क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-924
सूरए ज़ुख़रुफ़, आयतें 63-69
आइए पहले सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 63 और 64 की तिलावत सुनते हैं,
وَلَمَّا جَاءَ عِيسَى بِالْبَيِّنَاتِ قَالَ قَدْ جِئْتُكُمْ بِالْحِكْمَةِ وَلِأُبَيِّنَ لَكُمْ بَعْضَ الَّذِي تَخْتَلِفُونَ فِيهِ فَاتَّقُوا اللَّهَ وَأَطِيعُونِ (63) إِنَّ اللَّهَ هُوَ رَبِّي وَرَبُّكُمْ فَاعْبُدُوهُ هَذَا صِرَاطٌ مُسْتَقِيمٌ (64)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और जब ईसा रौशन चमत्कार लेकर आये तो (लोगों से) कहा मैं तुम्हारे पास विवेक (की किताब) लेकर आया हूँ ताकि कुछ बातें जिन में तुम लोग इख़तेलाफ़ करते थे तुमको साफ़-साफ़ बता दूँ तो तुम लोग ख़ुदा से डरो और मेरा कहा मानो। [43:63] बेशक ख़ुदा ही मेरा और तुम्हारा परवरदिगार है तो उसी की इबादत करो यही सीधा रास्ता है। [43:64]
पिछले कार्यक्रम में हज़रत ईसा के बारे में ईसाइयों के भ्रमित नज़रिए का ज़िक्र हुआ कि वे हज़रत ईसा को अल्लाह का बेटा मानते हुए उनकी इबादत करते हैं। यह आयतें हज़रत ईसा के पैग़ाम की विषयवस्तु को बयान करते हुए कहती हैं कि हज़रत ईसा भी दूसरे पैग़म्बरों की तरह चमत्कार लेकर आए थे जो उनकी सच्चाई और उनके दावे के सही होने का सुबूत बनें।
वो लोगों को सूझबूझ और विवेक से काम लेने की दावत देते थे यानी सही आस्थाओं को तार्किक बयान में पेश करते थे ताकि सब समझ सकें और स्वीकार करें और सोच और आस्था में ख़ुद को गुमराह होने से बचाएं। अलबत्ता विवेक का ताल्लुक़ कर्म से भी होता है और इससे इंसान शिष्टाचारी भी बनता है और ख़ुद को बुराइयों से दूर और अच्छे आचरण से सुसज्जित करता है।
ज़ाहिर है कि लोगों के बीच मतभेद और अलग अलग विषयों के बारे में भी विवेक और सूझबूझ के आधार पर फ़ैसला किया जा सकता है और सही व तार्किक राय पेश की जा सकती है।
आगे चलकर यह आयतें बताती हैं कि हज़रत ईसा इस बात का खंडन करने के लिए कि वे माबूद और पूज्य हैं साफ़ शब्दों में कहते हैं कि ख़ुदा ही मेरा परवरदिगार और तुम्हारा परवरदिगार है। हज़रत मूसा इस वाक्य से साफ़ कर देते हैं कि हम और आप एक समान हैं और हम सब का ख़ुदा एक है। मैं भी तुम्हारे समान इंसान हूं, ज़ाहिरी रूप में मैं तुम्हारे जैसा हूं मुझे भी पैदा करने वाले ख़ालिक़ और हिदायत करने वाले अल्लाह की ज़रूरत है। वही सबका परवरदिगार है, उसी की इबादत करो, उसके अलावा कोई भी पूज्य और माबूद नहीं है। हज़रत ईसा अपनी बात को इस तरह पूरा करते हैं कि सही और सीधा रास्ता वही अल्लाह की बंदगी और इबादत का रास्ता है वह रास्ता जिसमें कोई गुमराही और भटकाव नहीं है।
इन आयतों से हमने सीखाः
पैग़म्बरों का पैग़ाम स्पष्ट तर्कों और विवेक पर आधारित होता है ताकि आम लोग अपनी बुद्धि से समझ लें कि यह बात सही है इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है और इसे स्वीकार कर लेना चाहिए।
धार्मिक और सामाजिक मतभेदों को दूर करने का रास्ता अल्लाह के पैग़म्बरों की शिक्षाओं पर ध्यान केन्द्रित करना और व्यक्तिगत व किसी गुट विशेष के रुजहान से प्रभावित होने से ख़ुद को बचाना है।
