क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-962
सूरए फ़तह, आयतें 26 से 29
आइये सबसे पहले सूरए फ़त्ह की 26वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
إِذْ جَعَلَ الَّذِينَ كَفَرُوا فِي قُلُوبِهِمُ الْحَمِيَّةَ حَمِيَّةَ الْجَاهِلِيَّةِ فَأَنْزَلَ اللَّهُ سَكِينَتَهُ عَلَى رَسُولِهِ وَعَلَى الْمُؤْمِنِينَ وَأَلْزَمَهُمْ كَلِمَةَ التَّقْوَى وَكَانُوا أَحَقَّ بِهَا وَأَهْلَهَا وَكَانَ اللَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمًا (26)
इस आयत का अनुवाद हैः
(याद करो) उस वक़्त को जब काफ़िरों ने अपने दिलों में ज़िद ठान ली थी और ज़िद भी तो जाहिलियत की थी तो ख़ुदा ने अपने रसूल और मोमिनीन (के दिलों) पर अपनी तरफ़ से ढारस नाज़िल की और उनको परहेज़गारी की बात पर क़ायम रखा और ये लोग उसी के सज़ावार और योग्य भी थे और ख़ुदा तो हर चीज़ से ख़बरदार है। [48:26]
इससे पहले वाले कार्यक्रम में सुल्हे हुदैबिया के बारे में चर्चा हुई थी। हुदैबिया मक्का के पास एक क्षेत्र है और यही वह क्षेत्र है जहां पैग़म्बरे इस्लाम और मक्का के काफ़िरों के मध्य हुदैबिया नामक संधि हुई थी। यह आयत कुफ़्र के एक कारण की ओर संकेत करती है और वह कारण अंधा व अतार्किक ताअस्सुब है। ताअस्सुब और अज्ञानता का घमंड कारण बना कि मक्का के काफ़िरों और मुश्रिकों ने पैग़म्बरे इस्लाम और मुसलमानों को हज करने के लिए मक्का में दाख़िल न होने दें।
मक्का के काफ़िर और मुश्रिक कहते थे कि ये वही मुसलमान हैं जिन्होंने जंगे बद्र और ओहद में हमारे पूर्वजों, भाइयों और निकट संबंधियों की हत्या की है हम किस प्रकार उन्हें अपने शहर में दाख़िल होने की अनुमति दें और वे सुरक्षित वापस लौट जायें? जबकि वे जानते थे कि मक्का में ख़ानये ख़ुदा की ज़ियारत करने का सबको अधिकार है और वह शांति व सुरक्षा की सरज़मीन है इस प्रकार से कि अगर हज या उम्रा करते समय कोई अपने बाप के हत्यारे को भी देख लेता था तो उसके लिए किसी प्रकार की रुकावट व समस्या खड़ी नहीं करता था। इसके मुक़ाबले में अल्लाह ने पैग़म्बरे इस्लाम और मोमिनों का दिल इतना बड़ा कर दिया था कि उन्होंने हरमे एलाही में जंग और रक्तपात की भावना छोड़ दी और काफ़िरों व मुश्रिकों से हुदैबिया नामक संधि की जिसने बाद के वर्षों में मुसलमानों के लिए ख़ानये ख़ुदा की ज़ियारत का मार्ग प्रशस्त किया।
इस आयत से हमने सीखाः
हर वह तअस्सुब ग़लत है जो अतार्किक हो। चाहे वह तअस्सुब सोच- विचार में हो या अमल में।
जिस इंसान के पास ईमान और तक़वा हो उसके लिए ज़रूरी है कि वह शांति की रक्षा करे यानी शांति व सुरक्षा बनाये रखे और व्यक्तिगत और सामाजिक मामलों में क्रोध से दूरी करे।
आइए अब सूरए फ़त्ह की 27वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
لَقَدْ صَدَقَ اللَّهُ رَسُولَهُ الرُّؤْيَا بِالْحَقِّ لَتَدْخُلُنَّ الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ إِنْ شَاءَ اللَّهُ آَمِنِينَ مُحَلِّقِينَ رُءُوسَكُمْ وَمُقَصِّرِينَ لَا تَخَافُونَ فَعَلِمَ مَا لَمْ تَعْلَمُوا فَجَعَلَ مِنْ دُونِ ذَلِكَ فَتْحًا قَرِيبًا (27)
इस आयत का अनुवाद हैः
