Jan ०७, २०२४ १६:३५ Asia/Kolkata

वैसे तो इस बात में कोई शक नहीं है कि हर धर्म में किसी न किसी एक वर्ग का कट्टरवाद और चरमपंथ की ओर झुकाव हो जाता है। यह केवल इस्लाम धर्म की बात नहीं है, बल्कि दुनिया के ज़्यादातर धर्मों में कुछ इसी तरह की स्थिति पाई जाती है। लेकिन सवाल यह उठता है कि आख़िर आतंकवाद का जन्म कैसे हुआ और इसको इस्लाम धर्म से ही जोड़कर क्यों दुनिया के सामने पेश किया जाने लगा? तो इसके बहुत सारे जवाब हैं जिन सबका यहां उल्लेख नहीं किया जा सकता है। लेकिन एक दो पहलुओं को हम बयान करने का प्रयास ज़रूर करेंगे।

दुनिया में जैसे-जैसे मीडिया, इंटरनेट और सोशल मीडिया का विकास तेज़ होता गया वैसे-वैसे मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िशें भी तेज़ होती गईं। इन दोनों की रफ़्तार को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे दोनों को किसी एक ही मशीन के ज़रिए ही चलाया जा रहा हो। क्योंकि इस्लाम धर्म दुनिया में फैलेने वाला सबसे तेज़ धर्म माना जाता है। इस्लाम से पहले बहुत सारे धर्म थे, लेकिन उन सारे धर्मों के बाद दुनिया में आने वाला यह धर्म आज दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा धर्म बन चुका है। वहीं ऐसा माना जाता है कि मीडिया, सोशल मीडिया और इंटरनेट को वजूद में लाने वालों ने जब यह देखा कि बिना किसी प्रचार-प्रसार और बिना किसी मीडिया प्लेटफार्म के जब इस्लाम धर्म इतनी तेज़ी से फैल सकता है तो फिर जब आधुनिक दुनिया के यह प्लेटफार्म इसे मिल जाएगा तो शायह ही दुनिया में कोई ऐसा इंसान बचे जो इस्लाम धर्म को स्वीकार न करे। इन तमाम बातों को दिमाग़ में रखते हुए मुसलमानों के ख़िलाफ़ ऐसी साज़िश रचने की योजना बनाई गई कि जिससे मीडिया और सोशल मीडिया जहां पूरी दुनिया में छा जाएं वहीं साथ में आम लोगों तक यह भी सोच पहुंचे कि इस्लाम और मुसलमानों का संबंध आतंकवाद और कट्टरवाद से है। यही कारण है कि आज पूरी दुनिया में जिस व्यापक्ता के साथ सोशल मीडिया का चलन हो चुका है उसी तरह इस्लाम को बदनाम करने वाली सामग्रियों की भरमार भी इस प्लेटफार्म पर देखने को मिल जाएगी।

पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से एक नाम पूरी दुनिया में छाया हुआ है और वह है तकफ़ीरी आतंकवादी गुट दाइश का नाम। पश्चिम एशियाई क्षेत्र की स्थितियों, विशेष रूप से ग़ज़्ज़ा में युद्ध और प्रतिरोध से ज़ायोनी शासन की हार और भारी क्षति को ध्यान में रखते हुए, शुरू से ही इस अवैध शासन के मुख्य समर्थक के रूप में अमेरिका को देखा जाता रहा है। अवैध ज़ायोनी सासन के वजूद में आने से लेकर आज तक अमेरिका किसी भी स्तर पर जा कर इस अवैध शासन को पश्चिमी एशिया में बनाए और बचाए रखना चाहता है। उसके लिए उसने सीरिया इराक़ और लेबनान को सबसे पहले निशाना बनाया और साथ ही साथ ईरान तो उसके सबसे बड़े टार्गेट में से है। इस बात के पुख़्ता सबूत हैं कि जिससे पता चलता है कि अमेरिका ने प्रतिरोध की धुरी का सामना करने के लिए तकफ़ीरी आतंकवादी समूह दाइश की स्थापना और उसके फलने-फूलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इराक़ और सीरिया और फिर अफ़ग़ानिस्तान में दाइश की गतिविधियों का विस्तार करने के लिए वॉशिंग्टन ने निरंतर प्रयास किए हैं।

कथित तौर पर पश्चिम के नेता के रूप में अमेरिका ने अपने पश्चिमी और अरब साझेदारों के साथ मिलकर दाइश सहित तकफ़ीरी आतंकवादियों का समर्थन किया है और उन्हें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करता आ रहा है। अगस्त 2016 में बराक ओबामा के राष्ट्रपति रहने के दौरान अपने एक चुनावी भाषण में, डोनल्ड ट्रम्प ने उन्हें और चुनाव में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन और पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री को दाइश का संस्थापक बताया था। इसके अलावा, अमेरिकी राजनेता "रॉबर्ट एफ़ कैनेडी जूनियर", जिन्होंने 2024 के राष्ट्रपति चुनावों में अपनी भागीदारी की घोषणा की है और डेमोक्रेटिक पार्टी में जो बाइडन के प्रतिद्वंद्वी माने जाते हैं, उन्होंने भी दाइश के गठन में संयुक्त राज्य अमेरिका की भूमिका को स्वीकार किया है।

कुल मिलाकर यह कुछ ऐसा नज़रिए हैं कि जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि आज पूरी दुनिया में, विशेषकर पश्चिमी एशिया में तकफ़ीरी आतंकवाद का जो आतंक है वास्तव में वह आतंकी अमेरिका का ही है। दुनिया भर में जो भी देश आतंकवाद से ज़ख़्मी है, वह ज़ख़्म अमेरिका का ही दिया हुआ है। हाल ही में ईरान में शहीद क़ासिम सुलेमानी की बरसी के मौक़े पर होने वाला आतंकवादी हमला, और उसमें शहीद होने वाले सैकड़ों बेगुनाह लोग का वास्तव में कोई मुजरिम है तो वह अमेरिका ही है। ज़रा सोचें यह कौन लोग हैं जो इस्लाम के नाम पर आतंकवाद का गंदा खेल खेल रहे हैं और उससे केवल मुसलमानों को ही नुक़सान पहुंच रहा है। आख़िर ग़ज़्ज़ा की मज़लूम जनता की मदद के लिए इस्लाम के नाम पर कथित तौर पर धमाके करने वाले कहां ग़ायब हो जाते हैं? (RZ)

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