Jan १०, २०२४ १५:३७ Asia/Kolkata

ग़ाफ़िर, आयतें 1-6

حم (1) تَنْزِيلُ الْكِتَابِ مِنَ اللَّهِ الْعَزِيزِ الْعَلِيمِ (2) غَافِرِ الذَّنْبِ وَقَابِلِ التَّوْبِ شَدِيدِ الْعِقَابِ ذِي الطَّوْلِ لَا إِلَهَ إِلَّا هُوَ إِلَيْهِ الْمَصِيرُ (3)

इन आयतों का अनुवाद हैः

हा मीम [40:1]  (इस) किताब (कुरान) का नाज़िल होना (ख़ास बारगाहे) ख़ुदा से है जो (सबसे) शक्तिशाली बड़ा जानकार है। [40:2] गुनाहों का बख़्शने वाला और तौबा का क़ुबूल करने वाला सख़्त अज़ाब देने वाला साहिबे फज़्ल व करम है उसके सिवा कोई पूज्य नहीं उसी की तरफ़ (सबको) लौट कर जाना है।[40:3]

 यह सूरा भी क़ुरआन के अन्य 28 सूरों की तरह ख़ास प्रकार के अक्षरों से शुरु हुआ है जिसे हुरूफ़े मुक़त्तेआत कहा जाता है। इससे पहले भी हमने बताया कि बाद वाली आयत के मद्देनज़र यह अक्षर क़ुरआन की अज़मत को बयान करते हैं। यानी इतनी महान किताब जो महान व तत्वदर्शी अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल की गई है इन्हीं आम से अक्षरों से मिलकर बनी है जो सारे इंसानों की पहुंच में होते हैं लेकिन तुम इसके जैसी किताब नहीं पेश कर सकते।

बाद वाली आयत अल्लाह की विशेषताओं में से पांच का उल्लेख करती है जिनमें ख़ुशख़बरी भी है और चेतावनी भी है। एक तरफ़ गुनहगारों को उम्मीद दिलाई गई है कि अगर तौबा कर लो तो अल्लाह माफ़ कर देगा और तुम्हारे पापों को धो देगा। दूसरी तरफ़ उन्हें चेतावनी भी दी गई है कि अगर तुम अपने गुनाह पर तुले  रहोगे और अल्लाह के आदेशों की अवमानना करोगे तो तुम्हें बहुत कड़ा अज़ाब मिलेगा। आगे की आयतें इस बिंदु पर ज़ोर देती हैं कि केवल वही ख़ुदा इबादत के योग्य है जिसकी नेमतें हर जगह छायी हुई हैं उसके अलावा कोई भी इबादत के योग्य नहीं है। इसके अलावा मौत के बाद सबको अल्लाह के पास ही वापस जाना है और अल्लाह के सामने जवाब देना है।

इन आयतों से हमने सीखाः

क़ुरआन अल्लाह का कलाम है जो इंसान की समझ के मुताबिक़ आसान बनाकर नाज़िल किया गया है।

क़ुरआन अल्लाह के असीम ज्ञान की झलक पेश करता है इसलिए इसके ख़िलाफ़ कोई भी तर्क टिक नहीं सकता।

क़ुरआन का दामन मज़बूती से थाम कर मुसलमान दुनिया में भी इज्ज़त पा सकते हैं क्योंकि इसे शक्तिशाली और सर्वज्ञानी अल्लाह ने नाज़िल किया हैं

क़ुरआन को इसलिए भेजा गया कि उत्पत्ति और क़यामत से इंसान को अवगत कराया जाए ताकि इंसान परिपूर्णता का सफ़र तय करे और अल्लाह से ख़ुद को क़रीब करे।

अब आइए सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 4 से 6 तक की तिलावत सुनते हैं,

مَا يُجَادِلُ فِي آَيَاتِ اللَّهِ إِلَّا الَّذِينَ كَفَرُوا فَلَا يَغْرُرْكَ تَقَلُّبُهُمْ فِي الْبِلَادِ (4) كَذَّبَتْ قَبْلَهُمْ قَوْمُ نُوحٍ وَالْأَحْزَابُ مِنْ بَعْدِهِمْ وَهَمَّتْ كُلُّ أُمَّةٍ بِرَسُولِهِمْ لِيَأْخُذُوهُ وَجَادَلُوا بِالْبَاطِلِ لِيُدْحِضُوا بِهِ الْحَقَّ فَأَخَذْتُهُمْ فَكَيْفَ كَانَ عِقَابِ (5) وَكَذَلِكَ حَقَّتْ كَلِمَةُ رَبِّكَ عَلَى الَّذِينَ كَفَرُوا أَنَّهُمْ أَصْحَابُ النَّارِ (6)