बेशक ख़ुदा ने अपने रसूल को सच्चा ख़्वाब दिखाया था कि तुम लोग इन्शाअल्लाह मस्जिदुल हराम में अपने सर मुँडवा कर और अपने थोड़े से बाल कतरवा कर बहुत शांति व इत्मेनान से दाख़िल होगे (और) किसी तरह का ख़ौफ न करोगे तो जो बात तुम नहीं जानते थे उसको मालूम थी तो उसने फ़तहे मक्का से पहले ही (ख़ैबर में) फ़तेह अता की। [48:27]
मुसलमानों के मक्का रवाना होने से पहले पैग़म्बरे इस्लाम ने सपने में देखा था कि वह अपने अनुयाइयों के साथ उम्रा अंजाम देने के लिए मस्जिदुल हराम में दाख़िल हो रहे हैं और इस सपने को उन्होंने अपने अनुयाइयों से बयान किया। मुसलमान यह सोचते थे कि यह सपना उसी वर्ष साकार होगा। अतः जब काफ़िरों व मुश्रिकों ने पैग़म्बरे इस्लाम और मुसलमानों को ख़ानये काबा में नहीं जाने दिया तो कुछ कमज़ोर ईमान वाले मुसलमान इस शक में पड़ गये कि क्या यह हो सकता है कि पैग़म्बरे इस्लाम का सपना ग़लत हो? यह वह मौक़ा था जब यह आयत नाज़िल हुई जिसमें अल्लाह ने कहा है कि यह सपना सच्चा था और इस बात में कोई संदेह नहीं है कि तुम लोग पूर्ण सुरक्षा के साथ काबे में दाख़िल होगे। सुल्हे हुदैबिया के अनुसार उसके अगले साल मुश्रिकों ने तीन दिन के लिए मक्का को ख़ाली कर दिया और मुसलमानों ने निश्चिंत होकर उम्रा को अंजाम दिया। अलबत्ता कुछ समय के बाद मुश्रिकों ने इस संधि को तोड़ दिया और मुसलमानों ने आठवीं हिजरी क़मरी में मक्का को किसी प्रकार की जंग व रक्तपात के बिना जीत लिया।
इस आयत से हमने सीखाः
निश्चित रूप से अल्लाह का वादा व्यवहारिक होगा। यद्यपि यह संभव है कि अल्लाह के ज्ञान और हिकमत के कारण उसमें देरी हो परंतु देरी की वजह से शक नहीं करना चाहिये।
अगर समाज के हितों को नज़र में रखकर संधि की गई हो न कि दुश्मन से डर की वजह से तो इस प्रकार की संधि का फ़ायदा जंग से कहीं अधिक होता है और वह दुश्मन पर जीत की भूमिका बनती है।
आइये अब सूरए फ़त्ह की 28वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
هُوَ الَّذِي أَرْسَلَ رَسُولَهُ بِالْهُدَى وَدِينِ الْحَقِّ لِيُظْهِرَهُ عَلَى الدِّينِ كُلِّهِ وَكَفَى بِاللَّهِ شَهِيدًا (28)
इस आयत का अनुवाद हैः
वह वही तो है जिसने अपने रसूल को हिदायत और सच्चा दीन देकर भेजा ताकि उसको तमाम दीनों पर ग़ालिब रखे और गवाही के लिए तो बस ख़ुदा ही काफ़ी है। [48:28]
इससे पहली वाली आयत में अल्लाह ने मुसलमानों को मुश्रिकों पर विजय का वादा किया और यह आयत कहती है कि यह विजय जारी रहेगी यहां तक कि वह समय आ जायेगा जब इस्लाम धर्म दुनिया के समस्त धर्मों पर हावी हो जायेगा और इस्लाम के अलावा कोई दूसरा धर्म नहीं होगा क्योंकि अल्लाह की बात सच है और वह लोगों का मार्गदर्शन मुक्ति व कल्याण की ओर करता है। उस रिवायत के आधार पर जिस पर समस्त मुसलमान एकमत हैं, आख़िरी ज़माने में पैग़म्बरे इस्लाम की नस्ल से “महदी” नाम का व्यक्ति आयेगा और वह इस ईश्वरीय वादे को व्यवहारिक बनायेगा और वह दुनिया के मज़लूमों और कमज़ोरों की मदद से अत्याचारियों और ज़ोरज़बरदस्ती करने के मुकाबले में आंदोलन करेगा। हज़रत इमाम महदी अलै. अल्लाह की मदद से दुनिया के ज़ालिमों को पराजित करेंगे और पूरी दुनिया को न्याय और शांति से भर देंगे।
इस आयत से हमने सीखाः
अल्लाह की इच्छा से पूरी दुनिया में इस्लाम फ़ैल जायेगा और अल्लाह के धर्म की ओर लोगों के मार्गदर्शन का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा।
