Jan १९, २०२४ १९:५७ Asia/Kolkata

सूरा ग़ाफ़िर आयतें 82-85

आइए पहले सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 82 की तिलावत सुनते हैं,

أَفَلَمْ يَسِيرُوا فِي الْأَرْضِ فَيَنْظُرُوا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الَّذِينَ مِنْ قَبْلِهِمْ كَانُوا أَكْثَرَ مِنْهُمْ وَأَشَدَّ قُوَّةً وَآَثَارًا فِي الْأَرْضِ فَمَا أَغْنَى عَنْهُمْ مَا كَانُوا يَكْسِبُونَ (82)

इस आयत का अनुवाद हैः

तो क्या ये लोग ज़मीन पर चले फिरे नहीं, कि देखते कि जो लोग इनसे पहले थे उनका क्या अंजाम हुआ, जो उनसे (तादाद में) कहीं ज़्यादा थे और शक्ति और ज़मीन पर (अपनी) निशानियाँ (और यादगारें) छोड़ने में भी कहीं बढ़ चढ़ कर थे तो जो कुछ उन लोगों ने किया कराया था उनके कुछ भी काम न आया। [40:82]

मानव इतिहास का दो रूपों में अध्ययन किया जा सकता है। एक तो इतिहास की किताबें पढ़कर जिनमें अतीत के अलग अलग दौर में घटी घटनाओं और उपजने वाले हालात का ब्योरा मौजूद है और दूसरा रूप पिछली सभ्यताओं के अवशेषों का मुआइना करके जो दुनिया के अलग अलग स्थानों पर मौजूद हैं।

क़ुरआन इस आयत में ज़ालिमों को संबोधित करते हुए कहता है कि अगर अपना अंजाम देखना चाहते हो तो काफ़ी है कि ज़मीन पर टहल लो और देखो कि इतिहास में अत्याचारियों का क्या अंजाम हुआ है? वो ताक़तें ध्वस्त होकर रह गईं। उनके महल खंडहर बन गए और उनकी सेनाओं के अनगिनत सिपाही पतझड़ में सूख जाने वाले पत्तों की तरह बिखर गए। क्या मिस्र के फ़िरऔन की बड़ी सेना उसे और उसके सैनिकों को नील नदी में डूबने से बचा सकी? क्या पिछली क़ौमों की पहाड़ों के बीच बनी मज़बूत और भव्य इमारतें और उनके ऊंचे ऊंचे मज़बूत दुर्ग उनके भीतर बसने वालों को अल्लाह के इरादे के सामने सुरक्षित रख पाए?

इस आयत से हमने सीखाः

इतिहास का अध्ययन चाहे किताबें पढ़कर हो या जगह जगह मौजूद अवशेषों को देखकर हो, कुरआन ने इस पर ख़ास ताकीद की है।

ताक़त और उपलब्ध संसाधनों पर ग़ुरूर करना और अल्लाह के इरादे को ललकारना वह ख़तरा है जो हमेशा ज़ालिमों के सिर पर तलवार की तरह लटकता रहता है।

मानव सभ्यताओं के पतन की एक वजह अल्लाह के पैग़म्बरों के ज़रिए लाई गई शिक्षाओं से उनका टकराव रहा है।

ताक़त, बड़ी जनसंख्या और आधुनिक साधन अल्लाह के अज़ाब को नहीं रोक सकते।

अब आइए सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 83 की तिलावत सुनते हैं,

فَلَمَّا جَاءَتْهُمْ رُسُلُهُمْ بِالْبَيِّنَاتِ فَرِحُوا بِمَا عِنْدَهُمْ مِنَ الْعِلْمِ وَحَاقَ بِهِمْ مَا كَانُوا بِهِ يَسْتَهْزِئُونَ (83)

इस आयत का अनुवाद हैः

फिर जब उनके पैग़म्बर उनके पास स्पष्ट व रौशन चमत्कार ले कर आए तो जो इल्म (अपने ख़याल में) उनके पास था उस पर ख़ुश हुए और जिस (अज़ाब) की ये लोग हँसी उड़ाते थे उसी ने उनको चारों तरफ़ से घेर लिया। [40:83]  

