क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1009
सूरे मुजादेला आयतें. 1 से 6
पिछले कार्यक्रम में सूरए हदीद की व्याख्या समाप्त होने के बाद, इस कार्यक्रम में हम सूरह मुजादिला की आयतों की सरल और सहज व्याख्या शुरू करेंगे। यह सूरा भी मदीना में उतरा है और इसमें 22 आयतें हैं, जो अधिकतर पारिवारिक मामलों और सामाजिक संबंधों पर चर्चा करती हैं। इस सूरे का नाम पहली आयत से लिया गया है, जिसमें एक महिला द्वारा पैग़म्बर से की गई बहस का वर्णन है।
पहले हम सूरए मुजादिला की आयत 1 और 2 की तिलावत सुनते हैं:
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ
قَدْ سَمِعَ اللَّهُ قَوْلَ الَّتِي تُجَادِلُكَ فِي زَوْجِهَا وَتَشْتَكِي إِلَى اللَّهِ وَاللَّهُ يَسْمَعُ تَحَاوُرَكُمَا إِنَّ اللَّهَ سَمِيعٌ بَصِيرٌ (1) الَّذِينَ يُظَاهِرُونَ مِنْكُمْ مِنْ نِسَائِهِمْ مَا هُنَّ أُمَّهَاتِهِمْ إِنْ أُمَّهَاتُهُمْ إِلَّا اللَّائِي وَلَدْنَهُمْ وَإِنَّهُمْ لَيَقُولُونَ مُنْكَرًا مِنَ الْقَوْلِ وَزُورًا وَإِنَّ اللَّهَ لَعَفُوٌّ غَفُورٌ (2)
इन आयतों का अनुवाद इस प्रकार है:
अल्लाह के नाम से, जो बड़ा कृपाशील और दयावान है.
बेशक अल्लाह ने उस स्त्री की बात सुन ली है जो अपने पति के बारे में तुमसे बहस करती है और अल्लाह से शिकायत करती है। अल्लाह तुम दोनों की बातचीत सुन रहा है। निश्चय ही अल्लाह सुनने वाला, देखने वाला है। [58:1] तुममें से जो लोग अपनी पत्नियों से 'ज़िहार' करते हैं (यानी उन्हें अपनी माँ के समान बताकर उन्हें अपने ऊपर हराम कर लेते हैं वो जान लें कि), वे उनकी माताएँ नहीं हैं। उनकी माताएँ तो केवल वे हैं जिन्होंने उन्हें जन्म दिया है। और वे निश्चय ही (जाहेलियत के दौर की आदत के मुताबिक़) एक घृणित और झूठी बात कहते हैं। निस्संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और माफ़ करने वाला है। [58:2]
इस्लाम से पहले अरबों की एक प्रथा यह थी कि जब कोई पुरुष अपनी पत्नी से बहुत नाराज़ हो जाता था, तो वह उससे कह देता था: "तू मेरे लिए मेरी माँ के समान है।" इस वाक्य को कहकर वह उसे अनुचित तरीक़े से तलाक़ दे देता था; एक ऐसा तरीक़ा जिससे महिला न तो किसी अन्य पुरुष से शादी कर पाती थी और न ही अपने पूर्व पति के साथ वैवाहिक जीवन जी सकती थी। इस प्रकार के तलाक़ को 'ज़िहार' कहा जाता था।
इस्लाम के प्रारंभिक काल में, मदीना के एक व्यक्ति ने ग़ुस्से में अपनी पत्नी से यह शब्द कह दिया, लेकिन कुछ समय बाद उसे अपनी बात पर पछतावा हुआ। उसकी पत्नी ने इस समस्या का हल निकालने के लिए रसूलुल्लाह के पास जाकर उनसे बात और बहस की। लेकिन पैग़म्बर ने फ़रमाया: जब तक अल्लाह की ओर से कोई आदेश नहीं आता, तुम अपने पति पर हराम हो।
