क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1013
सूरए हश्र आयतें 1 से 7
पिछले कार्यक्रम में सूरए मुजादिला की तफ़सीर पूरी हो गई थी, इसलिए इस कार्यक्रम में हम सूरए हश्र की आयतों की तफ़सीर शुरू करेंगे।
यह सूरा भी मदीना में नाज़िल हुआ और इसमें 24 आयतें हैं। इसकी आयतों का मुख्य विषय मदीना के मुनाफिक़ों और यहूदियों की मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िशों के बारे में है। हालांकि, इन आयतों के अनुसार, उनकी साज़िशें कामयाब नहीं होंगी और उन्हें अपमान और हार के अलावा कुछ हासिल नहीं होगा।
आइए सबसे पहले हम सूरए हश्र की आयत 1 और 2 की तिलावत सुनते हैं:
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ وَهُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ (1) هُوَ الَّذِي أَخْرَجَ الَّذِينَ كَفَرُوا مِنْ أَهْلِ الْكِتَابِ مِنْ دِيَارِهِمْ لِأَوَّلِ الْحَشْرِ مَا ظَنَنْتُمْ أَنْ يَخْرُجُوا وَظَنُّوا أَنَّهُمْ مَانِعَتُهُمْ حُصُونُهُمْ مِنَ اللَّهِ فَأَتَاهُمُ اللَّهُ مِنْ حَيْثُ لَمْ يَحْتَسِبُوا وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ الرُّعْبَ يُخْرِبُونَ بُيُوتَهُمْ بِأَيْدِيهِمْ وَأَيْدِي الْمُؤْمِنِينَ فَاعْتَبِرُوا يَا أُولِي الْأَبْصَارِ (2)
इन आयतों का अनुवाद इस प्रकार है:
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और दयावान है
जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, वह अल्लाह की तस्बीह करता है और वही ज़बरदस्त (और) हिकमत वाला है। [59:1] वही है जिसने अहले किताब (यहूदियों) में से काफ़िरों को उनके घरों से पहली बार निकाला। तुमने (मुसलमानों ने) यह नहीं सोचा था कि वे निकल जाएंगे, और उन्होंने (यहूदियों ने) यह समझा था कि उनके क़िले उन्हें अल्लाह से बचा लेंगे। लेकिन अल्लाह का अज़ाब उन पर ऐसी जगह से आया जहाँ से उन्हें ग़ुमान भी नहीं था और उनके दिलों में डर बैठा दिया। (इस क़दर कि) वे अपने हाथों से और मोमिनीन के हाथों से अपने घरों को गिराने लगे। तो ऐ समझदार लोगो! इबरत हासिल करो। [59:2]
यह सूरा अल्लाह की तस्बीह से शुरू होता है और उसकी दो सिफ़तों, अज़ीज़ (ज़बरदस्त) और हकीम (हिकमत वाला) - पर ज़ोर देता है, जो यह बताती हैं कि अल्लाह की मर्ज़ी उसके विस्तृत इल्म और हिकमत के मुताबिक़ दुश्मनों की साज़िशों पर भारी पड़ती है।
ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के मुताबिक़, मदीना और उसके आसपास यहूदियों के तीन क़बीले रहते थे: बनी नुज़ैर, बनी क़ुरैज़ा और बनी क़ैनुक़ा। इस्लाम के पैग़म्बर ने मदीना हिजरत करने के बाद उनके साथ समझौता किया कि वे मुसलमानों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं करेंगे। लेकिन बद्र और ओहोद की लड़ाइयों के बाद, उनमें से कुछ ने साज़िश की और चुपके से मक्का के मुशरिकों के साथ मुसलमानों के ख़िलाफ़ गठबंधन कर लिया ताकि मौक़ा मिलते ही मुसलमानों पर वार कर सकें।
पैग़म्बर-ए इस्लाम को जिब्रईल के ज़रिए यहूदियों के समझौता तोड़ने की ख़बर मिली और उन्होंने मुसलमानों को बनी नुज़ैर के ख़िलाफ़ तैयार होने का हुक्म दिया। यहूदियों का यह क़बीला मदीना के आसपास अपने क़िले में जा छुपा, लेकिन मुसलमानों ने क़िले को घेर लिया। नतीजतन, उनके दिलों में इतना ख़ौफ़ पैदा हो गया कि बिना किसी लड़ाई और ख़ून-ख़राबे के उन्होंने सरेंडर कर दिया।
इन आयतों से हमने सीखाः
