काबुल में गुज़रती ज़िंदगी और पलायन की लटकती तलवार
(last modified Thu, 12 Aug 2021 15:40:08 GMT )
Aug १२, २०२१ २१:१० Asia/Kolkata
  • काबुल में गुज़रती ज़िंदगी और पलायन की लटकती तलवार

बाबर ने कभी काबुल के लिए कहा था कि ज़मीन पर अगर कहीं जन्नत है तो वह यहीं है। मैं इसी जन्नत में रहती हूं। मगर बाबर का चहेता शहर आज कल अख़बारों की सुर्खियों में तो छाया है मगर अब जन्नत नहीं रहा। बेवफ़ा आशिक़ की तरह बहुत बदल गया है। बाबर ने कभी काबुल के लिए कहा था कि ज़मीन पर अगर कहीं जन्नत है तो वह यहीं है।

काबुल में बाबर का मक़बरा

 

मैं इतिहास की किताबों में इसकी पुरानी ख़ुसूसियतें तलाश करती हूं जैसे दिल जली लड़की ब्रेक अप के बाद अपने महबूब के पुराने मैसेज पढ़ कर अच्छे वक़्तों की सुहानी बातों को याद करके रोती है। मेरे पास इसके अलावा कोई ख़ज़ाना बचा ही नहीं है।

यहां हर शख़्स परेशान सा घर से निकलता है और वापस घर आकर उसी परेशानी पर सिर रख कर सो जाता है। आख़िर कोई कब तक एक ही मसले पर बहस करता रहे?

कल एक उम्र रसीदा ख़ातून घर आईं और बातों बातों में कहने लगीं कि बस अब जो भी हो मैं ठीक हूं। मैं तो थक गई हूं यह सोच सोच कर कि हमारे साथ अब क्या होगा। एक चादर ही तो है वह भी पहन लेंगे।

नौजवान लड़कियों ने कानों को हाथ लगाकर तौबा की और कहा कि उफ़ ख़ाला यह न कहो, तुम तो ज़िंदगी गुज़ार चुकी हो, न तुमको स्कूल जाना है, न युनिवर्सिटी जाना है, न नौकरी करनी है, मसला तो हमें है ना!

वह बूढ़ी महिला पुराने वक़्त को याद करने लगी कि जब तालेबान का वक़्त था तो मैं शिनाख्ती कार्ड आफ़िस में कलर्क थी। नीला बुर्क़ा ओढ़ कर कुर्सी पर बैठा करती थी। बाक़ी सारे स्टाफ़ में केवल मर्द ही थे जो पश्तो ज़बान बोलते थे। एक मैं इकलौती फ़ारसी ज़बान थी। शिनाख़्ती कार्ड बनाते वक़्त मैं महिलाओं का चेहरा देखकर उनकी उम्र का अंदाज़ा लगाती थी।

काबुल शहर

 

पिंजरे मैं क़ैद होने का तसव्वुर ही बहुत भयानक है। इस वक़्त सारी दुनिया की नज़रें अफ़ग़ानिस्तान और अफ़ग़ानों की दुनिया पर लगी हैं। न जाने इस बार बादशाहे वक़्त हमारे साथ क्या सुलूक करें?

पलायन का नाम सुनकर एसा लगता है कि जैसे किसी ने दिल मुट्ठी में भींच दिया हो। और तो और बर्तनों के शोकेस में सजी रिकाबियां रंजीदा हो जाती हैं। कभी जहेज़ से लाए क़ीमती क़ालीन फ़रियाद करते हैं कि जाना पड़ा तो क्या हमें छोड़ जाओगी?