हज़रत ईसा का सबसे अस्ली संदेश इंसानों को एक अल्लाह की इबादत की दावत देना है। इबादत उसी की हो सकती है जिसके हाथ में कायनात का संचालन है। अल्लाह के अलावा किसी की भी इबादत सही रास्ते से भटक जाना है। तो उसके अलावा कोई भी इबादत के योग्य नहीं चाहे वो पैग़म्बगर ही क्यों न हों और उनका जन्म चमत्कार के रूप में ही क्यों न हुआ हो।
आइए अब सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 65 से 67 तक की तिलावत सुनते हैं,
فَاخْتَلَفَ الْأَحْزَابُ مِنْ بَيْنِهِمْ فَوَيْلٌ لِلَّذِينَ ظَلَمُوا مِنْ عَذَابِ يَوْمٍ أَلِيمٍ (65) هَلْ يَنْظُرُونَ إِلَّا السَّاعَةَ أَنْ تَأْتِيَهُمْ بَغْتَةً وَهُمْ لَا يَشْعُرُونَ (66) الْأَخِلَّاءُ يَوْمَئِذٍ بَعْضُهُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ إِلَّا الْمُتَّقِينَ (67)
इन आयतों का अनुवाद हैः
तो इनमें से कई फिरक़े उनसे इख़तेलाफ़ करने लगे तो जिन लोगों ने ज़ुल्म किया, उन पर दर्दनाक दिन के अज़ब का अफ़सोस है। [43:65] क्या ये लोग क़यामत के अलावा किसी चीज़ के मुनतज़िर बैठे हैं जो अचानक ही उन पर आ जाएगी और उन को ख़बर तक न होगी। [43:66] दोस्त इस दिन एक दूसरे के दुशमन होगें सिवाय परहेज़गारों के। [43:67]
हज़रत ईसा बनी इस्राईल क़ौम के बीच पैग़म्बर बनाकर भेजे गए। लेकिन बनी इस्राईल में से एक समूह ने उन्हें झूठा कहा और उनकी पैग़म्बरी को मानने से इंकार कर दिया। दूसरी तरफ़ एक समूह उनके बारे में अतिशयोक्ति में हद से बढ़ गया। वो हज़रत ईसा को पैग़म्बरी से भी ऊपर ले गया और उन्हें ख़ुदा मानने लगा उन्हें माबूद क़रार देने लगा कि वो तो आसमान से ज़मीन पर इंसान के अवतार में आ गया है और शरीर ग्रहण कर लिया है। कुछ लोगों ने उन्हें तीन ख़ुदाओं में से एक ख़ुदा कहना शुरू कर दिया। आख़िरकार यह हुआ कि तीन ख़ुदा का अक़ीदा ईसाइयत में फैल गया। आज भी हम देखते हैं कि ईसाई अधिकतर तीन ख़ुदा को मानते हैं।
हज़रत ईसा के बारे में यह असंतुलित सोच तब पैदा हो गई जब ख़ुद हज़रत ईसा अपनी ज़बान से कहते थे कि मैं अल्लाह का बंदा हूं और लोगों से कहते थे कि सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करो जो अनन्य है। आयत के शब्दों में वो कहते हैं कि धिक्कार है उन पर जिन्होंने ज़ुल्म किया और सीधे रास्ते से भटक गए। उन्होंने पैग़म्बरी पर ज़ुल्म किया और क़यामत के दिन जहन्नम में डाले जाएंगे।
अल्लाह के पैग़म्बर के बारे में यह ग़लत बातें करके वे लोग अब किस चीज़ की प्रतीक्षा में हैं? क्या अचानक आ पहुंचने वाले और उन्हें दबोच लेने वाली क़यामत के अलावा किसी और चीज़ का इंतेज़ार कर रहे हैं? हां मौत और क़यामत अचानक इंसान को इस तरह आ लेंगे कि वो बिल्कुल तैयार न होगा और इस बारे में सोच भी नहीं रहा होगा।
इन आयतों से ज़ाहिर होता है कि क़यामत का कठिन और कुचल कर रख देने वाले वाक़ए में दो ख़ासियतें होंगी एक तो अचानक आएगा और दूसरे यह कि लोग उसके लिए तैयार न होंगे।