यह दुनिया जो अल्लाह की क़ुदरत और हिकमत पर बनी है, हमेशा अपने पैदा करने वाले को हर कमज़ोरी, असमर्थता और ख़ामी से पाक मानती है।
अगर हम अल्लाह के बंदे हों, तो उसकी मदद वक़्त पर नाज़िल होती है और दुश्मनों की साज़िशें नाकाम हो जाती हैं।
समझौता तोड़ने वाले दुश्मनों के साथ मज़बूती और दृढ़ता से पेश आना चाहिए ताकि वे दोबारा अहद न तोड़ें और मुसलमानों पर पीछे से वार न कर सकें।
दुश्मनों का सामना करते वक़्त उनकी भौतिक ताक़त, साज़ो-सामान और सुविधाओं से डरो मत। अल्लाह पर ईमान रखते हुए क़दम उठाओ और उसकी मदद पर भरोसा रखो।
आइए अब सूरए हश्र की आयत संख्या 3 से 5 की तिलावत सुनते हैं:
وَلَوْلَا أَنْ كَتَبَ اللَّهُ عَلَيْهِمُ الْجَلَاءَ لَعَذَّبَهُمْ فِي الدُّنْيَا وَلَهُمْ فِي الْآَخِرَةِ عَذَابُ النَّارِ (3) ذَلِكَ بِأَنَّهُمْ شَاقُّوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَمَنْ يُشَاقِّ اللَّهَ فَإِنَّ اللَّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ (4) مَا قَطَعْتُمْ مِنْ لِينَةٍ أَوْ تَرَكْتُمُوهَا قَائِمَةً عَلَى أُصُولِهَا فَبِإِذْنِ اللَّهِ وَلِيُخْزِيَ الْفَاسِقِينَ (5)
इन आयतों का अनुवाद है:
और अगर अल्लाह ने उन पर घर छोड़कर जाने का फ़ैसला न किया होता, तो वह उन्हें दुनिया में ही सज़ा देता, और आख़ेरत में तो उनके लिए जहन्नम की सज़ा है।[59:3] यह सज़ा इसलिए है कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से दुश्मनी की, और जो कोई अल्लाह से दुश्मनी करे, तो (जान ले कि) अल्लाह सख़्त सज़ा देने वाला है।[59:4] (ऐ मुसलमानों!) जिन खजूर के पेड़ों को तुमने काटा या जिन्हें जड़ के सहारे खड़ा छोड़ दिया, यह अल्लाह के हुक्म से था ताकि नाफ़रमानों को रुसवा किया जाए।[59:5]
पिछली आयतों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए यह आयतें कहती हैं कि यहूदियों के सरेंडर करने और मदीना से निकाले जाने से लड़ाई और ख़ून-ख़राबा होने से बच गया, और उनकी जानें बच गईं, लेकिन आख़ेरत में उनकी सज़ा बाक़ी है, क्योंकि उन्होंने पैग़म्बर-ए इस्लाम से दुश्मनी नहीं छोड़ी, जो दरअस्ल अल्लाह से दुश्मनी है।
इस्लामी संस्कृति में, पेड़ों और जंगलों को काटना जायज़ नहीं है, सिवाय किसी अहम और ज़रूरी काम के लिए। मिसाल के तौर पर, अगर पेड़ सैनिकों की हरकत में रुकावट बन रहे हों। हालांकि, पेड़ों को काटने का काम पैग़म्बर-ए इस्लाम या किसी और अधिकृत शख़्स की इजाज़त से, ज़रूरत के मुताबिक़ ही किया जाना चाहिए। यहूदियों के क़िले को फ़तह करने के दौरान, पैग़म्बर-ए इस्लाम की इजाज़त से क़िले के आसपास के कुछ खजूर के पेड़ काटे गए ताकि सैनिकों की जान बचाई जा सके और क़िले को फ़तह करने का रास्ता खुल सके।
इन आयतों से हमने सीखा:
शहर और रहने की जगह से निकाल देना, इस्लाम की तरफ़ से साज़िश करने वालों और फ़ितना फैलाने वालों के लिए सबसे कम सज़ा है।
यहूदियों के एक समूह को मदीना से निकाला गया था, उनके यहूदी होने के कारण नहीं बल्कि उनकी संधि-भंग करने और फ़ितना फैलाने की वजह से।
पेड़ों को काटने की अनुमति केवल आपातकालीन परिस्थितियों में और अधिक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक कार्यों के लिए ही दी गई है।
अब हम सूरए हश्र की आयत 6 और 7 की तिलावत सुनते हैं,