उस महिला ने समस्या के समाधान के लिए अल्लाह की शरण ली और उससे फ़रियाद की। जल्द ही ये आयतें नाज़िल हुईं, जिनमें कहा गया: पत्नी को माँ के समान बताना एक ग़लत और निराधार बात है, जिसे अल्लाह स्वीकार नहीं करता। इस तरह, इस्लाम ने इस प्रकार के तलाक़ को प्रतिबंधित कर दिया और इसे तलाक़ की किसी भी वैध श्रेणी में नहीं माना।
इन आयतों से हमने सीखाः
पैग़म्बर, लोगों के बीच बहुत सहज थे—पुरुष और महिलाएं अपनी जीवन की समस्याओं का हल पाने के लिए उनके पास आते थे।
जाहिलियत के दौर में महिलाओं के मामले में अन्यायपूर्ण प्रथाएँ थीं, जिन्हें इस्लाम ने उचित समाधान देकर ख़त्म किया।
अल्लाह मानवीय पारिवारिक और सामाजिक संबंधों से पूरी तरह अवगत है और उसने उनके लिए न्यायसंगत नियम बनाए हैं।
पति-पत्नी को एक-दूसरे पर झूठे आरोप लगाकर या गंदी बातें कहकर अपने रिश्ते में दरार नहीं डालनी चाहिए।
आइए अब हम सूरए मुजादिला की आयत संख्या 3 और 4 की तिलावत सुनते हैं,
وَالَّذِينَ يُظَاهِرُونَ مِنْ نِسَائِهِمْ ثُمَّ يَعُودُونَ لِمَا قَالُوا فَتَحْرِيرُ رَقَبَةٍ مِنْ قَبْلِ أَنْ يَتَمَاسَّا ذَلِكُمْ تُوعَظُونَ بِهِ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرٌ (3) فَمَنْ لَمْ يَجِدْ فَصِيَامُ شَهْرَيْنِ مُتَتَابِعَيْنِ مِنْ قَبْلِ أَنْ يَتَمَاسَّا فَمَنْ لَمْ يَسْتَطِعْ فَإِطْعَامُ سِتِّينَ مِسْكِينًا ذَلِكَ لِتُؤْمِنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ وَتِلْكَ حُدُودُ اللَّهِ وَلِلْكَافِرِينَ عَذَابٌ أَلِيمٌ (4)
इन आयतों का अनुवाद है:
और जो लोग अपनी पत्नियों से 'ज़िहार' करते हैं, फिर (पछताकर) अपने कथन से पलट जाते हैं, तो उनके लिए कफ़्फ़ारा यह है कि पत्नी के साथ संबंध बनाने से पहले एक ग़ुलाम आज़ाद करें। यह (निर्देश है जिसके ज़रिए) तुम्हें नसीहत दी जा रही है, और अल्लाह तुम्हारे कर्मों से भली-भाँति अवगत है। [58:3]
जिसे (आज़ाद करने के लिए ग़ुलाम की) न मिले, वह दो महीने लगातार रोज़े रखे। और जो यह भी न कर सके, तो साठ ग़रीबों को खाना खिलाए। यह इसलिए है कि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ। ये अल्लाह की सीमाएँ हैं, और काफिरों के लिए (जो इन आदेशों का पालन नहीं करते) दर्दनाक सज़ा है। [58:4]
पिछली आयतों में "ज़िहार" यानी पत्नी को माँ बताने के बारे में चर्चा के बाद, इन आयतों में बताया गया है कि ऐसा कहने से वास्तविक तलाक़ नहीं होता और इस्लाम द्वारा बताए गए तरीक़े ही मान्य हैं। लेकिन जिस पुरुष ने ऐसा कहा और उसका इरादा गंभीर था, उसे सज़ा दी जाएगी ताकि वह भविष्य में ऐसा न दोहराए और दूसरों के लिए सबक़ बने।
ऐसे व्यक्ति की सज़ा इस तरह है। या तो वह एक ग़ुलाम आज़ाद करे या फिर अगर ग़ुलाम न मिले, तो लगातार दो महीने के रोज़े रखे, अगर रोज़े भी न रख सके, तो 60 ग़रीबों को भोजन कराए।
इनमें से किसी एक को पूरा करने के बाद ही वह अपनी पत्नी के पास लौट सकता है और उनका वैवाहिक जीवन सामान्य रूप से चल सकता है।