कभी बच्चे का झूला सिसकता है, मेरी गुंजाइश निकलेगी क्या? अख़रोट के पेड़ से बनी वज़्नी मसेहरी चरचराती है मेरा क्या होगा? बच्चों की साइकल, बिस्तर, गद्दे, छत से लटके क़ीमती फ़ानूस, सजावटी चीज़ें, पर्दे, कुर्सियां, ढेर सारी किताबें सब दुख में डूबे हैं।

मर्दों का दिल हालात की भट्टी में पकते पकते सख़्त हो जाता है और अपना ग़म आसानी से ज़ाहिर नहीं होने देते। मगर औरत बिल्ली की तरह होती है। उसे घर के चप्पे, चप्पे से इश्क़ हो जाता है। औरत सारा दिन घर का कोना कोना साफ़ करने में गुज़ार देती है। जूतों समेत किसी को क़ालीन पर आने की इजाज़त नहीं देती। आधा दिन तो उसका मसहरी की सिलवटें दुरुस्त करने और खिड़कियों के शीशे साफ़ करने में गुज़र जाता है बाक़ी आधा दिन बावरची ख़ाने में गुज़ार देती है।

ऊंघ रही हो तब भी अगर कोई पूछे नमक का डिब्बा कहां रखा है तो वह बिल्कुल ठीक जगह बताती है। वही महिला जब टीवी आन करती है तो जंग की ख़बरें सुन कर उसकी आंखें नम हो जाती हैं। वह दिल बहलाने को जब फ़ेसबुक का रुख़ करती है तो वहां भी हर एक को अपनी छोड़ यही पड़ी है कि अफ़ग़ान कहीं इधर न आ जाएं। वह तकिया अश्कों से भिगो कर सो जाती है, करे भी तो क्या? पलायन भी कोई करने की चीज़ है। 50 लाख की गाड़ी और 2 करोड़ का घर छोड़कर वहां किराए के घरों में रहना और लोकल बसों के धक्के खाना! इस पलायन की वजह से लोगों की बरसों की मेहनत से कमाई गई सारी दौलत पर पानी फिर जाता है।

अफ़ग़ान सीमा पर लोग जमा हैं

 

क़ंधार के हालात शदीद ख़राब होने लगे तो मेरी पड़ोसन परेशान थी। उसके ससुराली रिश्तेदार पलायन करके काबुल आए तो मैं मिलने गई। औरतें परेशान हाल एसे बैठी थीं जैसे मैं उनके घर फ़ातेहा ख़ानी पर गई हूं। कुछ देर तक ख़ामोशी रही फिर एक ने बताया कि वहां झड़पें थीं, कमरों से बाहर निकलते हुए डर लगता था।

एक ने कहा कि मैंने तो कपड़े धोकर तार पर लटकाए थे और उसी दिन मर्दों ने आकर कहा जल्दी करो, कपड़े समेटो अभी के अभी निकलना है। दूसरे ने कहा कि मैं जल्दी में ज़ेवरात तक न उठा सकी। तीसरी ने कहा हर चीज़ मिल जाएगी बस दुआ करो हालात ठीक हो जाएं।

इस बात पर इतमीनान मिलते ही सबने चाय का पियाला उठाया और सब्ज़ चाय के कड़वे घूंट भरने लगे। इसी बीच एक छोटा सा बच्चा क़रीब आकर कहने लगा यह लोग मेरी मुर्ग़ी और उसके छोटे छोटे बच्चे भी छोड़ आए हैं। यह कहते ही वह बच्चा फूट फूट कर रोने लगा।

मेरे हल्क़ में उंडेला चाय का घूंट ज़हर जैसा कड़वा हो गया।

काबुल से सरवत नजीब

नोटः सरवत नजीब काबुल में रहने वाली ग्राफ़िक डिज़ाइनर और पत्रकार हैं। वह पश्तो के साथ ही उर्दू ज़बान में भी लिखती हैं। उनका यह लेख पाकिस्तान के अख़बार डान से लिया गया है।

हमारा व्हाट्सएप ग्रुप ज्वाइन करने के लिए क्लिक कीजिए

हमारा टेलीग्राम चैनल ज्वाइन कीजिए

हमारा यूट्यूब चैनल सब्सक्राइब कीजिए!

ट्वीटर  पर हमें फ़ालो कीजिए

टैग्स