पिछली आयत के ही क्रम में बात को आगे बढ़ाते हुए यह आयत कहती है कि इतिहास की ज़ालिम ताक़तें जिन्हें अपनी शक्ति और सैनिकों की संख्या पर बड़ा घमंड था उनका संबंध उस समृद्ध सभ्यता से था जिसके बारे में उनका तसव्वुर यह था कि यह सभ्यता उन्हें अल्लाह के अज़ाब से बचा लेगी। इसलिए पैग़म्बरों के ज़रिए लाई गई शिक्षाओं का उन्होंने विरोध किया और वुजूद की शुरुआत और क़यामत के दिन के बारे में उनकी बातों का मज़ाक़ उड़ाया। वे अपने ज्ञान पर बड़ा नाज़ करते थे और धार्मिक आस्थाओं को बेबुनियाद और ख़ुराफ़ात मानते थे जो इंसान के ज्ञान के हिसाब से साबित करने योग्य नहीं हैं।

मगर दूसरी तरफ़ जब अल्लाह ने इरादा कर लिया तो वे अल्लाह के इस इरादे के सामने एक लम्हा भी टिक न सके। उनका सारा ज्ञान, शोध, शक्ति और संसाधन अल्लाह के प्रकोप की चपेट में आकर ख़त्म हो गया। दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि जिन चीज़ों को वे तुच्छ और बेअसर समझते थे उसी चीज़ ने उन्हें मिटा दिया।

दरअस्ल क़ुरआन की नज़र में इंसानों की गुमराही और तबाही की जड़ उनका घमंड है। यह घमंड मुमकिन है कि व्यापक वित्तीय संसाधनों की वजह से, समर्थकों और सैनिकों की बहुत अधिक संख्या की वजह से या ज्ञान हासिल हो जाने की वजह से पैदा हो। मौजूदा दौर में जब विज्ञान बहुत प्रगति कर चुका है तो इस प्रकार का घमंड विकसित समाजों में आसानी से देखा जा सकता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि हालिया शताब्दियों में धर्म को नकारने और नास्तिक बन जाने का रुजहान इसी विज्ञान से उपजे घमंड का नतीजा है जो कुछ वैज्ञानिकों के अंदर पैदा हो गया। उन्होंने प्रगति के कुछ रहस्यों की खोज कर ली और ज्ञान की दुनिया में कुछ नई खिड़कियां खोलने में कामयाब हो गए तो उन पर एसा घमंड छा गया कि उन्होंने धार्मिक मूल्यों और उसूलों का इंकार करना शुरू कर दिया। विज्ञान की वजह से पैदा होना वाला यह घमंड इतना बढ़ गया कि उन्होंने जीवन दायक ज्ञान और मालूमात को जो अल्लाह के संदेश से प्रवाहित होते हैं, नकारने और उनका मज़ाक़ उड़ाने लगे। उन्होंने दावा किया कि विज्ञान के विकसित होने का दौर आ जाने के बाद अब पैग़म्बरों की शिक्षाओं की कोई ज़रूरत नहीं है और अपने ख़याल में उन्होंने दीन और पैग़म्बरों की शिक्षाओं को अपने जीवन से बाहर निकाल दिया।

मगर यह बदमस्ती और ग़ुरूर ज़्यादा दिन नहीं रहा। बहुत से कारक एक दूसरे से मिलते गए और इस ग़लत धारणा का खंडन हो गया। पहले और दूसरे विश्व युद्ध ने साबित कर दिया कि इंसान की वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति ने इंसान की क़िस्मत नहीं सवांरी बल्कि उसे बड़ी भयानक खाई की कगार पर पहुंचा दिया जहां वो इससे पहले कभी नहीं पहुंचा था। इसी तरह कई प्रकार की नैतिक और सामाजिक बुराइयां फैलने लगीं, नरसंहार होने लगे, मनोवैज्ञानिक रोग फैलने लगे, हिंसा और एक दूसरे पर हमला बढ़ गया। तब इंसान को पता चला कि केवल विज्ञान के क्षेत्र में उसकी तरक़्क़ी से इंसान की ज़िंदगी संवर नहीं सकती बल्कि कुछ आयामों से उसकी समस्याएं बढ़ जाती हैं।

इस आयत से हमने सीखाः

पैग़म्बरों की बातें चमत्कार और ठोस तर्कों के साथ होती हैं जिन्हें हर वह इंसान जो सत्य की तलाश में है स्वीकार कर लेता है।

अगर इंसान को अपने सीमित ज्ञान पर घमंड होने लगे तो वह सत्य को स्वीकार करने से भागता है जबकि इंसान का विज्ञान और उसके अनुभव कभी भी अल्लाह की शिक्षाओं का स्थान नहीं ले सकते और उसे वहि से प्राप्त होने वाले ज्ञान और सबक़ से आवश्यकता मुक्त नहीं बना सकते।