इस्लाम से पहले के धर्म विशेष समय के लिए थे और इसके विपरीत इस्लाम धर्म की शिक्षायें किसी ज़माने से विशेष नहीं हैं। अतः भविष्य इस्लाम का है और पूरी दुनिया में इस्लाम फ़ैल जायेगा। इसी वजह से मुसलमानों को चाहिये कि सही तरह से अपने दायित्वों पर अमल करें और विश्ववासियों को इस्लाम की मूल व अस्ली शिक्षाओं से अवगत करें।
आइये अब सूरए फ़त्ह की 29 आयत की तिलावत सुनते हैं,
مُحَمَّدٌ رَسُولُ اللَّهِ وَالَّذِينَ مَعَهُ أَشِدَّاءُ عَلَى الْكُفَّارِ رُحَمَاءُ بَيْنَهُمْ تَرَاهُمْ رُكَّعًا سُجَّدًا يَبْتَغُونَ فَضْلًا مِنَ اللَّهِ وَرِضْوَانًا سِيمَاهُمْ فِي وُجُوهِهِمْ مِنْ أَثَرِ السُّجُودِ ذَلِكَ مَثَلُهُمْ فِي التَّوْرَاةِ وَمَثَلُهُمْ فِي الْإِنْجِيلِ كَزَرْعٍ أَخْرَجَ شَطْأَهُ فَآَزَرَهُ فَاسْتَغْلَظَ فَاسْتَوَى عَلَى سُوقِهِ يُعْجِبُ الزُّرَّاعَ لِيَغِيظَ بِهِمُ الْكُفَّارَ وَعَدَ اللَّهُ الَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ مِنْهُمْ مَغْفِرَةً وَأَجْرًا عَظِيمًا (29)
इस आयत का अनुवाद हैः
मोहम्मद ख़ुदा के रसूल हैं और जो लोग उनके साथ हैं काफ़िरों पर बड़े सख़्त और आपस में बड़े रहमदिल हैं तुम उनको देखोगे (कि ख़ुदा के सामने) रुकूअ और सजदे की हालत में हैं, ख़ुदा के फज़्ल और उसकी ख़ुशनूदी के ख़्वास्तगार हैं बहुत अधिक सजदे के असर उनकी पेशानियों पर हैं, यही औसाफ़ उनकी तौरेत में भी है और यही हालत इंजील में (भी ज़िक्र की गई) है, गोया एक खेती है जिसने (पहले ज़मीन से) अपना अंकुर निकाला फिर (ज़मीन से अपना आहार हासिल करके) उसी अंकुर को मज़बूत किया तो वह मोटी हुई फिर अपनी जड़ पर सीधी खड़ी हो गयी और अपनी ताज़गी से किसानों को ख़ुश करने लगी और इतनी जल्दी तरक्क़ी इसलिए दी ताकि उनके ज़रिए काफ़िरों का जी जलाएँ, जो लोग ईमान लाए और अच्छे (अच्छे) काम करते रहे ख़ुदा ने उनसे बख़्शिश और अज्रे अज़ीम का वादा किया है। [48:29]
यह सूरए फ़त्ह की अंतिम आयत है। यह आयत इस बात को बयान करती है कि अल्लाह के वादे को व्यवहारिक होने के लिए कौन सी चीज़ें ज़रूरी हैं। यह आयत कहती है कि दूसरे समस्त धर्मों पर इस्लाम हावी हो जायेगा इसके लिए मुसलमानों को चाहिये कि वे चार विशेषताओं को अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन का आधार बनायें। दुश्मनों के मुक़ाबले में सख़्त, दृढ़ और एकजुट हो जायें। ईमान वालों के साथ मेहरबानी से पेश आयें अल्लाह से अपने संबंध व संपर्क को अच्छा करें। अपने आर्थिक व राजनीतिक विकास और स्वाधीनता के लिए प्रयास करें।
अगर मुसलमान इन चीज़ों को अपना उद्देश्य बनायें तो न केवल इस दुनिया में अपने दुश्मनों पर हावी हो जायेंगे बल्कि आख़रत और परलोक में भी वे अल्लाह की रहमत व दया का पात्र बनेंगे।
इस आयत से हमने सीखाः
इस्लाम एक समुचित व व्यापक धर्म है और इंसान की ज़िन्दगी के समस्त पहलुओं व आयामों के बारे में उसके पास शिक्षायें व कार्यक्रम हैं।
इस्लाम धर्म की शिक्षाओं पर सही ढ़ंग से अमल किये बिना इस्लाम धर्म पूरी दुनिया में नहीं फ़ैलेगा। दूसरे शब्दों में इस्लाम धर्म की शिक्षाओं पर अमल करने के लिए उसके कुछ सच्चे अनुयाइयों का होना ज़रूरी है जो उस पर चलें इसके बिना इस्लाम पूरी दुनिया में नहीं फ़ैलेगा।
तौरात और इंजील में भी पैग़म्बरे इस्लाम के सच्चे अनुयाइयों की विशेषताओं को बयान किया गया है।
मुसलमानों के विकास और प्रगति से उनके दुश्मन क्रोधित होते हैं।