इन आयतों का अनुवाद हैः

ख़ुदा की आयतों में बस वही लोग झगड़े पैदा करते हैं जो काफिर हैं तो (ऐ रसूल) उन लोगों का शहरों (शहरों) घूमना फिरना और माल हासिल करना [40:4] तुम्हें इस धोखे में न डाले (कि उन पर आज़ाब न होगा) इन के पहले नूह की क़ौम ने और उन के बाद और उम्मतों ने (अपने पैग़म्बरों को) झुठलाया और हर उम्मत ने अपने पैग़म्बरों के बारे में यही ठान लिया कि उन्हें गिरफ़तार कर (के क़त्ल कर डालें) और बेहूदा बातों की आड़ पकड़ कर लड़ने लगें - ताकि उसके ज़रिए से हक़ बात को उखाड़ फेंकें तो मैंने, उन्हें गिरफ़तार कर दिया फिर देखा कि उन पर (मेरा अज़ाब कैसा (सख़्त हुआ) [40:5] और इसी तरह तुम्हारे परवरदिगार का अज़ाब का हुक्म (उन) काफ़िरों पर पूरा हो चुका है कि यह लोग यक़ीनन जहन्नमी हैं। [40:6]

यह आयतें पैग़म्बरे इस्लाम, इस्लाम के शुरुआती दौर के मुसलमानों और बाद की नस्लों को दिलासा देती हैं कि अगर कुछ लोग तुम्हारे दीन के ख़िलाफ़ खड़े होते हैं हक़ से लड़ने और उसे मिटा देने की कोशिश करते हैं तो तुम मायूसी और नाउम्मीदी का शिकार न हो। क्योंकि इतिहास में ऐसा होता रहा है कि काफ़िरों और विरोधियों ने अल्लाह के भेजे गए दीन के मानने वालों ही नहीं बल्कि ख़ुद पैग़म्बरों से लड़ाई की, उनके ख़िलाफ़ साज़िश की ताकि उन्हें सत्य के रास्ते से हटा दें।

आज भी हम देख रहे हैं कि ज़ालिम और साम्राज्यवादी ताक़तें कान्फ़्रेंसें करवाकर राजनैतिक मुलाक़ातों के ज़रिए, सैन्य अभ्यास के ज़रिए और आपस में गठजोड़ बनाकर शक्ति प्रदर्शन करती हैं और दुनिया की क़ौमों को डराने की कोशिश करती हैं। लेकिन मोमिन बंदों को ख़याल  रखना चाहिए कि दुश्मनों की इस ताक़त की नुमाइश से प्रभावित न हों और उनकी ज़ाहिरी ताक़त के झांसे में न आएं।

इतिहास में इस तरह के बहुत सारे लोग गुज़रे हैं और यह भी पता चला कि अल्लाह के अज़ाब के सामने यह लोग कितने कमज़ोर और बेबस हैं। निःसंदेह आख़िर में विजय हक़ की होती है वे दरअस्ल अपने गुनाहों से दुनिया और आख़ेरत में अल्लाह का सख़्त अज़ाब मोल लेते हैं।

इन आयतों से हमने सीखाः

सत्य और हक़ से लड़ाई और विरोध की वजह कुफ़्र है। हमें ख़याल रखना चाहिए कि कभी भी हक़ के ख़िलाफ़ न खड़े हों और दुनयावी लोभ में पड़कर हक़ से लड़ने की ग़लती न करें।

हमें यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि सब ईमान लाएंगे और दुसरों का कुफ़्र और इंकार देखकर हमारा मनोबल नहीं गिरना चाहिए।

हक़ को कमज़ोर करने के लिए और मुसलमानों को डराने के लिए कुफ़्र की दुनिया के सरग़ना उकसावे की कार्यवाहियां करते हैं लेकिन ईमान वालों के लिए ज़रूरी होता है कि हंगामें और शोर शराबे से प्रभावित न हों। उन्हें ख़याल रखना चाहिए कि उनकी साज़िशों के धोखे में न आएं बल्कि अपनी जगह पर मज़बूती से डटे रहें।

हक़ के विरोधी समूह अल्लाह के रसूलों को झुठलाते हैं और उनके ख़िलाफ़ साज़िशें करते हैं। वे अलग अलग तरीक़ों से हक़ के ख़िलाफ़ प्रचार करते हैं ताकि उसे कमज़ोर करें। अल्लाह की एक परम्परा सरकश काफ़िरों को सज़ा देना है। अलबत्ता सज़ा भी न्याय के साथ ही दी जाती है।

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