Jun २२, २०१६ १६:१७ Asia/Kolkata

विश्व समुदाय अभी बान कीमून द्वारा सऊदी अरब का नाम बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन करने वालों की सूची से हटाने से पहुंचने वाले आघात से उबरा नहीं था कि सयुंक्त राष्ट्र संघ ने इसी तरह का एक और क़दम उठाते हुए सभी को आश्चर्य में डाल दिया।

बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले इस्राईल ने राष्ट्र संघ की मानवाधिकार समिति पर भी क़ब्ज़ा कर लिया।

 

जैसा कि हालिया दिनों में हमने देखा संयुक्त राष्ट्र संघ ने बच्चों के अधिकारों का हनन करने वालों के बारे में अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में यमन युद्ध के दौरान बच्चों को पहुंचने वाले 60 प्रतिशत नुक़सान के लिए सऊदी अरब को ज़िम्मेदार ठहराया गया था। इस रिपोर्ट के प्रकाशन के कुछ ही दिन बाद, राष्ट्र संघ के महासचिव ने अभूतपूर्व क़दम उठाते हुए सऊदी अरब का नाम इस सूची से हटा दिया और कहा कि यमन युद्ध के बारे में रियाज़ के साथ मिलकर संयुक्त रूप से जांच की जाएगी। यह क़दम सऊदी अरब की ओर से राष्ट्र संघ को दी जाने वाली वित्तीय सहायता बंद करने की धमकी के बाद उठाया गया। विश्व समुदाय और मीडिया में इस क़दम की ख़ूब आलोचना हुई।

 

सऊदी अरब के बाद इस बार इस्राईल का नम्बर था। पश्चिमी देशों की ओर से प्रस्ताव पेश किए जाने के बाद, इस्राईल संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा की छठी क़ानूनी समिति का अध्यक्ष बन गया। चुनाव के संबंध में आयोजित इस्लामी सहयोग संगठन एवं अरब संघ की बैठक में सीरिया और ईरान ने ज़ायोनी शासन के नामांकन के विरोध में भाषण दिए। इसके बावजूद, 84 मतों के मुक़ाबले में 109 मत प्राप्त करके इस्राईल इस समिति का प्रमुख बन गया।

 

महासभा की क़ानूनी समिति एक महत्वपूर्ण समिति है। उसकी विभिन्न ज़िम्मेदारियों में से एक ज़िम्मेदारी आतंकवाद से मुक़ाबले के लिए प्रयास करना है। 1949 में संयुक्त राष्ट्र संघ में सदस्यता प्राप्त करने के बाद पहली बार इस्राईल राष्ट्र संघ की किसी महत्वपूर्ण समिति का प्रमुख बना है।

 

यूरोपीय देशों, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, तुर्की और पांच अन्य देशों ने इस्राईल को इस समिति की अध्यक्षता के लिए नामज़द किया था। सामान्य रूप से इस समिति की अध्यक्षता के नामांकन की ज़िम्मेदारी विभिन्न गुटों के बीच धूभती रहती है, इस बार यह ज़िम्मेदारी यूरोप और पश्चिमी देशों की थी।

 

राष्ट्र संघ महासभा की क़ानूनी समिति अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से मुक़ाबले के अलावा, देशों में आतंरिक स्तर पर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क़ानून व्यवस्था की निगरानी की भी ज़िम्मेदार है। इसके अलावा आतंकवाद से मुक़ाबले की शैली और युद्ध में पीड़ितों के समर्थन के लिए जेनेवा समझौते के अतिरिक्त प्रोटोकॉल को लागू करने की ज़म्मेदारी भी इसी समिति की है।

 

इस महत्वपूर्ण समिति का ज़ायोनी शासन को ऐसी स्थिति में प्रमुख बनाया गया है कि जब यह शासन ख़ुद राष्ट्र संघ के प्रस्तावों और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का सबसे अधिक उल्लंघन करता है और प्रतिदिन फ़िलिस्तीनियों पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार करता है। ऐसे अत्याचार कि कभी कभी पश्चिम भी उसका विरोध करने के लिए मजबूर हो जाता है।