وَمَا أَفَاءَ اللَّهُ عَلَى رَسُولِهِ مِنْهُمْ فَمَا أَوْجَفْتُمْ عَلَيْهِ مِنْ خَيْلٍ وَلَا رِكَابٍ وَلَكِنَّ اللَّهَ يُسَلِّطُ رُسُلَهُ عَلَى مَنْ يَشَاءُ وَاللَّهُ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ (6) مَا أَفَاءَ اللَّهُ عَلَى رَسُولِهِ مِنْ أَهْلِ الْقُرَى فَلِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي الْقُرْبَى وَالْيَتَامَى وَالْمَسَاكِينِ وَابْنِ السَّبِيلِ كَيْ لَا يَكُونَ دُولَةً بَيْنَ الْأَغْنِيَاءِ مِنْكُمْ وَمَا آَتَاكُمُ الرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَهَاكُمْ عَنْهُ فَانْتَهُوا وَاتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ (7)
इन आयतों का अनुवाद इस प्रकार है:
और जो धन अल्लाह ने यहूदियों पर विजय पाकर और उन्हें उनके घरों से निकालकर अपने पैग़म्बर को वापस दिया, वह तुम्हारा नहीं है, क्योंकि तुमने उसे पाने के लिए कोई मेहनत नहीं की, न तुमने उस पर घोड़े दौड़ाए और न ऊँट। बल्कि अल्लाह अपने पैग़म्बरों को जिस पर चाहता है, प्रभुत्व देता है और अल्लाह हर चीज़ पर सामर्थ्य रखता है। [59:6] जो कुछ अल्लाह ने बस्तियों के लोगों की सम्पत्ति और ज़मीनों से लेकर अपने पैग़म्बर को दिया है, वह अल्लाह, उसके पैग़म्बर, पैग़म्बर के नज़दीकी रिश्तेदारों, यतीमों, ग़रीबों और ज़रूरतमंद मुसाफ़िरों के लिए है, ताकि यह धन केवल तुममें के अमीरों के बीच ही न घूमता रहे। और जो कुछ पैग़म्बर तुम्हें दें, उसे स्वीकार करो और जिससे वह मना करें, उसे छोड़ दो। और अल्लाह से डरो, निश्चय अल्लाह सख़्त सज़ा देने वाला है।[59:7]
पिछली आयतों में हमने देखा कि यहूदी बिना युद्ध और ख़ून-ख़राबे के आत्मसमर्पण करके मदीना से निकाल दिए गए। कुछ मुसलमानों ने अनुरोध किया कि यहूदियों द्वारा छोड़ी गई सम्पत्ति और कृषि भूमि को युद्ध की लूट के रूप में उनके बीच बाँट दिया जाए। लेकिन अल्लाह इन आयतों में फरमाता है:
चूँकि मुसलमानों ने कोई युद्ध नहीं किया और न ही कोई ख़र्च या नुक़सान उठाया, इसलिए उनका यहूदियों की छोड़ी हुई सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं है। इसलिए उस सम्पत्ति को बाँटने का अधिकार अल्लाह के रसूल को है, जो जैसा उचित समझें, वैसा बाँटें।
रिवायतों के अनुसार, अल्लाह के रसूल ने यह सम्पत्ति उन मुहाजिरों में बाँटी जो मक्का में अपने घर-बार छोड़कर खाली हाथ पैग़म्बर की सहायता के लिए मदीना आए थे, और कुछ ज़रूरतमंद अन्सार (मदीना के सहायक मुसलमानों) में भी बाँटी।
आगे की आयतें एक सामान्य सिद्धांत की ओर इशारा करती हैं और फ़रमाती हैं: पैग़म्बर का आदेश और निषेध तुम्हारे लिए प्रमाण है और तुम्हें उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए, चाहे वह धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक या अन्य मामलों में हो।
इन आयतों से हमने सीखाः
अल्लाह पर भरोसा रखने, ईश्वरीय सहायता के अवतरित होने और दुश्मनों के दिलों में डर पैदा करने से, कभी-कभी बिना युद्ध और ख़ून-ख़राबे के भी विजय प्राप्त हो जाती है।
जो दुश्मन अपने घर और सम्पत्ति छोड़कर मुस्लिम देशों से बाहर चले जाते हैं, उनकी सम्पत्ति समाज के धार्मिक नेताओं के अधिकार में होती है, ताकि वे उसे ज़रूरतमंदों के बीच उचित ढंग से वितरित कर सकें।
इस्लाम की आर्थिक प्रणाली धन के संतुलन और उसके न्यायपूर्ण वितरण पर ज़ोर देती है, ताकि समाज के किसी विशेष वर्ग के हाथों में धन केंद्रित न हो जाए।
पैग़म्बर के आदेश, निषेध, सुन्नत और उनका तरीक़ा प्रमाण है और क़ुरआन में दिए गए ईश्वरीय आदेशों से अलग नहीं है।