंसियों ने सबसे पहले ऐसे इस्लामी देशों की पहचान की कि जो चरमपंथी विचारधारा से प्रभावित थे, उसके बाद धीरे-धीरे उन लोगों को भी चिन्हित किया जो उनके साथ वफ़ादारी से काम कर सकते थे। इस बीच कुछ इस्लामी देशों में इन्होंने अपने एजेंटों को सत्ता तक पहुंचाने का प्रयास भी किया जिसमें काफ़ी हद तक यह कामयाब भी हुए। इन सब के बीच इस्राईल की ख़ुफ़िया एजेंसी मूसाद ने पैसे और अन्य चीज़ों की लालच देकर ऐसे युवाओं की ट्रेनिंग देना शुरू कर कि जो अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर परेशान रहते थे और एक अच्छी और रोमांचक जीवन जीना चाहते थे। यहां यह बात याद रखनी चाहिए कि आतंकवाद की परिभाषा भी यही है, जिसके अनुसार, 'लोगों को अपने वश में करने अथवा किसी लक्ष्य या उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा और डराने-धमकाने का प्रयोग करना' ही आतंकवाद माना जाता है।

पश्चिमी एशिया के धन-दौलत पर अपना नियंत्रण रखना, इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम करके अवैध ज़ायोनी शासन के वजूद को स्थापित करना और उसे सुरक्षा प्रदान करना ही इस्लामी आतंकवाद के जन्म का मुख्य उद्देश्यों में से एक है। क्योंकि अगर बात की जाए आतंकवाद से प्राप्त होने वाले नतीजों की तो हम यह देखते हैं कि यह एक व्यापक समस्या इसलिए भी है, क्योंकि वह प्रजातांत्रिक रूप से स्थापित सरकार को अस्थिर करने या गिराने में योगदान देता है, क़ानून सम्मत शासन व्यवस्था को चुनौती देता है तथा क़ानून के शासन और सरकार के प्रति सामान्य जनता के विश्वास को कम करता है। अब अगर नज़र डाली जाए तो यह बात पूरी तरह साफ़ हो जाती है कि आतंकवाद से किसको सबसे ज़्यादा नुक़सान हुआ और किसको सबसे ज़्यादा फ़ायदा। 9/11 की घटना के बाद से आतंकवाद से जुड़े शोध और संबद्ध गतिविधियों में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है। मुख्यधारा तथा अकादममिक मीडिया, सेमिनारों और सम्मेलनों में इससे संबंधित सामग्री का भी ख़ूब उत्पादन हुआ है। ज़्यादातर शोधों में यह बात पूरी स्पष्टता के साथ सामने आई है कि आतंकवाद से अगर किसी को सबसे ज़्यादा नुक़सान हुआ है तो वह कोई और नहीं बल्कि मुसलमान और मुस्लिम देश हैं, वहीं इससे अगर किसी को सबसे अधिक लाभ पहुंचा है तो वह कोई और नहीं अमेरिका, पश्चिमी देश और अवैध ज़ायोनी शासन है। जैसे-जैसे आतंकवाद का प्रचार-प्रसार बढ़ता गया वैसे-वैसे हथियारों की बिक्री से लेकर इस्लामी देशों के प्राकृतिक संसाधनों की लूट में वृद्धि होती गई। यहां यह कह सकते हैं कि इस्लामी आतंकवाद ने अमेरिका और यूरोपीय देशों के दोनों हाथों में लड्डू थमा दिया।

कुल मिलाकर आज अमेरिका और पश्चिमी देश मिलकर मुस्लिम देशों में जब चाहते हैं हमला कर देते हैं, जितना चाहते हैं लाशों का ढेर लगा देते हैं। पूरे-पूरे शहरों को तबाह और बर्बाद कर देते हैं, लेकिन क्योंकि वह आतंकवाद के नाम पर यह सारे जघन्य अपराध अंजाम दे रहे होते हैं और वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व मीडिया पर भी उन्हीं का कंट्रोल है तो उनपर कोई भी न उंगली उठाता और न ही कोई उनसे सवाल कर सकता है। वहीं अगर अमेरिका और यूरोपीय देशों में कोई एक भी मौत हो जाती है तो ऐसा हंगामा होता है कि जैसे पूरा देश आतंकवाद की आग में झुलस गया हो। आज ग़ज़्ज़ा में जो कुछ हो रहा है यह इसी आतंकवाद की जीती-जागती तस्वीर है। एक ओर अवैध और आतंकी शासन इस्राईल के पाश्विक हमलों के जवाब में फ़िलिस्तीनी जियाले कार्यवाही करते हैं तो ऐसा शोर-शराबा होता है कि जैसे दुनिया में इस तरह की पहली बार कोई कार्यवाही हुई है। वहीं गज़्ज़ा में हर दिन हज़ारों लोगों की हत्याएं हो रही हैं, मासूम बच्चों की लाशों के ढेर लगे हुए हैं, इलाज के लिए अस्पताल तक नहीं बचे हैं, लेकिन दुनिया ऐसे प्रतिक्रिया दे रही है कि जैसे यह तो कोई आम बात है और मारे जाने वाले इंसान नहीं हैं। (RZ)

लेखक- रविश ज़ैदी, वरिष्ठ पत्रकार। ऊपर के लेख में लिखे गए विचार लेखक के अपने हैं। पार्स टुडे हिन्दी का इससे समहत होना ज़रूरी नहीं है।  

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