क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1014
सूरए हश्र आयतें 8 से 13
आइए सबसे पहले हम सूरए हश्र की आयत 8 से 10 की तिलावत सुनते हैं:
لِلْفُقَرَاءِ الْمُهَاجِرِينَ الَّذِينَ أُخْرِجُوا مِنْ دِيارِهِمْ وَأَمْوَالِهِمْ يَبْتَغُونَ فَضْلًا مِنَ اللَّهِ وَرِضْوَانًا وَيَنْصُرُونَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ أُولَئِكَ هُمُ الصَّادِقُونَ (8) وَالَّذِينَ تَبَوَّءُوا الدَّارَ وَالْإِيمَانَ مِنْ قَبْلِهِمْ يُحِبُّونَ مَنْ هَاجَرَ إِلَيْهِمْ وَلَا يَجِدُونَ فِي صُدُورِهِمْ حَاجَةً مِمَّا أُوتُوا وَيُؤْثِرُونَ عَلَى أَنْفُسِهِمْ وَلَوْ كَانَ بِهِمْ خَصَاصَةٌ وَمَنْ يُوقَ شُحَّ نَفْسِهِ فَأُولَئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ (9) وَالَّذِينَ جَاءُوا مِنْ بَعْدِهِمْ يَقُولُونَ رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا وَلِإِخْوَانِنَا الَّذِينَ سَبَقُونَا بِالْإِيمَانِ وَلَا تَجْعَلْ فِي قُلُوبِنَا غِلًّا لِلَّذِينَ آَمَنُوا رَبَّنَا إِنَّكَ رَءُوفٌ رَحِيمٌ (10)
इन आयतों का अनुवाद है:
यह (माले ग़नीमत) उन ग़रीब मुहाजिरों के लिए है जिन्हें अपने घरों और सम्पत्ति से बेदख़ल कर दिया गया, जो अल्लाह के फ़ज़ल और उसकी रज़ा की तलाश में हैं और अल्लाह और उसके रसूल की मदद करते हैं। यही सच्चे लोग हैं। [59:8] और (यह माल) उन लोगों (अंसार) के लिए भी है जिन्होंने मुहाजिरों से पहले इस शहर (मदीना) और ईमान में अपनी शरण बना ली थी। वे उन लोगों से प्यार करते हैं जो उनके पास हिजरत करके आए, और उनके दिलों में उन चीज़ों की कोई इच्छा नहीं होती जो मुहाजिरों को दी गईं। वे मुहाजिरों को खुद पर तरजीह देते हैं, भले ही खुद गरीबी में हों। और जो लोग अपने मन के लालच से बचे रहते हैं, वही सफल होने वाले हैं।[59:9] और जो लोग मुहाजिरों और अंसार के बाद आए, वे कहते हैं: 'ऐ हमारे रब! हमें और हमारे उन भाइयों को माफ़ कर दे जो हमसे पहले ईमान ले आए। और हमारे दिलों में मोमिनों के लिए कोई बैर न डाल। ऐ हमारे रब! तू बड़ा मेहरबान और दयावान है।' [59:10]
पिछले प्रोग्राम में उस माले ग़नीमत की बात हुई थी जो बिना युद्ध और ख़ून-ख़राबे के, दुश्मन के आत्मसमर्पण से मुसलमानों के हाथ लगा। ये आयतें बताती हैं कि यह माल उन लड़ाकों के लिए नहीं है जिन्होंने कोई नुकसान नहीं उठाया, बल्कि यह अल्लाह के रसूल के अधिकार में है ताकि वे ज़रूरतमंदों के बीच प्राथमिकता के आधार पर बाँट सकें।
पहली प्राथमिकता उन मुहाजिरों को दी गई जिनके मक्का में घर और आजीविका थी, लेकिन मदीना हिजरत करने के कारण वे अपना सब कुछ खो बैठे और बेघर व गरीब हो गए। दूसरी प्राथमिकता मदीना के ग़रीबों (अंसार) को दी गई, जो ख़ुद ग़रीब होने के बावजूद मुहाजिरों को खुद पर तरजीह देते थे; उन्हें अपने घरों में ठहराते और अपने साथ खाना खिलाते थे।
अगली प्राथमिकता उन लोगों को दी गई जो मुहाजिरों और अंसार में से नहीं थे और इन दोनों समूहों के बाद ईमान लाए। उन्हें ताबेईन कहा जाता है। इन आयतों के अनुसार, अल्लाह के रसूल को इस्लामी समाज से ग़रीबी दूर करने का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए पूरी कोशिश करनी चाहिए। दूसरे मोमिनों को भी बिना किसी लालच के माले-ग़नीमत को ग़रीबों में बाँटने के लिए तैयार रहना चाहिए।
इन आयतों से हमने सीखाः
अपने वतन में रहना हर इंसान का प्राकृतिक अधिकार है, और वतन से निकाल देना इंसानी अधिकारों का हनन है।
ईमान वाले ग़रीब, अल्लाह के फ़ज़ल की तलाश करते हैं और दूसरों के सामने हाथ नहीं फैलाते, लेकिन ईमान वालों का फर्ज़ है कि वे उनकी मदद करें और उन्हें फायदा पहुँचाएँ।