इन आयतों से हमने सीखाः
इस्लाम ने महिलाओं के साथ अन्याय करने वाली प्रथाओं का विरोध किया और पुरुषों के लिए दंड निर्धारित किए, ताकि परिवार का ढाँचा मज़बूत हो।
शब्दों की ज़िम्मेदारी होती है—पत्नी से मनमाने और ग़लत शब्द नहीं कहे जा सकते।
इस्लाम ने ग़ुलामी उन्मूलन की दिशा में क़दम बढ़ाए, हर अवसर का उपयोग करके ग़ुलामों को आज़ाद करने को प्रोत्साहित किया।
दंड लचीले और स्तरीय होने चाहिए, ताकि हर व्यक्ति अपनी स्थिति के अनुसार उन्हें पूरा कर सके।
आइए अब हम सूरए मुजादिला की आयत संख्या 5 और 6 की तिलावत सुनते हैं:
إِنَّ الَّذِينَ يُحَادُّونَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ كُبِتُوا كَمَا كُبِتَ الَّذِينَ مِنْ قَبْلِهِمْ وَقَدْ أَنْزَلْنَا آَيَاتٍ بَيِّنَاتٍ وَلِلْكَافِرِينَ عَذَابٌ مُهِينٌ (5) يَوْمَ يَبْعَثُهُمُ اللَّهُ جَمِيعًا فَيُنَبِّئُهُمْ بِمَا عَمِلُوا أَحْصَاهُ اللَّهُ وَنَسُوهُ وَاللَّهُ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ شَهِيدٌ (6)
इन आयतों का अनुवाद है:
निस्संदेह जो लोग अल्लाह और उसके रसूल की दुश्मनी करते हैं, वे अपमानित किए जाएंगे जैसे उनसे पहले के लोग अपमानित किए गए थे। हमने स्पष्ट निशानियां उतार दी हैं, और काफ़िरों के लिए अपमानजनक अज़ाब है। [58:5] जिस दिन अल्लाह उन सबको पुनर्जीवित करके खड़ा करेगा, फिर उन्हें उनके कर्मों से अवगत कराएगा। अल्लाह ने उन (कर्मों) को गिनकर रखा है जबकि वे उन्हें भूल चुके हैं। और अल्लाह हर चीज़ का साक्षी है। [58:6]
पिछली आयतों में जहां जाहिलियत की ग़लत परंपराओं और अल्लाह के आदेशों की अवहेलना करने वालों के सांसारिक दंड का वर्णन था, वहीं इन आयतों में अल्लाह की सीमाओं को लांघने वालों के लिए आख़ेरत के दंड की ओर इशारा किया गया है। इनमें कहा गया है कि अल्लाह के स्पष्ट आदेशों के बावजूद उनका विरोध करना कुफ़्र की निशानी है जो दुनिया और आखेरत दोनों में बुरे परिणाम लाता है।
लेकिन असली सज़ा तो क़यामत के दिन मिलेगी, जब अल्लाह उन बुरे कामों को याद दिलाएगा जिन्हें वे भूल चुके थे। यही चीज़ उनके लिए अपमान और शर्मिंदगी का कारण बनेगी, और उसके बाद उन्हें अल्लाह की कड़ी यातना झेलनी पड़ेगी।
इन आयतों से हमने सीखाः
स्पष्ट हिदायत मिल जाने के बाद अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों का विरोध करने वालों के लिए दुनिया और आख़ेरत दोनों में बुरा अंजाम है।
पैग़म्बरों से दुश्मनी रखना वास्तव में अल्लाह से दुश्मनी रखने के बराबर है, और इसके लिए अल्लाह ने अपमान भरी सज़ा तैयार कर रखी है।
क़यामत के दिन सबसे पहले अपराधी को उसके अपराधों से अवगत कराया जाएगा ताकि वह जान ले कि उसने क्या किया था और उसकी सज़ा क्या है, फिर उसे उसके बुरे कर्मों की सज़ा दी जाएगी।