क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1018
सूरए मुमतहना आयतें 7 से 13
आइए सबसे पहले हम सूरए मुमतहना की आयत संख्या 7 से 9 की तिलावत सुनते हैं:
عَسَى اللَّهُ أَنْ يَجْعَلَ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَ الَّذِينَ عَادَيْتُمْ مِنْهُمْ مَوَدَّةً وَاللَّهُ قَدِيرٌ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَحِيمٌ (7) لَا يَنْهَاكُمُ اللَّهُ عَنِ الَّذِينَ لَمْ يُقَاتِلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَلَمْ يُخْرِجُوكُمْ مِنْ دِيَارِكُمْ أَنْ تَبَرُّوهُمْ وَتُقْسِطُوا إِلَيْهِمْ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ (8) إِنَّمَا يَنْهَاكُمُ اللَّهُ عَنِ الَّذِينَ قَاتَلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَأَخْرَجُوكُمْ مِنْ دِيَارِكُمْ وَظَاهَرُوا عَلَى إِخْرَاجِكُمْ أَنْ تَوَلَّوْهُمْ وَمَنْ يَتَوَلَّهُمْ فَأُولَئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ (9)
इन आयतों का अनुवाद है:
उम्मीद है कि अल्लाह तुम्हारे और उन लोगों के बीच जिनसे तुमने दुश्मनी की थी (मक्का की फ़तह के बाद उनके मुसलमान होने की वजह से) मोहब्बत पैदा कर देगा। और अल्लाह सब कुछ करने की ताक़त रखता है और अल्लाह बड़ा माफ़ करने वाला, दयालु है।[60:7] अल्लाह तुम्हें उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करने और न्याय करने से नहीं रोकता, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में जंग नहीं की और न ही तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला। बेशक अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है।[60:8] अल्लाह केवल तुम्हें उन लोगों से दोस्ती करने से रोकता है, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में जंग की, तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला और तुम्हारे निकाले जाने में सहयोग किया। और जो कोई उनसे दोस्ती करे, तो वही ज़ालिम हैं।[60:9]
पिछले कार्यक्रम में उन दोस्तों और रिश्तेदारों से संबंध तोड़ने के बारे में बात हुई थी, जो कुफ़्र और दुश्मनी की वजह से दीन के दुश्मनों की पंक्ति में आ गए थे। ये आयतें उन मुसलमानों को संबोधित करती हैं, जो मक्का से मदीना हिजरत कर गए थे। इन आयतों में कहा गया है कि उम्मीद है कि मक्का के मुशरेकीन, जो तुम्हारे क़बीले और रिश्तेदार हैं, इस्लाम क़बूल कर लेंगे और दुश्मनी मोहब्बत में बदल जाएगी।
हालांकि, अभी भी अगर वे मुसलमान नहीं हैं, लेकिन उन्होंने मुसलमानों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की है, तो उनके साथ प्यार और सेवा करने में कोई रुकावट नहीं है। उनके साथ नैतिक सिद्धांतों के आधार पर संबंध रखा जा सकता है, लेकिन इस तरह कि न तो वे मुसलमानों के बीच घुसपैठ कर सकें और न ही मुसलमानों का ईमान उनके साथ संबंध रखने की वजह से कमज़ोर हो।
इन आयतों से हमने सीखा:
मुसलमानों और दूसरों के बीच प्यार या दुश्मनी का मापदंड धार्मिक शिक्षाएं हैं।
जो ग़ैर-मुस्लिम मुसलमानों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं करते और साज़िश नहीं करते, उनके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। लेकिन जो लोग ईमान वालों के ख़िलाफ़ दुश्मनी और साज़िश करते हैं, वे दुश्मन हैं और उनसे दूरी बनानी चाहिए।
काफ़िरों की पिछली बुरी हरकतें, अगर वे दुश्मनी और शत्रुता छोड़ दें, तो माफ़ की जा सकती हैं।
इस्लाम नेकी और न्याय का धर्म है, यहाँ तक कि काफ़िरों के साथ भी।
अच्छे कामों में ज़रूरतमंद काफ़िरों को भी ध्यान में रखा जाए और उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाए।
अब आइए सूरए मुमतहना की आयत संख्या 10 और 11 की तिलावत सुनते हैं:
