Feb १०, २०१६ १६:१४ Asia/Kolkata

विश्व भर में यहां तक कि उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों में भी शीशा रोज़ाना इस्तेमाल में आने वाली चीज़ों के रूप में और निर्माण कार्यों में प्रयोग होता रहा है।

विश्व भर में यहां तक कि उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों में भी शीशा रोज़ाना इस्तेमाल में आने वाली चीज़ों के रूप में और निर्माण कार्यों में प्रयोग होता रहा है। वर्तमान समय में भी विभिन्न डिज़ाइनों और रंगों में शीशे का काफ़ी इस्तेमाल होता है। उदाहरण स्वरूप, आईने के रूप में, ज़्यादा से ज़्यादा प्रकाश से लाभ उठाने, ऊष्मा को नष्ट होने से बचाने और तापमान को संतुलित रखने, आग के मुक़ाबले में मज़बूती प्रदान करने और साउंडप्रूफ़ बनाने के लिए। हालांकि यह समस्त इस्तेमाल विगत में नहीं थे, शीशा एक प्राकृतिक वस्तु थी और इस प्रकार उसका प्रयोग नहीं किया जाता था।

 

 

सबसे पहला शीशा वही प्राकृतिक शीशा था, जो ज्वालामुखी फूटने से अस्तित्व में आया था। ऐसा अनुमान है कि प्राकृतिक शीशों को स्टोन ऐज के लोग प्रयोग करते थे। हालांकि उस काल में इसके सीमित स्रोतों और धारदार उपकरणों की ज़रूरत के मद्देनज़र इसका काफ़ी लेनदेन होता था।

पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार, 3600 वर्ष ईसा पूर्व वर्तमान सीरिया, मेसोपोटामिया या प्राचीन मिस्र में पहला शीशा बनाया गया। प्राचीन शीशों से प्रकाश गुज़रता नहीं था और शुद्ध न होने के कारण वह रंगीन लगते थे। अभी तक मिलने वाला सबसे पुराना शीशा ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी के मध्य से संबंधित है, जो संभवतः मिट्टी के बर्तन बनाते समय अचानक बन गया होगा।

शीशे को एक सजावटी सामान के रूप में प्रयोग किया जाता था, लेकिन ब्रोंज़ काल के अंत में घटने वाली घटनाएं शीशे के विस्तार में रुकावट का कारण बनीं। ऐतिहासिक प्रमाणों के मुताबिक़, मध्यकालीन शताब्दियों में विस्तृत पैमाने पर शीशे के प्रयोग में वृद्धि हो गई. उदाहरण स्वरूप, आवासीय इलाक़ों और ब्रिटेन के क़ब्रिस्तानों से रंग बिरंगे शीशे मिले हैं जो खिड़कियों, बर्तनों और सजावटी चीज़ों में प्रयोग होते थे।

 

 

इतिहास पर नज़र डालने से पता चलता है कि धीरे धीरे शीशे के प्रयोग में विविधता आती गई और उसका विस्तार होता गया, पानी के मुक़ाबले में कोई प्रतिक्रिया न दिखाने के कारण और बर्तनों के रूप में उसके प्रयोग में वृद्धि होती गई। लेंस, खगोलशास्त्र के उपकरणों और उसके बाद, चिकिस्ता उपकरणों में भी इसका प्रयोग बढ़ता गया।

लेकिन प्रचलित शीशे के काम का अर्थ, शीशे को विभिन्न रूपों में ढालना है। इस उद्योग में पहले शीशे को गर्म करते हैं, ताकि वह नर्म और अर्ध तरल में परिवर्तित हो जाए। उसके बाद हाथों से या विशेष उपकरणों से उसे विभिन्न सुन्दर रूपों में ढाला जाता है। शीशा बनाने में प्रयोग होने वाला मूल पदार्थ सिलिका पत्थर है और शीशे को रंगीन बनाने के लिए धातु आक्साइड उदाहरण स्वरूप, कोबाल्ट ऑक्साइड, तांबा, लोहा, मैंगनीज़ और सल्फर का प्रयोग किया जाता है। शीशे के ऊपर चित्रकारी विशेष उपकरणों से डिज़ाइन के मुताबिक़, एक या अनेक चरणों में भट्टी में गर्म करके की जाती है। इसमें प्रयोग होने वाले रंग, पॉवडर के रूप में और धातु आक्साइड से तरल पदार्थ के रूप में बनाए जाते हैं।

 

 

शीशे के काम में सिलिका या सिलिकॉन ऑक्साइड, सल्फ़ेट सोडियम, कार्बोनेट कैल्शियम और सफ़ैद करने वाले पदार्थों का प्रयोग किया जाता है। शीशे की कला एक प्राचीन हस्तशिल्प है। पुरातत्त्ववेत्ताओं के शोधों से पता चलता है कि ईरान में इसका हख़ामनेशी काल से रहा है, यहां तक कि ईरान में दस्तकारी शीशे के प्राचीन नमूने मध्यपूर्व में पाये गए हैं। पुरातत्त्ववेत्ताओं का मानना है कि 3 हज़ार वर्ष ईसा पूर्व सूमरी शीशे की कला से परिचित थे। फ़्रांसीसी पुरातत्त्ववेत्ता रोमन गिरिशमैन ईरान में इस कला के इतिहास का उल्लेख करते हुए शीशे की बोतलों की ओर संकेत करता है, जो जो चोग़ाजंबील उपासनागृह की खुदाई में मिली हैं, जो 1250 ईसा पूर्व से संबंधि था और पश्चिमी ईरान के दक्षिण में स्थित था।