आयतों में आगे क़यामत के हालात बयान करते हुए कहा गया है कि उस दिन अल्लाह से जो राबेता होता है उसे छोड़कर सारे रिश्ते नाते टूट जाएंगे। दोस्त और भागीदार जो गुनाह और बुराई के मार्ग में एक दूसरे के दोस्त थे वे एक दूसरे के दुश्मन बन जाएंगे। हर कोई दूसरे को अपनी गुमराही का दोषी ज़ाहिर करेगा और उससे कहेगा कि मुझे तुम्हीं ने ग़लत रास्ते पर डाला, मेरी नज़र में दुनिया को सुंदर बनाकर पेश किया तुम्हारे साथ और दोस्ती की वजह से आज मैं इस बुरे अंजाम में फंसा हूं।
केवल वही लोग जिनकी दुनिया में दोस्ती और दुश्मनी इलाही मूल्यों के आधार पर होगी क़यामत में उनकी दोस्ती बाक़ी रहेगी उनके बीच दुश्मनी पैदा नहीं होगी। चूंकि परहेज़गारों की दोस्ती अमर मूल्यों और कसौटियों पर टिकी होती है इसलिए यह दोस्ती बाक़ी रहती है। बेशक क़यामत के दिन इस दोस्ती का फल सामने आएगा।
इन आयतों से हमने सीखाः
क़यामत अचानक आएगी, मगर कब आएगी यह किसी को नहीं यहां तक कि पैग़म्बरों को भी नहीं पता है। इसका इल्म केवल ख़ुदा को है।
दुनिया के रिश्ते नाते अगर इलाही पैमानों पर आधारित नहीं हैं तो क़यामत के दिन दुश्मनी में बदल जाएंगे।
ईमान वालों से दोस्ती स्थायी और अटूट होती है। दूसरों से की जाने वाली दोस्ती इससे अलग है वो स्थायी नहीं होती और उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
आइए पहले सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 68 और 69 की तिलावत सुनते हैं,
يَا عِبَادِ لَا خَوْفٌ عَلَيْكُمُ الْيَوْمَ وَلَا أَنْتُمْ تَحْزَنُونَ (68) الَّذِينَ آَمَنُوا بِآَيَاتِنَا وَكَانُوا مُسْلِمِينَ (69)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और ख़ुदा उनसे कहेगा ऐ मेरे बन्दो! आज न तो तुमको कोई ख़ौफ़ है और न तुम ग़मग़ीन होगे। [43:68] )यह) वो लोग हैं जो हमारी आयतों पर ईमान लाए और (हमारे) फ़रमां बरदार थे। [43:69]
दुनिया में अक़ीदे और ईमान में मज़बूत थे और अमल में भी पूरी तरह अल्लाह की बारगाह में समर्पित रहते थे। उन्होंने कभी भी अल्लाह की आयतों पर शक नहीं किया और कभी भी इच्छाओं के बहाव में नहीं बहे। इन लोगों को अल्लाह की तरफ़ से बशारत दी जाती है कि क़यामत में उनके लिए कोई ख़ौफ़ नहीं है। अतीत के बारे में उन्हें कोई ग़म और भविष्य के बारे में कोई चिंता नहीं होगी। यह कितना सुंदर पैग़ाम है?! यह अल्लाह की तरफ़ से सीधा पैग़ाम है जो अतीत के बारे में हर ग़म और भविष्य के बारे में हर आशंका को दूर कर देता है।
बेशक जो इंसान हमेशा अपने फ़र्ज़ को पूरा करने की फ़िक्र में रहता है अगर वो नतीजा हासिल न कर सका तब भी उसे शिकस्त और बेचैनी नहीं होती और न ही ख़ौफ़ और व्याकुलता उसे परेशान करती है। उसे अल्लाह के करम की आस होती है और वो ख़ुद को अल्लाह के हवाले कर देता है।
इन आयतों से हमने सीखाः
वास्तविक शांति हासिल करने और क़यामत के भयानक हालात के ख़ौफ़ व परेशानी से ख़ुद को सुरक्षित करने का तरीक़ा अल्लाह की बंदगी और उसकी बारगाह में ख़ुद को समर्पित कर देना है।
केवल ईमान काफ़ी नहीं है अमल भी ज़रूरी है, अल्लाह के फ़रमान के आगे समर्पित हो जाना चाहिए।