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا إِذَا جَاءَكُمُ الْمُؤْمِنَاتُ مُهَاجِرَاتٍ فَامْتَحِنُوهُنَّ اللَّهُ أَعْلَمُ بِإِيمَانِهِنَّ فَإِنْ عَلِمْتُمُوهُنَّ مُؤْمِنَاتٍ فَلَا تَرْجِعُوهُنَّ إِلَى الْكُفَّارِ لَا هُنَّ حِلٌّ لَهُمْ وَلَا هُمْ يَحِلُّونَ لَهُنَّ وَآَتُوهُمْ مَا أَنْفَقُوا وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ أَنْ تَنْكِحُوهُنَّ إِذَا آَتَيْتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ وَلَا تُمْسِكُوا بِعِصَمِ الْكَوَافِرِ وَاسْأَلُوا مَا أَنْفَقْتُمْ وَلْيَسْأَلُوا مَا أَنْفَقُوا ذَلِكُمْ حُكْمُ اللَّهِ يَحْكُمُ بَيْنَكُمْ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ (10) وَإِنْ فَاتَكُمْ شَيْءٌ مِنْ أَزْوَاجِكُمْ إِلَى الْكُفَّارِ فَعَاقَبْتُمْ فَآَتُوا الَّذِينَ ذَهَبَتْ أَزْوَاجُهُمْ مِثْلَ مَا أَنْفَقُوا وَاتَّقُوا اللَّهَ الَّذِي أَنْتُمْ بِهِ مُؤْمِنُونَ (11)
इन आयतों का अनुवाद है:
ऐ ईमान वालो! जब तुम्हारे पास मोमिन औरतें (जो अपने काफ़िर पतियों से अलग हो गई हैं) हिजरत करके आएँ, तो उनकी (ईमान की) परीक्षा लो। अल्लाह उनके ईमान को बेहतर जानता है। फिर अगर तुम उन्हें मोमिना पाओ, तो उन्हें काफ़िरों के पास वापस न भेजो। न ये औरतें उन काफ़िरों के लिए हलाल हैं और न वे काफ़िर इन औरतों के लिए हलाल हैं। और उन (के महर) को जो काफ़िर पतियों ने दिया है, उन्हें वापस कर दो। और तुम पर कोई गुनाह नहीं अगर तुम उनसे निकाह कर लो, जब तुम उन्हें उनका महर दे चुके हो। और काफ़िर औरतों (जो काफ़िरों के पास चली गई हैं) के रिश्ते को न थामो। और तुम ने जो (अपनी बीवियों पर) ख़र्च किया हो, उसे (काफ़िरों से) माँग लो, जैसे वे भी तुमसे माँगेंगे। यह अल्लाह का हुक्म है, जो उसने तुम्हारे बीच फ़ैसला किया है। और अल्लाह जानने वाला, हिकमत वाला है।[60:10] और अगर तुम्हारी कुछ बीवियाँ काफ़िरों से जा मिलने की वजह से तुम्हारे हाथ से चली गईं (और तुम उन्हें अदा किया गया मेहर काफ़िरों से न ले सके) तो जब भी तुम उन्हें पकड़ लो (और माले ग़नीमत हासिल करो,) तो जिनकी बीवियाँ चली गई हैं, उन्हें उतना ही दे दो जितना उन्होंने (मेहर में) ख़र्च किया था। और अल्लाह से डरो, जिस पर तुम ईमान रखते हो।[60:11]
पिछली आयतों में मुसलमानों और गैर-मुस्लिमों के बीच संबंधों के बारे में बताया गया था। ये आयतें उस स्थिति में पति-पत्नी के पारिवारिक संबंधों के बारे में हैं, जब उनमें से एक मुसलमान हो जाता है और दूसरा काफ़िर रह जाता है। इसमें कहा गया है: जब कोई औरत काफ़िरों में से इस्लाम क़बूल कर ले और तुम्हारे पास आश्रय ले, तो जब तुम उसके ईमान के बारे में यक़ीन कर लो, तो उसे काफ़िरों के पास वापस न भेजो। ऐसे मामलों में, अगर उसके (काफ़िर) पति ने उसका महर अदा किया है, तो इस्लामी हुकूमत को उसका महर उसके पति को वापस कर देना चाहिए।
और अगर किसी मुसलमान की बीवी काफ़िरों के पास चली जाए, तो वह मुसलमान पति की जोड़ी से बाहर हो जाती है। ऐसी स्थिति में, काफ़िरों को वह महर वापस करना चाहिए, जो मुसलमान पति ने अदा किया था। अगर वे ऐसा नहीं करते, तो मुसलमानों को चाहिए कि जो ग़नीमत (युद्ध में मिला माल) काफ़िरों से मिले, उसमें से उस मुसलमान को दे दें, ताकि उसका नुक़सान पूरा हो जाए।
इन आयतों से हमने सीखा:
औरत अपने पति की अनुयायी नहीं है, बल्कि उसे अपने पति के विचार से स्वतंत्र होकर अपना धर्म चुनना चाहिए।
मुसलमान पति या पत्नी, अगर उनका साथी काफ़िर हो जाए, तो वे अपनी ज़िंदगी साथ नहीं बिता सकते। वे अपने आप एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं और तलाक़ देने या लेने की ज़रूरत नहीं होती।
