Jan १९, २०२४ १९:५१ Asia/Kolkata

सूरा ग़ाफ़िर आयतें 69-76

आइए पहले सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 69 से 72 तक की तिलावत सुनते हैं,

أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ يُجَادِلُونَ فِي آَيَاتِ اللَّهِ أَنَّى يُصْرَفُونَ (69) الَّذِينَ كَذَّبُوا بِالْكِتَابِ وَبِمَا أَرْسَلْنَا بِهِ رُسُلَنَا فَسَوْفَ يَعْلَمُونَ (70) إِذِ الْأَغْلَالُ فِي أَعْنَاقِهِمْ وَالسَّلَاسِلُ يُسْحَبُونَ (71) فِي الْحَمِيمِ ثُمَّ فِي النَّارِ يُسْجَرُونَ (72)

इन आयतों का अनुवाद हैः

(ऐ रसूल) क्या तुमने उन लोगों (की हालत) पर ग़ौर नहीं किया जो ख़ुदा की आयतों में विवाद निकाला करते हैं। [40:69] ये कहाँ भटके चले जा रहे हैं, जिन लोगों ने किताबे (ख़ुदा) और उन बातों को जो हमने पैग़म्बरों को देकर भेजा था झुठलाया तो बहुत जल्द उसका नतीजा उन्हें मालूम हो जाएगा। [40:70] जब (भारी भारी) तौक़ और ज़ंजीरें उनकी गर्दनों में होंगी (और पहले) खौलते हुए पानी में घसीटे जाएँगे। [40:71] फिर (जहन्नुम की) आग में झोंक दिए जाएँगे। [40:72]

यह आयतें उन लोगों के बारे में हैं जो पैग़म्बरों और आसमानी ग्रंथों के तर्क स्वीकार करने पर तैयार नहीं होते और हमेशा इस कोशिश में रहते हैं सत्य और हक़ के ख़िलाफ़ बग़ावत करें। स्वाभाविक है कि जब इंसान हक़ के ख़िलाफ़ लड़ता झगड़ता रहेगा तो सीधे रास्ते से भटककर ग़लत रास्ते पर चला जाएगा और नतीजे में गुमराही के अलावा उसके हाथ कुछ नहीं लगेगा।

हक़ के ख़िलाफ़ बग़ावत का इतिहास देख लिया जाए तो जो वजहें नज़र आती हैं उनमें एक है पूर्वजों का अंधा अनुसरण और उनके द्वारा मिली आस्था पर आंख बंद करके अड़ जाना। जबकि पैग़म्बरों और अल्लाह के दूतों से बेवजह दुश्मनी भी इसका कारण रही है। इस तरह के लोग हक़ बात को तलाश करने और उसे स्वीकार करने के बजाए हर उस चीज़ के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल देते हैं जो उन्हें पसंद नहीं आती।

अगर कोई वाक़ई हक़ की तलाश में हो मगर हक़ तक न पहुंच पाए तो वह अल्लाह की नज़र में माफ़ी के लायक़ है। लेकिन अगर एक इंसान हक़ को समझ चुका है मगर फिर भी उसका विरोध और इंकार कर रहा है तो बहुत कड़ी सज़ा का सामना करने के लिए उसे तैयार हो जाना चाहिए। क्योंकि वह इंसानियत के दायरे से निकल गया है और उसने अपनी अक़्ल पर पर्दा डाल दिया जो उसे जनवरों से श्रेष्ठ बनाती है।

अलबत्ता दुनिया में कुफ़्र और शिर्क की सज़ा नहीं दी जाती  ताकि लोगों को ईमान का रास्ता चुनने पर मजबूर न होना पड़े यानी लोग मजबूर होकर ईमान का रास्ता न चुनें बल्कि अपनी इच्छा और अख़तियार से इसका चयन करें। अब इस स्थिति में इंसान जिस रास्ते का चयन करता है या जो कर्म करता है उसका नतीजा तो उसे ज़रूर मिलेगा। इसीलिए अगर इंसान अल्लाह की ओर से तय किए हुए रास्ते का विरोध करता है और ज़िद पर अड़कर कुफ़्र का रास्ता चुनता है तो उसका अंजाम जहन्नम की गहराई है।

इन आयतों से हमने सीखाः

बीते ज़माने में पैग़म्बरों के ख़िलाफ़ बगावत करके गुमराह हो जाने वाली क़ौमों का इतिहास पढ़ना क़ुरआन की सिफ़ारिशों में से एक है।

हक़ के ख़िलाफ़ लड़ना ख़तरनाक है, यह बहुत बुरा है कि इंसान हक़ को समझ जाने के बाद भी उसके ख़िलाफ़ काम करे।

जहन्नम के अलग अलग अज़ाब के बारे में मौजूद ज़िक्र इंसानों को ख़बरदार करने के लिए है कि अपनी हर हरकत पर नज़र रखें, कहीं इस भूल में न पड़ जाएं कि दुनिया में उनके कर्मों का आख़ेरत में हिसाब नहीं लिया जाएगा।

दुनिया में काफ़िरों का घमंड क़यामत में उनकी रुसवाई का सबब बनेगा।

अब आइए सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 73 और 74 की तिलावत सुनते हैं,

 

ثُمَّ قِيلَ لَهُمْ أَيْنَ مَا كُنْتُمْ تُشْرِكُونَ (73) مِنْ دُونِ اللَّهِ قَالُوا ضَلُّوا عَنَّا بَلْ لَمْ نَكُنْ نَدْعُو مِنْ قَبْلُ شَيْئًا كَذَلِكَ يُضِلُّ اللَّهُ الْكَافِرِينَ (74)