 

राष्ट्र संघ की क़ानूनी समिति के अध्यक्ष पद पर क़ब्ज़ा जमाने के इस्राईल के क़दम से विश्व भर के मानवाधिकार संगठन एवं कार्यकर्ता नाराज़ हैं। लंदन में अरब मानवाधिकार संगठन ने एक बयान जारी करके इस क़दम को अस्वीकार्य बताया है। इस बयान में उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार से संभव है, जो शासन आतंकवाद का समर्थक हो, जो फ़िलिस्तीन और अन्य देशों में युद्ध अपराधों के लिए मशहूर हो, वह आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का नेतृत्व करे। यह चयन इस बात को दर्शाता है कि राष्ट्र संघ एक बड़ी समस्या से जूझ रहा है और अब इस संगठन में सुधार का समय आ गया है, ताकि अत्याचारी शासन उसकी समितियों में घुसपैठ न बना सकें।

 

इसके अलावा, अरब संघ के संसद सभापति अहमद बिन मोहम्मद अल-जरवान ने एक बयान जारी करके कहा है कि ऐसे बहुत से प्रमाण मौजूद हैं जो इस्राईल द्वारा राष्ट्र संघ के प्रस्तावों और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के उल्लंघन का सुबूत हैं। इसलिए राष्ट्र संघ की इस समिति का इस्राईल द्वारा नेतृत्व अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के चेहरे पर एक थप्पड़ है। इन परिस्थितियों में यह चयन इस्राईली अधिकारियों द्वारा फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ किए जाने वाले अपराधों और निरंतर मानवाधिकारों के उल्लंघनों के लिए अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुक़दमा चलाने से बचने की कोशिश समान है। अरब संघ के महासचिव नबील अल-अरबी ने राष्ट्र संघ की इस समिति के प्रमुख के तौर पर इस्राईल के नामांकन का स्पष्ट रूप से विरोध करते हुए कहा था कि इस्राईल का इस पद पर आसीन होना संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए एक बड़ी त्रासदी है। इसी प्रकार हमास के प्रवक्ता सामी अबू ज़ोहरी ने कहा, इस पद पर इस्राईल का चयन राष्ट्र संघ का अपमान है।

 

फ़िलिस्तीनी गुटों और संगठनों ने भी कुछ देशों द्वारा इस्राईल के इस चयन की निंदा करते हुए कहा है कि यह चयन फ़िलिस्तीनियों पर इस्राईल के अत्याचारों और उसकी आतंकवादी गतिविधियों में वृद्धि का कारण बनेगा। राष्ट्र संघ में ईरान के प्रतिनिधि ग़ुलाम अली ख़ुशरौ ने भी इस क़दम पर खेद जताते हुए इसे राष्ट्र संघ की साख पर बट्टा क़रार दिया है।

 

यहां यह सवाल उठता है कि राष्ट्र संघ की महासभा की क़ानूनी समिति के नेतृत्व का क्या महत्व है? इस सवाल के जवाब के लिए पहले हमें मानवाधिकार परिषद और इस समिति के बीच के संबंध को समझना होगा।

 

वास्तव में राष्ट्र संघ की मानवाधिकार परिषद की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां इस प्रकार हैं, यूपीआर नामक सामयिक मानवाधिकारों की स्थिति की वैश्विक समीक्षा, विषयगत रिपोर्टर की नियुक्ति और देशों में विशेष रिपोर्टर का निर्धारण। पूर्व मानवाधिकार कमीशन की तुलना में मानवाधिकार परिषद की एक विशिष्टता, राष्ट्र संघ के सदस्य देशों में मानवाधिकारों की स्थिति का जायज़ा लेना है। इससे पहले केवल उन देशों में कमीशन जांच पड़ताल करता था, जहां मानवाधिकारों के हनन का संदेह होता था। इसी कारण, कुछ देश कमीशन के इस क़दम का विरोध करते थे और उसे राजनीतिकरण बताते थे। ध्यान योग्य बिंदु यह है कि जब इस परिषद में रिपोर्ट पेश करने का समय आया तो इस्राईल ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।

