क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-931
सूरए दुख़ान ,आयतें 28-36
आइए सबसे पहले सूरए दुख़ान की आयत संख्या 28 और 29 की तिलावत सुनते हैं,
كَذَلِكَ وَأَوْرَثْنَاهَا قَوْمًا آَخَرِينَ (28) فَمَا بَكَتْ عَلَيْهِمُ السَّمَاءُ وَالْأَرْضُ وَمَا كَانُوا مُنْظَرِينَ (29)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(माजरा) ऐसा था और हमने उन तमाम चीज़ों का दूसरे लोगों को वारिस बना दिया। [44:28] तो उन लोगों पर आसमान व ज़मीन को भी रोना न आया और न उन्हें मोहलत ही दी गयी। [44:29]
फ़िरऔन की क़ौम के अंत के बारे में यह आयतें कहती हैं कि नील नदी में फ़िरऔन को मानने वालों के डूब जाने के बाद उन्होंने जो कुछ छोड़ा था उसकी मालिक बनी इस्राईल क़ौम बन गई और बिना किसी मेहनत के सारी धन सम्पत्ति उसे हासिल हो गई। इसी तरह सूरए शोअरा में आया है कि बनी इस्राईल का एक समूह फ़िरऔनियों के डूब जाने और उसकी हुकूमत की बुनियादें ध्वस्त हो जाने के बाद मिस्र की धरती पर वापस लौटा और फ़िरऔनों की सरज़मीन पर अपनी हुकूमत क़ायम कर ली।
आयत आगे जाकर इस बात पर ज़ोर देती है कि फ़िरऔन और उसकी क़ौम का अत्याचार इतना भयानक था कि जब वे इस दुनिया से मिट गए तो किसी को उनकी कमी और उनका चला जाना अखरा नहीं और किसी ने उन पर आंसू नहीं बहाया। आसमान व ज़मीन भी उनके मिट जाने से संतुष्ट हुए और उनके जाने का कोई ग़म नहीं हुआ।
इन आयतों से हमने सीखाः
ज़ालिम क़ौमों की बर्बादी अल्लाह की परम्पराओं में से एक है जो सबके लिए पाठ और इबरत है।
कायनात में एक प्रकार का एहसास पाया जाता है। इसीलिए केवल इंसान ही नहीं बल्कि भौतिक सृष्टि भी ज़ालिमों के मिट जाने पर राहत महसूस करती है।
अब आइए सूरए दुख़ान की आयत संख्या 30 से 33 तक की तिलावत सुनते हैं,
وَلَقَدْ نَجَّيْنَا بَنِي إِسْرَائِيلَ مِنَ الْعَذَابِ الْمُهِينِ (30) مِنْ فِرْعَوْنَ إِنَّهُ كَانَ عَالِيًا مِنَ الْمُسْرِفِينَ (31) وَلَقَدِ اخْتَرْنَاهُمْ عَلَى عِلْمٍ عَلَى الْعَالَمِينَ (32) وَآَتَيْنَاهُمْ مِنَ الْآَيَاتِ مَا فِيهِ بَلَاءٌ مُبِينٌ (33)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और हमने बनी इस्राईल को ज़िल्लत के अज़ाब से फ़िरऔन (के चंगुल) से नजात दी। [44:30] वह बेशक सरकश और हद से बाहर निकल गया था। [44:31] और हमने बनी इस्राईल को समझ बूझ कर सारे जहान में चुनिंदा क़रार दिया था। [44:32] और हमने उनको ऐसी निशानियाँ दी थीं जिनमें (उनकी) खुली परीक्षा थी। [44:33]
हज़रत मूसा सरकश फ़िरऔन के मुक़ाबले में खड़े हो गए। फ़िरऔन ज़ालिम और ख़ूंख़ार शासक था और ख़ुद को दूसरों से बेहतर समझता था और हद से गुज़र जाने वाला व्यक्ति था। फ़िरऔन के लोग बनी इस्राईल क़ौम को बड़ी कठिनाइयों और यातनाओं में रखते थे। उनके नवजात शिशुओं के सिर काट देते थे और उनकी बच्चियों को ख़िदमत के लिए जीवित रहने देते थे। उन्होंने बनी इस्राईल को कड़े कामों के लिए इस्तेमाल किया और उनसे मुफ़्त सेवा लेते थे।
आख़िरकार अल्लाह ने मज़लूम बनी इस्राईल को हज़रत मूसा के इलाही आंदोलन के ज़रिए बेरहम और ख़ूंख़ार फ़िरऔन से मुक्ति दिलाई। बनी इस्राईल को फ़िरऔन और उसके लोगों से भी मुक्ति मिल गई साथ ही वे उनके धन दौलत सम्पत्ति और हुकूमत हर चीज़ के मालिक बन गए। इस तरह बनी इस्राईल बहुत विशाल धरती की मालिक एक ताक़तवर क़ौम बन गई।
ज़मीनों और धन-दौलत के साथ ही अल्लाह ने उन्हें दूसरी नेमतें भी प्रदान कीं जिनके ज़रिए उनका इम्तेहान लिया गया। आसमान से ख़ास दस्तरख़ानों का भेजा जाना, मन्न व सलवा जैसी नेमतें प्रदान किया जाना जिनका ज़िक्र सूरए बक़रह में किया गया है, या चट्टानों का सीना चाक हो जाना और उनके भीतर से शीतल पानी के सोते फूट पड़ना और वो भी एक दो नहीं बल्कि बनी इस्राईल की इच्छा के अनुसार 12 जलसोतों का बहना। यह सब नेमतें थीं जिनसे बनी इस्राईल की परीक्षा ली गई।
