Sep १५, २०२५ १८:०० Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1021

सूरए जुमा आयतें 1-5

पिछले कार्यक्रम में सूरए सफ़ की तफ़सीर के समाप्त होने के बाद, इस कार्यक्रम में हम सूरए जुमा की आयतों की व्याख्या और तफ़सीर शुरू करेंगे। यह सूरा भी मदीना में नाज़िल हुआ, इसमें 11 आयतें हैं। इसकी आयतों का केंद्र बिंदु रसूले ख़ुदा को भेजे जाने का मक़सद, मौत के लिए तैयारी और मोमिनीन को जुमे की नमाज़ में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना है।

आइए सबसे पहले हम सूरए जुमा की आयत नंबर 1 की तिलावत सुनते हैं:

بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ

يُسَبِّحُ لِلَّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ الْمَلِكِ الْقُدُّوسِ الْعَزِيزِ الْحَكِيمِ (1)

इस आयत का अनुवाद है:

अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान, निहायत रहम वाला है। 

जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, वह अल्लाह की तस्बीह करता है, वह अल्लाह जो (कायनात का) फ़रमांरवा, हर ऐब से पाक और अजेय और हिकमत वाला है। [62:1]

यह सूरह भी पिछले सूरे की तरह अल्लाह की तस्बीह से शुरू होता है और दुनिया के सभी मख़लूक़ात की तस्बीह की ख़बर देता है। क़ुरआनी संस्कृति में दुनिया के सभी मख़लूकात एक तरह की चेतना रखते हैं और न सिर्फ़ अपने ख़ालिक को पहचानते हैं, बल्कि उसकी तस्बीह भी करते हैं। हालांकि, हम इंसान इस बात को समझने से असमर्थ हैं। इसलिए क़ुरआन सूरए इसरा की आयत नंबर 44 में फ़रमाता है: तुम मख़लूक़ात की तस्बीह और गुणगान को समझ नहीं सकते।

आयत के आगे के हिस्से में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि वह न सिर्फ़ दुनिया का ख़ालिक है, बल्कि सारी कायनात का मालिक है जो दुनिया को चलाता है, लेकिन इंसानी बादशाहों की तरह नहीं जिनकी हुकूमत आम तौर पर ज़ुल्म और बे-इंसाफ़ी के साथ जुड़ी होती है। वह एक ऐसे बादशाह हैं जिनकी हुकूमत हर ऐब और ख़ामी से पाक है और हर तरह के ज़ुल्म से मुक्त है, क्योंकि वह अज़ीज़ और हकीम है और इल्म और हिकमत के आधार पर काम करता है।

इस आयत से हमने सीखा:

दुनिया की सभी मख़लूक़ात, ज़मीन और आसमान में, ज़ाहिर और छुपे, पत्थर और वनस्पति और प्राणी, अल्लाह की तस्बीह और इबादत में व्यस्त हैं। 

कायनात का इंतज़ाम अल्लाह के बे-इंतहा इल्म और हिकमत पर है और कोई भी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाने की ताक़त नहीं रखता। क्योंकि उसकी फरमानरवाई ताक़त और हिकमत के साथ है और वह अजेय व क़ादिर है।

अब आइए सूरए जुमा की आयत नंबर 2 से 4 तक की तिलावत सुनते हैं

هُوَ الَّذِي بَعَثَ فِي الْأُمِّيِّينَ رَسُولًا مِنْهُمْ يَتْلُو عَلَيْهِمْ آَيَاتِهِ وَيُزَكِّيهِمْ وَيُعَلِّمُهُمُ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَإِنْ كَانُوا مِنْ قَبْلُ لَفِي ضَلَالٍ مُبِينٍ (2) وَآَخَرِينَ مِنْهُمْ لَمَّا يَلْحَقُوا بِهِمْ وَهُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ (3) ذَلِكَ فَضْلُ اللَّهِ يُؤْتِيهِ مَنْ يَشَاءُ وَاللَّهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ (4)

इन आयतों का अनुवाद है:

वही है जिसने अनपढ़ लोगों में से उन्हीं में से एक रसूल भेजा ताकि वह उन पर उसकी आयतें पढ़े और उन्हें पाक करे और उन्हें किताब और हिकमत सिखाए, हालांकि वह पहले खुली गुमराही में थे।[62:2] और (उसने उस रसूल को भेजा) दूसरे लोगों के लिए भी जो अभी उनसे नहीं मिले हैं (और आने वाले समय में पैदा होंगे), और वही शक्तिवान और हकीम है।[62:3] यह (रसूल का भेजना) अल्लाह का फज़्ल है जिसे वह जिसे चाहता है (और लायक़ समझता है) देता है और अल्लाह बड़े फज़्ल वाला है।[62:4]

ये आयतें पैग़म्बर इस्लाम के मक़सद की ओर इशारा करती हैं और कहती हैं: अल्लाह ने अरब की क़ौम में जो साक्षरता और इल्म से महरूम थे और गुमराही और ख़ुराफ़ात ने उनकी ज़िंदगी को घेर रखा था, उन्हीं में से एक को चुना। 