अपने ज्ञान पर घमंड करने का एक बुरा नतीजा अल्लाह की शिक्षाओं का मज़ाक़ उड़ाना है। जो लोग इस जटिलता में फंस जाते हैं उन्हें लगता है कि अल्लाह के असीम ज्ञान का भी मुक़ाबला कर सकते हैं।

जो सभ्यताएं अल्लाह की शिक्षाओं के ख़िलाफ़ खड़ी हो गईं तबाही और बर्बादी उनका मुक़द्दर बनी।

अब आइए सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 84 और 85 की तिलावत सुनते हैं,

فَلَمَّا رَأَوْا بَأْسَنَا قَالُوا آَمَنَّا بِاللَّهِ وَحْدَهُ وَكَفَرْنَا بِمَا كُنَّا بِهِ مُشْرِكِينَ (84) فَلَمْ يَكُ يَنْفَعُهُمْ إِيمَانُهُمْ لَمَّا رَأَوْا بَأْسَنَا سُنَّةَ اللَّهِ الَّتِي قَدْ خَلَتْ فِي عِبَادِهِ وَخَسِرَ هُنَالِكَ الْكَافِرُونَ (85)

इन आयतों का अनुवाद हैः

तो जब इन लोगों ने हमारे अज़ाब को देख लिया तो कहने लगे, हम एक ख़ुदा पर ईमान लाए और जिस चीज़ को हम उसका शरीक बनाते थे हम अब उसको नहीं मानते। [40:84] तो जब उन लोगों ने हमारा अज़ाब आते देख लिया तो अब उनका ईमान लाना कुछ भी फ़ायदेमन्द नहीं हो सकता (ये) ख़ुदा की परम्परा है जो उसके बन्दों के बारे में (सदा से) चली आ रही है (कि अज़ाब देखने के बाद लाए गए ईमान को स्वीकार नहीं करता) और यहां पर काफ़िर लोग घाटे में रहे। [40:85]

यह आयतें जो सूरए ग़ाफ़िर की आख़िरी आयतें हैं उन लोगों का अंजाम बयान कर रही हैं जो घमंड और ख़ुदग़र्ज़ी की वजह से सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए और पैग़म्बरों की शिक्षाओं के ख़िलाफ़ खड़े हो गए। आयत कहती है कि यही मग़रूर लोग जब दुनिया में अल्लाह के अज़ाब से होने वाली तबाही देखते हैं और उसके सामने अपनी बेबसी को महसूस करते हैं तो अपने किए पर शर्मिंदा हो जाते हैं। अब वे कुफ़्र और शिर्क का रास्ता छोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं और कहते हैं कि हम तो अब अनन्य ख़ुदा पर ईमान लाए और अब तक माबूदों को ख़ुदा मानते थे उनका इंकार करते हैं।

ज़ाहिर है कि यह ईमान डर की वजह से है जिसकी कोई क़ीमत नहीं है।

मिसाल के तौर पर हज़रत मूसा और फ़िरऔन के वाक़ए के संदर्भ में क़ुरआन बयान करता है कि फ़िरऔन जब डूबने लगा तो अल्लाह पर ईमान लाया मगर उसका ईमान क़ुबूल नहीं किया गया। क्योंकि यह मजबूरी में ईमान लाना हुआ। फ़िरऔन के पास कोई दूसरा रास्ता बचा ही नहीं था। जबकि उस ईमान की क़ीमत होती है जो अपने चयन और अख़्तियार से लाया जाए और इंसान अपनी मर्ज़ी से दूसरे विकल्पों को छोड़ कर ईमान का चयन करे।

इन आयतों से हमने सीखाः

मग़रूर, सरकश और ज़िद्दी लोग जब तक अल्लाह का अज़ाब नहीं देखते ईमान लाने पर तैयार नहीं होते लेकिन उनके इस ईमान की कोई क़ीमत नहीं होती।

ईमान की क़ीमत तब है जब अख़्तियार की हालत में लाया जाए। डर और मजबूरी की वजह से अगर कोई ईमान लाए तो इसका कोई महत्व नहीं है। मजबूरी में लाया गया ईमान कारसाज़ नहीं है।

ज़िंदगी का सबसे बड़ा घाटा यह है कि इंसान कुफ़्र और शिर्क की हालत में मर जाए।

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