यह सारी नेमतें इम्तेहान के लिए दी गई थीं। क्योंकि अल्लाह की परम्परा है कि किसी समूह की परीक्षा मुसीबत और परेशानियां देकर लेता है और किसी समूह की परीक्षा नेमतों की भरमार करके लेता है। क़ुरआन की ज़बान में मुसीबत और नेमत दोनों ही चीज़ें इंसान के इम्तेहान का ज़रिया हैं। इस तरह बनी इस्राईल को दी जाने वाली दौलत और हुकूमत भी उनकी परीक्षा का ज़रिया थी। इसी तरह वह दौर भी उनकी परीक्षा के लिए था जब फ़िरऔन की हुकूमत का ज़माना था और बनी इस्राईल पर बहुत कड़े अत्याचार किए जाते थे। मगर बनी इस्राईल ने इस नेमत की क़द्र नहीं की और परीक्षा में नाकाम रहे।
इन आयतों से हमने सीखाः
जो लोग अल्लाह के पैग़म्बर की इताअत करते हैं और उनकी शिक्षाओं का पालन करते हैं वो ज़ालिमों के चंगुल से मुक्ति पा जाते हैं।
ख़ुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझना, सीमा से गुज़र जाना और अपने अधिकार से ज़्यादा हासिल करने की कोशिश करना फ़िरऔनी स्वभाव है जिसके व्यक्तित्व में इस प्रकार के रुजहान हों वो फ़िरऔन का एक रूप है।
क़ौमों की तबाही की एक वजह बुरी आदतें और बुरे कर्म हैं।
अल्लाह जो कुछ लोगों और समाजों को देता है वह उनकी परीक्षा का ज़रिया होता है, यह अल्लाह की बारगाह में उनके उच्च स्थान की निशानी नहीं है।
अब आइए सूरए दुख़ान की आयत संख्या 33 से 36 तक की तिलावत सुनते हैं,
إِنَّ هَؤُلَاءِ لَيَقُولُونَ (34) إِنْ هِيَ إِلَّا مَوْتَتُنَا الْأُولَى وَمَا نَحْنُ بِمُنْشَرِينَ (35) فَأْتُوا بِآَبَائِنَا إِنْ كُنْتُمْ صَادِقِينَ (36)
इन आयतों का अनुवाद हैः
ये (कुफ्फ़ारे मक्का) (मुसलमानों से) कहते हैं। [44:34] कि हमें तो सिर्फ़ एक बार मरना है और फिर हम दोबारा (ज़िन्दा करके) उठाए न जाएँगे। [44:35] तो अगर तुम सच्चे हो तो हमारे बाप दादाओं को (ज़िन्दा करके) ले आओ। [44:36]
फ़िरऔन और बनी इस्राईल की दास्तान पूरी हो जाने के बाद यह आयतें एक बार फिर मक्का के मुशरिकों के विषय की ओर पलटती हैं और क़यामत के इंकार के बारे में उनकी बातों को इस तरह बयान करती हैं कि वे कहते थे कि जीवन का अंत यही मौत है जिसे हम आए दिन देखते हैं। मौत के बाद और कुछ भी होने वाला नहीं है। दोबारा ज़िंदा होने और नई ज़िंदगी शुरू होने जैसी बातों का कोई अर्थ नहीं है। वे अपने इस अक़ीदे पर इतना अड़े रहते थे कि पैग़म्बरे इस्लाम से भी कहते थे अगर आप सच कहते हैं कि मुर्दों को जीवित किया जाएगा तो हमारे पूर्वजों को जो वर्षों पहले मर चुके हैं इसी दुनिया में जीवित कर दीजिए ताकि हम देखें और यक़ीन करें।
ज़ाहिर है कि क़यामत इसलिए है कि उस दिन इंसानों को उनके अच्छे कर्मों का इनाम और बुरे कर्मों का दंड दिया जाएगा। अल्लाह की परम्परा यह नहीं है कि इस दुनिया में मर जाने वाले इंसानों को पुनः जीवित करे। मगर मिसाल के तौर पर अगर इस तरह का कोई काम पैग़म्बर कर देते तो भी ज़िद्दी और अड़ियल लोग कोई न कोई और राग अलापना शुरू कर देते। उन्हें जादूगर कहते और उनकी बात की सत्यता को स्वीकार करने पर तैयार नहीं होते।
इन आयतों से हमने सीखाः
विरोधियों की सोच और विचारों को बयान करना और फिर उनका जवाब देना क़ुरआन की शैली है जिसका लक्ष्य मोमिन बंदों का ईमान मज़बूत करना है।
मौत के बाद की दुनिया का इंकार करना तर्क पर आधारित रुजहान नहीं है बल्कि यह बे दलील का दावा है जो पूरे इतिहास में काफ़िरों की तरफ़ से किया जाता रहा है।