ईरान में सबसे पुराना शीशा 2 हज़ार वर्ष ईसा पूर्व है। इत्रदान, चूंड़ी, प्याला और जार इन शीशों की वस्तुओं के कुछ नमूने हैं। हख़ामनेशी काल से संबंधित मिलने वाले बर्तन और अन्य वस्तुओं से पता चलता है कि इस काल के शीशों का रंग हल्का हरा होता था, जो बिना रंग के शीशों में गिने जाते थे, शीशे में रंगीन पदार्थों के नहीं मिलाया जाता था। हालांकि उनका हरा रंग उनके अशुद्ध होने के कारण भी होता था।

 

 

प्राप्त प्रमाणों के मुताबिक़, हख़ामनेशी काल में शीशे के उद्योग का ख़ूब विकास हुआ। उदाहरण स्वरूप, पांचवी सदी ईसा पूर्व के लेखक अरिस्टोफ़न ने अपने एक लेख में हख़ामनेशी दरबार के क्रिस्टल जामों की ओर संकेत किया है, पर्सेपोलिस में मिलने वाले शीशे के टुकड़ों से यूनानी लेखक की बात की पुष्टि होती है।

मारलीक सभ्यता संबंधित शीशे की वस्तुएं मिली हैं, जो 3400 वर्ष पुरानी हैं। इसी प्रकार, लोरिस्तान में होने वाली खुदाई में भी शीशे के बर्तन मिले हैं। सासानी कलाकार शीशे को तराशने में विशेष दक्षता रखते थे, जिसके कारण शीशे की यह वस्तुयें चीन में काफ़ी लोकप्रिय थीं। विशेष रूप से ईरान का लाजवरदी शीशा काफ़ी लोकप्रिय था। खुदाई में मिलने वाले जाम जिन पर चित्र बने हुए थे, प्राचीन ईरान में शीशे के काम की लोकप्रियता को दर्शाते हैं।

इस्लाम के बाद भी शीशे के बर्तनों की लोकप्रियता इसी प्रकार बनी रही और इस क्षेत्र के कलाकारों ने अपने उत्पादों को नया रंग रूप प्रदान किया और इस्लामी डिज़ाइनों का प्रयोग करके शीशे की कला में क्रांति उत्पन्न कर दी।

 

 

सल्जूक़ी काल में मुग़लों के हमलों तक, ईरान के उत्तर में स्थित गुरगान की भट्टियों से शीशे के अति सुन्दर बर्तन बाहर आते रहे, जिन्हें बहुत ही दक्षता से तराशा और उकेरा जाता था। ईरान में सल्जूक़ी शासनकाल में शीशे का काम अपने चरम पर था। इस काल में शीशे के उत्पादों में छोटे बड़े बर्तन, नाज़ुक इत्रदान, जाम, गुलदान और सटावटी वस्तुओं का नाम लिया जा सकता है।

मुग़लों के हमले के कारण, अन्य अनेक कलाओं की भांति शीशे का काम भी नष्ट हो गया, मिट्टी के बर्तन और टाइलों का काम किसी हद तक बाक़ी रहा। तौमूरियान के सत्ता में आने के बाद, शीशे के काम पुनः शुरू हुआ और शीशे का काम करने वाले मिस्र और सीरिया से ईरान आए और शीशे की कला को अपने देशों तक ले गए। इस काल में समरक़ंद और शीराज़ शीशे के काम के दो महत्वपूर्ण केन्द्र थे।

सफ़वी शासनकाल विशेष रूप से शाह अब्बास सफ़वी का शासनकाल, शीशे के काम के लिए एक दूसरा महत्वपूर्ण काल है। शाह अब्बास ने मस्जिदों के दीपों और रंग बिरंगी एवं सुन्दर बोतलों का आर्डर देकर इस कला को पुनर्जीवित किया और वेनिस से शिशे के काम में दक्षता रखने वाले कलाकारों को ईरान के लिए आमंत्रित किया। परिणाम स्वरूप, सफ़वी काल में शीशे की कला का अच्छा विकास हुआ।

 

 

सफ़वी काल में शीशे की कला और उद्योग बहुत विविध था। शीशे का काम करने वाले कभी शीशे को सांचे में ढालकर कोई वस्तु बनाते थे तो कभी उसे तराशकर, ताकि आभूषण बना सकें या उस पर चित्र उकेर सकें। कभी शीशे पर चमकीले चित्र और सोने से डिज़ाइन बनाए जाते थे। इस काल में इस्फ़हान, शीराज़ और काशान समेत ईरान के विभिन्न शहरों में शीशे के कारख़ाने थे।

सफ़वी और क़ाजारी शासन श्रंखलाओं के बीच के काल में शीशे के उद्योग या कला ने कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं की, बल्कि क़ाजारी श्रंखला के अंतिम दौर में यह धीरे धीरे कमज़ोर पड़ती गई। इस दौरान, शीशा सस्ते दामों में मिलने लगा और ईरानी बाज़ार में शीशे के विदेशी कारख़ानों की भरमार हो गई और धीरे धीरे यह उद्योग पिछड़ता गया।

यद्यपि आज के जीवन में शीशे की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन दस्तकारी में शीशे का काम केवल छोटी और सजावटी वस्तुओं तक सीमित होकर रह गया है। इस कला ने अभी तक प्रासंगिक कला का रूप धारण नहीं किया है। उल्लेखनीय है कि अभी तक ईरान में शीशे के उत्पाद की पारम्परिक शैली प्रचलित है।