इन आयतों का अनुवाद हैः

फिर उनसे पूछा जाएगा कि ख़ुदा के सिवा जिनको (उसका) शरीक बनाते थे [40:73] (इस वक्त) क़हाँ हैं वो कहेंगे अब तो वे हमसे जाते रहे बल्कि (सच यूँ है कि) हम तो पहले ही से (ख़ुदा के सिवा) किसी चीज़ की इबादत नहीं करते थे, यूँ ख़ुदा काफिरों को बौखला देगा। [40:74]

पिछली आयतों में क़यामत के दिन काफ़िरों को मिलने वाली सज़ा की बात की गई। अब इसके आगे इन आयतों में यह कहा गया है कि जहन्नम के आग में डाले जाने के बाद जहां से काफ़िरों और मुशरिकों को बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलेगा, उनसे उन चीज़ों के बारे में पूछा जाएगा जिसकी वे अल्लाह को छोड़कर इबादत करते थे या उनको कायनात के संचालन में अल्लाह का शरीक समझते थे। पूछा जाएगा कि वे चीज़ें या लोग कहां हैं? वे पूज्य जिनके बारे में तुम समझते थे कि तुम्हारी मदद करेंगे और तुम्हें जहन्नम की आग से बचा लेंगे तुम्हारी मदद के लिए नहीं आएंगे?!

वे लोग शर्मिंदगी और बेबसी के साथ जवाब देंगे कि जिन लोगों की हम इबादत करते थे वे मिट गए या हमारी तरह वे भी जहन्नम की आग में डाले गए हैं। उनका कोई अता पता नहीं है लगता है कि वे नीस्तो नाबूद हो गए। हालांकि हम इसीलिए उनकी इबादत करते थे कि आज के दिन वे हमारी सिफ़ारिश करेंगे और हमारे मददगार बनेंगे। जब यह नहीं हुआ तो फिर यही समझना चाहिए कि हमने मानो उनकी इबादत ही नहीं की और वे इबादत के क़ाबिल थे भी नहीं। अब हमें पता चल गया कि वे छलावा से ज़्यादा कुछ नहीं थे और हम उन्हें ठोस हक़ीक़त समझते थे।

हालांकि क़यामत के दिन यह इक़रार या इंकार उन्हें कोई फ़ायदा नहीं पहुंचाएगा क्योंकि कुफ़्र और शिर्क के नतीजे में वे गुमराह हो चुके और उनका अंजाम जहन्नम की आग है।

इन आयतों से हमने सीखाः

क़यामत का दिन हक़ीक़तों के सामने आने का दिन है, उस दिन काफ़िर और मुशरिक को अपनी गुमराही का पता चलेगा।

गुनाह का इक़रार या इंकार करने का क़यामत की अदालत में कोई असर नहीं होगा। क्योंकि अल्लाह को लोगों की हक़ीक़त का इल्म है और उसी के आधार पर फ़ैसला करेगा।

हिदायत या गुमराही उस रास्ते का नतीजा है जिसे इंसान ने चुना है यह उसके अमल का नतीजा है।

आइए अब सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 75 और 76 की तिलावत सुनते हैं,

ذَلِكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَفْرَحُونَ فِي الْأَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ وَبِمَا كُنْتُمْ تَمْرَحُونَ (75) ادْخُلُوا أَبْوَابَ جَهَنَّمَ خَالِدِينَ فِيهَا فَبِئْسَ مَثْوَى الْمُتَكَبِّرِينَ (76)

इन आयतों का अनुवाद हैः

(कि कुछ समझ में न आएगा) ये उसकी सज़ा है कि तुम दुनिया में नाहक़ (बात पर) निहाल थे और इसकी सज़ा है कि तुम इतराया करते थे। [40:75] अब जहन्नुम के दरवाज़े में दाख़िल हो जाओ (और) हमेशा उसी में (पड़े) रहो, तकब्बुर करने वालों का भी (क्या) बुरा ठिकाना है। [40:76]

यह आयतें इस समूह के मुसीबतों में पड़ने की वजह बयान करती हैं कि जो लोग दुनिया में अल्लाह और क़यामत का इंकार करते थे, अपनी इच्छाओं के बहाव में बह जाते थे और नशे में चूर और गुनाहों में डूबे हुए थे। मज़लूमों और कमज़ोरों को दबाकर आनंद लेते थे, गुनाह करके बहुत ख़ुश होते थे। वे अपने इन गुनाहों और गुमराही के नतीजे में अल्लाह से बहुत दूर हो गए यही नहीं तथ्यों और हक़ीक़तो को समझने की क्षमता भी खो बैठे। मगर आज क़यामत का दिन है और वे सब हाज़िर किए गए हैं। हक़ के ख़िलाफ़ बग़ावत ने आज उन्हें इस रुसवाई में डाला है और उन्हें अपने सारे पापों और मनमानियों का हिसाब देना पड़ रहा है।

इन आयतों से हमने सीखाः

इस्लाम ख़ुशी मनाने और सैर व तफ़रीह के ख़िलाफ़ नहीं है। इस्लाम केवल उस ख़ुशी और तफ़रीह के ख़िलाफ है जिसके साथ गुनाह जुड़ा हुआ है।

काफ़िरों की आज की ख़ुशी और उत्साह क़यामत में उन्हें रुसवाई और पीड़ा में गिरफ़तार करने वाला है।

ख़ुशियां मनाने और तफ़रीह करने का फ़ैसला ही हलाल व हराम, हक़ और नाहक़ की कसौटी के हिसाब से किया जाएगा। लाउबालीपन, इच्छाओं के बहाव में बह कर गुनाह करना, दूसरों का हक़ मारना, कमज़ोरों की तौहीन करना, उनका मज़ाक़ उड़ाना यह सब अल्लाह की नाफ़रमानी करने और गुनाह के दायरे में आता है।

 

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