क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-957
सूरए फ़तह, आयतें 5 से 9
आइये सबसे पहले सूरए फ़त्ह की पांचवीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
لِيُدْخِلَ الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا وَيُكَفِّرَ عَنْهُمْ سَيِّئَاتِهِمْ وَكَانَ ذَلِكَ عِنْدَ اللَّهِ فَوْزًا عَظِيمًا (5)
इस आयत का अनुवाद हैः
ताकि मोमिन मर्द और मोमिन औरतों को (बेहिश्त के) बाग़ों में जा पहुँचाए जिनके नीचे नहरें जारी हैं और ये वहाँ हमेशा रहेंगे और उनके गुनाहों को उनसे दूर कर दे और ये ख़ुदा के नज़दीक बड़ी कामयाबी है [48:5]
इससे पहले वाले कार्यक्रम में पैग़म्बरे इस्लाम और मक्का के काफ़िरों व मुशरिकों के मध्य जो सुल्हे हुदैबिया हुई थी उसके बारे में बात हुई थी। अल्लाह ने सुल्हे हुदैबिया को भविष्य में मुसलमानों के लिए बहुत बड़ी विजय क़रार दिया और जो लोग इस संधि से अप्रसन्न और क्षुब्ध थे उन्हें शांति प्रदान की।
सूरए फ़त्ह की पांचवीं आयत कहती है कि जो लोग हर हालत में पैग़म्बरे इस्लाम के मददगार और उनके साथ हैं और उनके आदेशों का पालन करते हैं अल्लाह ऐसे लोगों को दुनिया में शांति प्रदान करने के अलावा परलोक में भी शांति प्रदान करेगा, उनकी ग़लतियों को माफ़ देगा और उन्हें स्वर्ग में जगह देगा जहां वे हमेशा- हमेशा रहेंगे और अल्लाह की नेअमतों से लाभांवित होंगे।
इस आयत से हमने सीखाः
यद्यपि महिलायें जंग और जेहाद जैसे सख़्त कार्यों में सीधे रूप से मौजूद नहीं होती हैं मगर अगर वे जेहाद पर जाने वाले अपने पतियों और बेटों की मददगार हों और वैचारिक दृष्टि से उनके साथ हों और रणक्षेत्र में उनकी उपस्थिति से राज़ी व प्रसन्न हों तो वे भी प्रतिदान व प्रतिफ़ल में शामिल हैं।
ईमान का यह मतलब नहीं है कि अल्लाह पर ईमान रखने वाले लोगों से किसी प्रकार की कोई ग़लती व गुनाह न हो मगर उनके नेक व अच्छे कार्य इस बात का कारण बनेंगे कि अल्लाह उनकी ग़लतियों की अनदेखी कर देगा और उनके गुनाहों को माफ़ कर देगा और उन्हें अपनी रहमत व दया का पात्र बनाएगा।
बड़ी और वास्तविक कामयाबी यह है कि इंसान लोक- परलोक दोनों में कामयाब हो। केवल यह कामयाबी नहीं है कि दुनिया में अल्लाह की नेअमतों और भौतिक संसाधनों से सम्पन्न हो। क्योंकि दुनिया में बहुत से काफ़िर भी अल्लाह की नेअमतों से लाभांवित हैं।
आइये अब सूरए फ़त्ह की 6ठीं और सातवीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
وَيُعَذِّبَ الْمُنَافِقِينَ وَالْمُنَافِقَاتِ وَالْمُشْرِكِينَ وَالْمُشْرِكَاتِ الظَّانِّينَ بِاللَّهِ ظَنَّ السَّوْءِ عَلَيْهِمْ دَائِرَةُ السَّوْءِ وَغَضِبَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ وَلَعَنَهُمْ وَأَعَدَّ لَهُمْ جَهَنَّمَ وَسَاءَتْ مَصِيرًا (6) وَلِلَّهِ جُنُودُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَكَانَ اللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمًا (7)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और मुनाफिक़ मर्द और मुनाफ़िक़ औरतों और मुशरिक मर्द और मुशरिक औरतों पर जो ख़ुदा के बारे में बुरे बुरे ख़याल रखते हैं अज़ाब नाज़िल करे उन पर (मुसीबत की) बड़ी गर्दिश है और ख़ुदा उन पर ग़ज़बनाक है और उसने उन पर लानत की है और उनके लिए जहन्नुम को तैयार कर रखा है और वह (क्या) बुरी जगह है।[48:6] और सारे आसमान व ज़मीन के लश्कर ख़ुदा ही के हैं और ख़ुदा तो बड़ा वाक़िफ़कार (और) ग़ालिब है। [48:7]
पैग़म्बरे इस्लाम और मुसलमान जब मदीना से मक्का की ओर जा रहे थे तो जो मुनाफ़िक़ थे वे अल्लाह की मदद के बारे में बुरा ख़याल रखते और कहते थे कि मुसलमान सुरक्षित मदीना वापस नहीं आयेंगे, मुश्रेकीन उनकी हत्या कर देंगे या उन्हें बंधक बना लेंगे। मक्का के मुश्रेकीन भी मुसलमानों से मुक़ाबले के लिए तैयार थे परंतु पैग़म्बरे इस्लाम की समझदारी और मुश्रिकों के साथ समझौता हो जाने से यह ख़तरा टल गया।
ये आयतें कहती हैं कि मदीना के मुनाफ़िक़ और मक्का के मुशरिक व अनेकेश्वरवादी यह सोचते थे कि मुसलमानों का बुरा अंजाम होगा परंतु उनका ही बुरा अंजाम होगा और लोक- परलोक में उन्हें अल्लाह के दंड का सामना करना होगा।