उनका मिशन यह था कि उस क़ौम को हिदायत दें और क़ुरआन की आयतों के आधार पर, पहले उन्हें अख़लाक़ी और अमली पलिदगियों से पाक करें, फिर किताबे ख़ुदा की तालीमात और हिकमत भरी बातें सिखाकर उन्हें विकास और तरक्क़ी दें। 

हालांकि, उनकी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मक्का के लोगों और अरब प्रायद्वीप तक महदूद नहीं थी, बल्कि सभी लोग जो बाद में उन पर ईमान लाते हैं और उनकी दावत को क़बूल करते हैं, उनकी तरबियती तालीमात और सीख से फायदा उठाते हैं और यह सिलसिला क़यामत तक जारी रहेगा। 

इतिहास में सभी पैग़म्बरों की बेसत ख़ास तौर पर आख़िरी पैग़म्बर, हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व आलेही वसल्लम की बेसत, इंसानियत पर अल्लाह का सबसे बड़ा फ़ज़्ल है जो इंसानों को उन रस्मों और अक़ीदों से नजात दिलाता है जो ग़लती से भरे हुए हैं और उन्हें वही और सही अक़्ल की रोशनी में सआदत की तरफ़ ले जाता है। 

इन आयतों से हमने सीखा:

पैग़म्बरों की बे'सत, इंसानी समाज के विकास और तरक़्क़ी का ज़रिया है। 

इंसानी समाज की हिदायत के लिए एक शख़्स का भेजा जाना, वो भी उन लोगों में से जो जहालत और गुमराही के चरम पर हैं, अल्लाह के चमत्कारों में से एक है। 

तज़किया और आत्म निर्माण क़ुरआन की आयतों और रसूले ख़ुदा की सुन्नत की छांव में होना चाहिए, न कि इंसानी मकतबों और बनावटी इरफान के आधार पर। 

पैग़म्बर इस्लाम की रिसालत, अरब की नस्ल या उस ज़माने के लोगों तक महदूद नहीं है, बल्कि हर क़ौम और नस्ल और इलाक़े के लोगों के लिए है और हक़ और हक़ीक़त के तलबगार इंसानों को सआदत और नजात की तरफ़ ले जाती है। 

अब आइए सूरए जुमा की आयत नंबर 5 की तिलावत सुनते हैं 

مَثَلُ الَّذِينَ حُمِّلُوا التَّوْرَاةَ ثُمَّ لَمْ يَحْمِلُوهَا كَمَثَلِ الْحِمَارِ يَحْمِلُ أَسْفَارًا بِئْسَ مَثَلُ الْقَوْمِ الَّذِينَ كَذَّبُوا بِآَيَاتِ اللَّهِ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ (5)   

इस आयत का अनुवाद है:

उन लोगों की मिसाल जिन पर तौरैत का बोझ डाला गया (और उसके पाबंद होने का हुक्म दिया गया), लेकिन उन्होंने उसे नहीं माना (और उस पर अमल नहीं किया), उस गधे की है जो किताबें ढोता है (लेकिन उसमें से कुछ नहीं समझता), बहुत बुरी है उन लोगों की मिसाल जिन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया और अल्लाह ज़ालिम क़ौम को हिदायत नहीं देता। [62:5]

पिछली आयतों में मक्का के लोगों के बीच रसूले ख़ुदा की बेसत के बारे में बात थी; यह आयत मुसलमानों को चेतावनी देती है कि ख़बरदार रहो कि यहूदियों की तरह न हो जाना जिन पर तौरैत नाज़िल हुई और उसकी तालीमात को अमल में लाने का हुक्म दिया गया, लेकिन एक गिरोह ने उसका हक़ अदा नहीं किया और सिर्फ़ उसके ज़ाहिर को बचाए रखा। एक गिरोह ने उसके ख़िलाफ़ अमल किया और उसकी आयतों को अमल में झुठला दिया और ग़लत बताया। 

जो जानवर किताब को ढोता है, वह सिर्फ उसके बोझ को उठाता है, लेकिन उसके मतलब से कोई फ़ायदा नहीं उठाता। इसी तरह एक मुसलमान जो क़ुरआन को अलग-अलग प्रोग्रामों में लेकर चलता है और उसे चूमता है और इज़्ज़त देता है, सिर्फ उसके बोझ को उठाता है। ऐसा शख़्स क़ुरआन की तालीमात और ज़िंदगी के रास्ते में अल्लाह की हिदायत से कोई फ़ायदा नहीं उठा पाता। 

इस आयत से हमने सीखा:

क़ुरआन ने ग़ाफ़िल इंसानों और बे-अमल आलिमों की उपमा जानवरों से दी है, क्योंकि वह अक़्ल के चेराग़ और वहि की रोशनी का सही तरीक़े से इस्तेमाल नहीं करते। 

क़ुरआन की क़ेराअत और तिलावत अमल के मरहले तक पहुंचनी चाहिए ताकि फ़ायदेमंद और नतीजाबख़्श हो; वरना इंसान अल्लाह की सज़ा का मुस्तहक़ हो जाता है। 

आसमानी किताबों की तालीमात पर अमल न करना, एक तरह से उन्हें अमल में झुठलाना है और यह इंसान को अल्लाह की हिदायत से महरूम कर देता है।