 

महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि अगर किसी देश में मानवाधिकार का उल्लंघन हो और परिषद उसे रोकने में नाकाम रहे तो इस स्थिति में रिपोर्टर इस परिषद द्वारा तैनात किया जाता है। अगर उस देश में मानवाधिकारों का उल्लंघन जारी रहता है तो उस देश की फ़ाइल राष्ट्र संघ की छठी क़ानूनी समिति के हवाले कर दी जाती है, जिसके बारे में कहा जाता है कि फ़ाइल जेनेवा से न्यूयॉर्क स्थानांतरित कर दी गई है। यह वही समिति है जिसका नेतृत्व अब दुनिया के सबसे बड़े मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले के हाथ में है।

 

राष्ट्र संघ की ओर से ज़ायोनी शासन का चयन, कोई अजीब बात नहीं है, क्योंकि हाल ही में सऊदी अरब को संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकारों का प्रमुख बनाया गया है। कुछ दिन पहले ही राष्ट्र संघ के महासचिव बान कीमून ने पैसों की वजह से सऊदी अरब का नाम यमनी बच्चों के हत्यारों की सूची से निकाल दिया और साम्राज्यवादी शक्तियों के सामने घुटने टेक दिए। इस निर्णय के बाद, यमनी बच्चों ने राजधानी सनआ में एक प्रतीकात्मक क़दम उठाते हुए राष्ट्र संघ के लिए चंदा जमा किया।

 

ऐसा प्रतीत होता है कि यह अंतरराष्ट्रीय संस्था कि जिसका गठन विश्व में शांति की स्थापना के लिए किया गया था, मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वालों का केन्द्र बनती जा रही है। कहा जा सकता है कि इस संस्था पर पैसों और बड़ी शक्तियों ने वर्चस्व जमा लिया है।

 

मध्यपूर्व में सऊदी और ज़ायोनियों के संयुक्त हित किसी से छिपे नहीं हैं, लेकिन अब यह दोस्ती राष्ट्र संघ तक चली गई है। सऊदी और ज़ायोनी एक एक करके इस संस्था की समितियों पर क़ब्ज़ा करते चले जा रहे हैं। लंदन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और दक्षिणी इराक़ के अध्ययन केन्द्र के प्रमुख अली रमज़ान अल-औसी का कहना है कि सऊदी अरब शुरू से ही इस्राईल से जुड़ा हुआ है और यह हमेशा से ही क्षेत्र में सीधे तौर पर एक दूसरे से सहयोग करते रहे हैं। यह क्षेत्र में हथियारों की दृष्टि से इस्राईल के हित में संतुलन बनाए रखते हैं। वास्तव में यह क्षेत्र में इस्राईल के हित में अमरीकी प्रयासों को परिणाम तक पहुंचाते हैं।

 

हालिया यह दो घटनाएं इस बात का सुबूत हैं कि भविष्य में इस प्रकार की और घटनाएं भी घट सकती हैं। इसलिए संभव है कि निकट भविष्य में सऊदी अरब के पैट्रो डॉलर और ज़ायोनी शासन के प्रभाव के कारण यह दोनों इस संस्था की अन्य समितियों पर भी क़ब्ज़ा जमा लें। ज़ायोनी शासन के हाथों में महासभा की क़ानूनी समिति की लगाम देना वास्तव में बकरी को भेड़िए के हवाले करना है। अगर बान कीमून ने यमन में सऊदी अत्याचारों की ओर से आँखें मूंद ली हैं तो महासभा ने भी लेबनान, फ़िलिस्तीन, सबरा व शतीला, ग़ज्ज़ा पट्टी और पश्चिमी किनारे में ज़ायोनी अत्याचारों की ओर आँखें बंद कर ली हैं।         

                       

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