जिन लोगों ने अल्लाह की ताक़त और उसकी तत्वदर्शिता पर भरोसा किया और वे अल्लाह की राह में कोशिश करते हैं तो ऐसे लोग अल्लाह की दया व रहमत के पात्र बनेंगे और अंततः कामयाब होंगे मगर जो लोग डर की वजह से घर में बैठे रहते हैं और दूसरों को दुश्मनों के रोब से डराते हैं और लोगों के मनोबल को कमज़ोर करते हैं तो उनका बुरा अंजाम होगा। वास्तव में इस प्रकार के लोग अपनी दुनिया और आख़रत दोनों को बर्बाद कर लेंगे।
रोचक बात यह है कि पवित्र क़ुरआन की इन आयतों में मोमिना महिलाओं का उल्लेख मोमिन मर्दों के साथ हुआ है और मुनाफ़िक़ और मुशरिक महिलाओं का उल्लेख उनके जैसे मर्दों के साथ हुआ है ताकि सामाजिक और राजनीतिक मामलों और इसी प्रकार मर्दों पर उनके प्रभाव को बयान किया जा सके।
इन आयतों से हमने सीखाः
अल्लाह के वादों के प्रति बुरा ख़याल मुनाफ़िक़ों और मुश्रिकों की विशेषता है न कि वास्तविक और सच्चे मोमिनों की क्योंकि सच्चे मोमिनों को अल्लाह के वादों पर पूरा भरोसा होता है।
मुनाफ़िक़ और मुशरिक दुष्टता, कुटिलता और गुमराही में एक दूसरे के हमख़याल होते हैं। इसी वजह से इन आयतों में मुनाफ़िक़ों का अंजाम मुश्रिकों के अंजाम के साथ बयान किया गया है। यद्यपि मुनाफ़िक़ दुनिया में मोमिनों के मध्य रहते हैं और विदित में वे मुसलमान भी होते हैं।
सदगुणों या अवगुणों से सम्पन्न होने में महिलायें पुरूषों की भांति और उनके साथ हैं और पुरूषों की भांति वे अपने और समाज के अंजाम व भविष्य में प्रभावी हैं।
दुनिया की समस्त चीज़ें और समूचा ब्रह्मांड अल्लाह के आदेश से चल रहा है और जो भी अल्लाह के मुक़ाबले में खड़ा होगा उसका अंजाम नाकामी व विफ़लता के सिवा कुछ और नहीं होगा।
आइये सूरए फ़त्ह की 8वीं और 9वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
إِنَّا أَرْسَلْنَاكَ شَاهِدًا وَمُبَشِّرًا وَنَذِيرًا (8) لِتُؤْمِنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ وَتُعَزِّرُوهُ وَتُوَقِّرُوهُ وَتُسَبِّحُوهُ بُكْرَةً وَأَصِيلًا (9)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(ऐ रसूल) हमने तुमको (तमाम आलम का) गवाह और ख़ुशख़बरी देने वाला और डराने वाला (पैग़म्बर बनाकर) भेजा। [48:8] ताकि (मुसलमानों) तुम लोग ख़ुदा और उसके रसूल पर ईमान लाओ और उसकी मदद करो और उसको महान समझो और सुबह और शाम उसी की तस्बीह करो। [48:9]
लोगों के मध्य पैग़म्बरे इस्लाम का क्या स्थान व मक़ाम है ये आयतें उस पर बल देती हैं। इन आयतों में अल्लाह कहता है जो कुछ समाज में हो रहा है पैग़म्बर उस पर गवाह है और कोई भी चीज़ उससे छिपी नहीं है। यद्यपि यह मुमकिन व संभव है कि जो चीज़ वह जानता हो उसे बयान व स्पष्ट न करे।
वह लोगों को नेक काम करने और बुराई से दूर रहने के लिए कहता है। इसी प्रकार वह नेक काम करने के संबंध में खुशख़बरी और बुरा काम करने के संबंध में चेतावनी देता है।
तो आशा व उम्मीद की जाती है कि अहले ईमान उसकी बातों को स्वीकार करेंगे और अमल में उसके मददगार होंगे और समाज में उसके स्थान को बहुत बड़ा समझेंगे ताकि मुनाफ़िक़, मुशरिक और दुश्मन उसे नुकसान पहुंचाने का दुस्साहस न कर सकें।
इन आयतों से हमने सीखाः
लोगों की हिदायत और प्रशिक्षा के लिए ख़ुशख़बरी देने और डराने व चेतावनी देने में संतुलन होना चाहिये ताकि संबोधक न घमंडी हो और न ही निराश हो।
जो लोग समाज में धर्म का प्रचार- प्रसार करते हैं उन्हें अपने अमल से लोगों के लिए आदर्श होना चाहिये और समाज में जो कुछ हो रहा है उससे उन्हें भी अवगत होना चाहिये।
अल्लाह पर ईमान रखने का लाज़ेमा उसके धर्म और पैग़म्बर की रक्षा करना है और पैग़म्बरे इस्लाम का आदर -सम्मान किया जाना चाहिये और समाज में उसके स्थान व मक़ाम को बड़ा समझा जाना चाहिये।
मोमिन इंसान सामाजिक गतिविधियों के साथ-साथ सुबह शाम नमाज़ और ग़ैर नमाज़ में अल्लाह को याद करता है और इस माध्यम से वह अल्लाह के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करता है।