जब कोई काफ़िर औरत मुसलमान हो जाए, तो उसके ईमान लाने के कारण और तरीक़े की जाँच की जानी चाहिए, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि उसका मक़सद जासूसी, पिछले पति से झगड़ा या किसी मुसलमान मर्द से मोहब्बत जैसी चीज़ें नहीं हैं।
लोगों का माली हक़ उनके इस्लाम या कुफ़्र पर निर्भर नहीं करता। मुसलमान हो या काफ़िर, सभी के हक़ न्याय के साथ सुरक्षित रखे जाने चाहिए।
अब आइए सूरए मुमतहना की आयत संख्या 12 और 13 की तिलावत सुनते हैं:
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ إِذَا جَاءَكَ الْمُؤْمِنَاتُ يُبَايِعْنَكَ عَلَى أَنْ لَا يُشْرِكْنَ بِاللَّهِ شَيْئًا وَلَا يَسْرِقْنَ وَلَا يَزْنِينَ وَلَا يَقْتُلْنَ أَوْلَادَهُنَّ وَلَا يَأْتِينَ بِبُهْتَانٍ يَفْتَرِينَهُ بَيْنَ أَيْدِيهِنَّ وَأَرْجُلِهِنَّ وَلَا يَعْصِينَكَ فِي مَعْرُوفٍ فَبَايِعْهُنَّ وَاسْتَغْفِرْ لَهُنَّ اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَحِيمٌ (12) يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا لَا تَتَوَلَّوْا قَوْمًا غَضِبَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ قَدْ يَئِسُوا مِنَ الْآَخِرَةِ كَمَا يَئِسَ الْكُفَّارُ مِنْ أَصْحَابِ الْقُبُورِ (13)
इन आयतों का अनुवाद है:
ऐ नबी! जब तुम्हारे पास मोमिन औरतें बैअत करने आएँ कि वे अल्लाह के साथ किसी को शरीक न ठहराएँगी, चोरी नहीं करेंगी, ज़ेना नहीं करेंगी, अपनी औलाद को नहीं मारेंगी, और जो औलाद उनके पास है (कि जो हराम औलदा है) उसे झूठ बोलकर अपने (शौहर) से संबंधित नहीं बताएंगी और न ही किसी अच्छे काम में तुम्हारी नाफ़रमानी करेंगी, तो उनसे बैअत ले लो और उनके लिए अल्लाह से माफ़ी माँगो। बेशक अल्लाह बड़ा माफ़ करने वाला, दयालु है।[60:12] ईमान वालो! उन लोगों को अपना सरपरस्त न बनाओ, जिन पर अल्लाह का ग़ज़ब नाज़िल हुआ है। वे आख़ेरत से ऐसे ही निराश हो चुके हैं, जैसे काफ़िर क़ब्र वालों (वापसी) से निराश हो चुके हैं।[60:13]
पिछली आयतों में मुहाजिर औरतों की स्थिति के बारे में बताया गया था। ये आयतें उन मुशरिक औरतों के बारे में हैं, जो मुसलमानों द्वारा मक्का की फ़तह के समय इस्लाम का दावा करती थीं और रसूलुल्लाह की बैअत करना चाहती थीं। इन आयतों में औरतों के लिए जो शर्तें रखी गई हैं, वे मर्दों पर भी लागू होती हैं, लेकिन जाहिलियत के दौर की सांस्कृतिक परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि ये चीज़ें औरतों में ज़्यादा फैली हुई थीं और इनके ख़िलाफ़ सख़्ती से लड़ना ज़रूरी था।
पति के माल को चुराकर अपने मायके ले जाना, ज़ेना और नाजायज़ संबंध (ख़ासकर पति की गैर-मौजूदगी में), शरई या नाजायज़ बच्चों का गर्भपात और दूसरों के बच्चों को पालकर अपने पति पर थोपना—ये ऐसे मसले थे, जिनके ख़िलाफ़ रसूलुल्लाह को समाज को नैतिक और माली गंदगी से साफ़ करने के लिए सख़्ती करनी पड़ी।
इन आयतों से हमने सीखा:
औरत एक स्वतंत्र, चुनने वाली और अपनी वास्तविक व क़ानूनी पहचान रखने वाली हस्ती है। इसलिए औरतें राजनीतिक और सामाजिक मामलों में अपनी मर्ज़ी से, मर्दों से स्वतंत्र होकर फ़ैसला करती हैं और अपने पतियों की अनुयायी नहीं होतीं। जैसे कि इस्लाम के शुरुआती दौर में औरतें सीधे पैग़म्बर से बात करती थीं और अपनी राय देती थीं।
औरतों का फ़साद से बचना समाज को बहुत सारी बुराइयों से सुरक्षित रखता है। अगर औरतें पाकदामन हों और अदाओं से ख़ुद को हवस वाले मर्दों के सामने पेश न करें, तो समाज बड़ी हद तक नाजायज़ रिश्तों और पतियों के धोखे से पाक हो जाता है। नतीजतन, बेलगाम और ग़ैर-स्वस्थ रिश्तों से पैदा होने वाले सामाजिक नुक़सान दूर हो जाते हैं।
श्रोताओ इसी के साथ….