भारतीय राजनेताओं का झुकाव गोरी नस्ल की ओर/ नई दिल्ली इस्राईल की सेवा में
(last modified Sat, 06 Jul 2024 13:47:43 GMT )
Jul ०६, २०२४ १९:१७ Asia/Kolkata
  • भारतीय राजनेताओं का झुकाव गोरी नस्ल की ओर/ नई दिल्ली इस्राईल की सेवा में
    भारतीय राजनेताओं का झुकाव गोरी नस्ल की ओर/ नई दिल्ली इस्राईल की सेवा में

नौ महीनों से ग़ज़ा में इस्राईल के अपराधों के साथ भारत ने इस के ख़िलाफ़ न केवल यह कि स्टैंड नहीं लिया है बल्कि वह ज़ायोनियों की हथियारों की ज़रूरतों को भी पूरा कर रहा है। इस अमानवीय रवैये का विश्लेषण सैनिक और आर्थिक पहलुओं से किया जा सकता है।

हालिया दिनों में इस हक़ीक़त का पर्दा फ़ाश हुआ कि ग़ज़ा में ज़ायोनिस्ट रेजीम द्वारा फ़िलिस्तीनियों के नस्ली सफ़ाये में भारत भा साथ दे रहा है। इस विषय ने विश्ववासियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।

सबसे पहले इसका ख़ुलासा इस्राईली समाचार पत्र यदीऊत अहारोनोत ने किया।

पार्सटुडे की रिपोर्ट के अनुसार ग़ज़ा जंग में तेलअवीव की हथियारों की ज़रूरत के बड़े भाग की पूर्ति भारत कर रहा है।

 

क्यों और किस तरह भारत अतिग्रहणकारी इस्राईल का घटक बन गया?

इतिहास पर दृष्टि डालने से इस सच्चाई को स्पष्ट तरीक़े से देखा और समझा जा सकता है कि भारत की नीति फ़िलिस्तीन से इस्राईल की ओर शिफ़्ट हो गयी है। आरंभ में भारत फ़िलिस्तीनी नेशन का समर्थन करता था जो अतिग्रहण में ज़िन्दगी गुज़ार रहा है पर अब उसका रुझान क़ाबिज़ रेजीम के समर्थन की ओर मुड़ गया है और यह समर्थन केवल राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं तक सीमित नहीं है बल्कि यह समारिक क्षेत्रों तक पहुंच गया है।

 

वर्ष 1947 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में फ़िलिस्तीन के विभाजन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोट दिया था और भारत पहला ग़ैर अरब देश था जिसने फ़िलिस्तीन के मुक्ति मोर्चा संगठन Palestine Liberation Organization को फ़िलिस्तीनी राष्ट्र के एक मात्र प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी थी। इसी प्रकार भारत उन पहले देशों में से था जिन्होंने वर्ष 1988 में फ़िलिस्तीन को मान्यता दी थी। भारत ने वर्ष 1950 में ज़ायोनी सरकार को मान्यता दी लेकिन इसके बावजूद वर्ष 1992 तक इस्राईल के साथ किसी प्रकार का कूटनयिक संबंध स्थापित नहीं किया था।

 

अतीत के विपरीत सात अक्तूबर 2023 से तूफ़ान अलअक़्सा के शुरू होते ही भारत ने तुरंत विस्तृत पैमाने पर ज़ायोनी सरकार का पक्ष लेते हुए उसका राजनीतिक समर्थन आरंभ कर दिया और तूफ़ान अलअक़्सा के मात्र कुछ ही घटों बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया के पहले नेता थे जिन्होंने तूफ़ान अलअक़्सा की भर्त्सना की और भारत के विदेशमंत्री ने यही दृष्टिकोण दोहराया।

 

भारतीय राजनेताओं द्वारा काफ़ी बड़े पैमाने पर तूफ़ान अलअक़्सा की भर्त्सना की गयी। मक़बूज़ा फ़िलिस्तीन में इतिहास के सबसे बड़े नस्ली सफ़ाये पर मौन धारण करने के साथ ही भारतीय राजनेताओं ने अब तक किसी प्रकार का इस्राईल विरोधी दृष्टिकोण नहीं अपनाया और भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बार बार अपने ज़ायोनी समकक्ष को "मेरा दोस्त" शब्द कहकर संबोंधित किया है।

 

भारत, अवैध ज़ायोनी सरकार और अमेरिका की हां में हां मिलाने में इस सीमा तक आगे बढ़ गया कि 27 अक्तूबर को राष्ट्र संघ में ग़ज़ा में युद्धविराम कराने के संबंध में एक प्रस्ताव पेश किया गया परंतु भारत ने अमेरिका और इस्राईल का पक्ष लेते हुए इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोट देने से परहेज़ किया।