जो लोग ईमान के दावे में सच्चे हैं, वे मुश्किल और दबाव के समय में भी अल्लाह के दीन की मदद करने से पीछे नहीं हटते।
ईमान वालों से प्यार करना और उन पर ख़ुद को क़ुर्बान करना, सच्चे मोमिनों की ख़ासियत है।
लालच, ईर्ष्या, कंजूसी और बैर से दूर रहना इंसान की कामेलियत और उसकी कामयाबी व नजात की वजह है।
दीनी भाईचारे में देश, काल, जाति या नस्ल की कोई सीमा नहीं होती।
अब आइए सूरए हश्र की आयत संख्या 11 से 13 तक की तिलावत सुनते हैं:
أَلَمْ تَر إِلَى الَّذِينَ نَافَقُوا يَقُولُونَ لِإِخْوَانِهِمُ الَّذِينَ كَفَرُوا مِنْ أَهْلِ الْكِتَابِ لَئِنْ أُخْرِجْتُمْ لَنَخْرُجَنَّ مَعَكُمْ وَلَا نُطِيعُ فِيكُمْ أَحَدًا أَبَدًا وَإِنْ قُوتِلْتُمْ لَنَنْصُرَنَّكُمْ وَاللَّهُ يَشْهَدُ إِنَّهُمْ لَكَاذِبُونَ (11) لَئِنْ أُخْرِجُوا لَا يَخْرُجُونَ مَعَهُمْ وَلَئِنْ قُوتِلُوا لَا يَنْصُرُونَهُمْ وَلَئِنْ نَصَرُوهُمْ لَيُوَلُّنَّ الْأَدْبَارَ ثُمَّ لَا يُنْصَرُونَ (12) لَأَنْتُمْ أَشَدُّ رَهْبَةً فِي صُدُورِهِمْ مِنَ اللَّهِ ذَلِكَ بِأَنَّهُمْ قَوْمٌ لَا يَفْقَهُونَ (13)
इन आयतों का अनुवाद है:
क्या तुमने उन मुनाफेक़ीन को नहीं देखा जो अपने अहले किताब (यहूदी) काफ़िर भाइयों से कहते हैं: 'अगर तुम्हें निकाल दिया गया, तो हम भी तुम्हारे साथ निकल जाएँगे और तुम्हारे ख़िलाफ़ किसी की बात नहीं मानेंगे। और अगर तुमसे लड़ाई हुई, तो हम तुम्हारी मदद करेंगे।' अल्लाह गवाह है कि ये लोग झूठे हैं। [59:11] अगर (काफ़िर) निकाले गए, तो ये (मुनाफ़िक़) उनके साथ नहीं जाएँगे। अगर उनसे लड़ाई हुई, तो ये उनकी मदद नहीं करेंगे। और अगर मदद भी करेंगे, तो (ख़तरे के वक़्त) पीठ दिखाकर भाग जाएँगे। फिर उनकी कोई मदद नहीं करेगा। [59:12] तुम (मोमिनों) का डर उनके दिलों में अल्लाह के डर से भी ज़्यादा है। यह इसलिए कि वह समझदार लोग नहीं हैं। [59:13]
पिछली आयतों में मोमिनों के तीन समूहों—मुहाजिरीन, अंसार और ताबेईन—की खूबियाँ बताई गईं और उनके ईमान, इख़्लास, सच्चाई और कुर्बानी की विशेषता पर ज़ोर दिया गया। ये आयतें उनके विपरीत समूह (मुनाफिक़ीन) की बात करती हैं जो मदीना के मुसलमानों के बीच रहते थे और ईमानदार होने का दिखावा करते थे। यह समूह चुपके से मदीना के यहूदियों के साथ मिला हुआ था और पैग़म्बर व मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िशें करता था।
जब यहूदियों ने अपने वादे तोड़े और मुसलमानों की सुरक्षा के खिलाफ़ क़दम उठाए, तो अल्लाह के रसूल ने उन्हें मदीना से निकालने का हुक्म दिया। लेकिन मुनाफिक़ीन के सरदार ने यहूदियों के बड़े नेता से कहा: शहर मत छोड़ो, हम तुम्हारे साथ हैं। अगर युद्ध हुआ, तो हम तुम्हारी मदद करेंगे।
लेकिन जब मुसलमानों ने वादाखिलाफी करने वाले यहूदियों को घेर लिया, तो मुनाफिक़ीन इतने डर गए कि उन्होंने यहूदियों की कोई मदद नहीं की। इसलिए यहूदियों को आत्मसमर्पण करके मदीना छोड़ना पड़ा।
इन आयतों से हमने सीखाः
-इस्लामी नज़रिए में मोमिन आपस में भाई हैं, लेकिन मुनाफ़िक़ काफ़िरों और दुश्मनों से दोस्ती और भाईचारा रखते हैं। यह मोमिनों और मुनाफ़ेक़ीन को पहचानने का एक तरीक़ा है।
झूठ, धोखा, डर और ख़ौफ़ मुनाफ़िक़ीन की ख़ासियत है। वे हर तरह से ख़तरे से भागते हैं।
हमें मुनाफ़ेक़ीन की धोखेबाज़, निराशाजनक और डरावनी बातों से नहीं डरना चाहिए, बल्कि अपने काम और बातों से उन्हें इतना डराना चाहिए कि वे मैदान छोड़ दें और मुसलमानों के ख़िलाफ़ कार्रवाई से बाज़ आएँ।
अल्लाह के बजाय लोगों से डरना ईमान की कमज़ोरी और दिल में निफाक़ की जड़ है।