 

भारत का यह रवैया अंतरराष्ट्रीय संगठनों और यूरोप सहित दुनिया के दूसरे देशों के दृष्टिकोणों के ख़िलाफ़ था। भारत के इस दृष्टिकोण पर दुनिया के विशेषज्ञों विशेषकर भारतीय विशेषज्ञों ने भी प्रतिक्रिया जताई थी।  

 

भारत के एक राजनीतिक विश्लेषक अभिजीत मिश्रा ने सोशल साइट एक्स पर लिखा कि श्री मोदी ने फ़िलिस्तीन के अस्तित्व को क़बूल करने से मुंह मोड़ लिया है। इस्राईल का खुला समर्थन इस बात का स्पष्ट चिन्ह है कि भारत इस्राईल की हर उस कार्यवाही का समर्थन करता है जो उसके हित में हो।"

 

भारत में उर्दू समाचार पत्रों ने भी इस संबंध में लिखा था कि नरेन्द्र मोदी द्वारा ज़ायोनी सरकार का समर्थन पश्चिम एशिया की राजनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन का सूचक है। मिसाल के तौर पर उर्दू टाइम्स ने लिखा था कि नरेन्द्र मोदी ने एलान किया है कि वो इस्राईल के  समर्थक हैं और यह भारत की नीति में परिवर्तन का इशारा है।

 

ग़ज़ा में ज़ायोनी सरकार के दिल दहला देने वाले अपराधों ने भारत में राजनीती की गहरी खाई को और चौड़ा कर दिया। यह ऐसी स्थिति में है जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ज़ायोनी सरकार का समर्थन करने और फ़िलिस्तीनियों के बारे में बयान देने से परहेज़ कर रहे हैं अलबत्ता भारत की कांग्रेस पार्टी हमेशा फ़िलिस्तीनियों के अधिकारों के समर्थन की बात करती है।

 

ज़ायोनी सरकार की ओर भारत के झुकाव की वजह

 

शीत युद्ध की समाप्ति और पूर्व सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत अपनी विदेश नीति में परिवर्तन का साक्षी था और धीरे-धीरे उसका रुझान अमेरिका की ओर हो गया। इसी प्रकार पी. वी. नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री काल में भारत ने 1992 में इस्राईल के साथ कूटनयिक संबंध स्थापित किए और तेलअवीव में अपना दूतावास खोला और ज़ायोनी सरकार ने भी उसी समय नई दिल्ली में अपना दूतावास खोला।

 

पिछले एक दशक में भारत ने ज़ायोनी सरकार से हथियार ख़रीद कर अपने संबंधों को और मज़बूत किया है। जब से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तब से भारत ने ज़ायोनी सरकार से 66 करोड़ 20 लाख डॉलर के हथियार ख़रीदे हैं।

 

अमेरिका में भारतीय और ज़ायोनी लॉबियां परस्पर हितों के लिए साथ में काम करती हैं और ज़ायोनी लॉबी  अमेरिकी तकनीक से बने हथियारों को भारत को बेचने के लिए इस्राईल को तैयार कर सकती है।

 

दोनों पक्षों के मध्य वार्षिक व्यापार लगभग पांच अरब डॉलर का है और एक समझौता हो जाने के बाद इस व्यापार की मात्रा डबल हो गयी। यह उस हालत में है जब फ़िलिस्तीनियों के अंदर इस बात की क्षमता मौजूद नहीं है कि वे भारत के साथ बड़ा व्यापार कर सकें।

 

इस आधार पर भारत के आर्थिक और सैनिक हित कारण बने हैं कि नई दिल्ली के राजनेता न केवल ग़ज़ा में ज़ायोनी सरकार के अपराधों से अपनी आंखें मूंद लें बल्कि वे ज़ायोनी सरकार के लिए ज़रूरत के हथियारों की सप्लाई भी कर रहे हैं।

 

सात अक्तूबर से ज़ायोनी सरकार के हमलों में शहीद होने वाले फ़िलिस्तीनियों की संख्या 38 हज़ार 98 हो गयी है जबकि घायलों की संख्या 87 हज़ार 705 हो गयी है। MM

 

कीवर्ड्सः भारत और इस्राईल, अमेरिका और भारत, जंगे ग़ज़्ज़ा, फ़िलिस्तीन में इस्राईल के अपराध, नरेन्द्र मोदी।  

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