May १८, २०२४ १६:०९ Asia/Kolkata
  • अगर आप चाहते हैं कि पश्चिमी एशिया में विवादों की जड़ों को जानें, तो आपको साइक्स-पिकोट को समझना होगा
    अगर आप चाहते हैं कि पश्चिमी एशिया में विवादों की जड़ों को जानें, तो आपको साइक्स-पिकोट को समझना होगा

पार्सटुडेः पश्चिम एशिया में मौजूदा संकटों और विवादों को अधिक गहराई से समझने के लिए साइक्स-पिकोट समझौते पर क़रीब से नज़र डालनी पड़ेगी, जो 16 मई, 1916 को फ्रांस और ब्रिटेन के बीच संपन्न हुआ था। इस समझौते ने पश्चिम एशिया के भविष्य को काफ़ी भयंकर रूप से प्रभावित किया और क्षेत्र की कई मौजूदा समस्याओं के लिए आधार बन गया।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान और ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद, तीन प्रमुख औपनिवेशिक देशों फ्रांस, ब्रिटेन और रूस ने ओटोमन साम्राज्य के क्षेत्रों का बंटवारा करने का फ़ैसला लिया। यह विभाजन औपनिवेशिक हितों पर आधारित था न कि क्षेत्र की भौगोलिक, सांस्कृतिक और जातीय वास्तविकताओं पर। ब्रिटेन के "मार्क साइक्स" और फ्रांस के "फ्रैंकोइस-जॉर्जेस पिकोट" इस बंटवारे के मास्टरमाइंड थे और इसीलिए इस समझौते को उन्हीं के नाम से याद किया जाता है।

इस समझौते के कारण पश्चिम एशिया में नई और आर्टिफिशियल बॉर्डर्स बनाए गए, सीमाओं की लकीरें खींचने में भी इन क्षेत्रों के लोगों की भावनाओं और इच्छाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। नवंबर 1918 में प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति और ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद, इंटीग्रेटेड अर्थात एकीकृत अरब राज्यों की स्वतंत्रता की उम्मीदें पूरी नहीं हुईं। इसके बजाय, जनवरी 1919 में ट्रस्टीशिप योजना के माध्यम से ब्रिटेन और फ्रांस इस क्षेत्र में अपना प्रभाव मज़बूत करने में सक्षम हुए। इस योजना ने पश्चिम एशिया के अरब देशों को स्वतंत्रता नहीं दी और उन्हें ब्रिटेन और फ्रांस के नियंत्रण में रख दिया।

अरब जगत वर्षों इस बात से अनजान रहा कि ब्रिटेन और फ्रांस के समझौते में उन वादों को दफ़न कर दिया गया जो अंग्रेज़ों ने उनसे किए थे। ब्रिटेन ने अरबों को यह भरोसा दिलाया था कि अगर वे ऑटोमन साम्राज्य के ख़िलाफ़ विद्रोह करते हैं तो इससे उनकी सल्तनत का पतन हो जाएगा और वे ख़ुदमुख़्तार मुल्क की हैसियत पा लेंगे।

इस बंटवारे से न केवल क्षेत्र में राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता पैदा हुई, बल्कि धार्मिक मतभेद भी बढ़ गए। फ़िलिस्तीन, जॉर्डन, दक्षिणी इराक़, सीरिया और लेबनान के कुछ हिस्सों को ब्रिटेन और फ्रांस के सीधे नियंत्रण में रखा गया था। यह आर्टिफिशियल विभाजन अगले दशकों में कई युद्धों और संघर्षों का आधार बने। पश्चिम एशियाई मुद्दों के विशेषज्ञ मोहम्मद रज़ा हाजियान का मानना ​​है कि साइक्स-पिकोट समझौते की मुख्य समस्याओं में से एक उपनिवेशवादियों द्वारा क्षेत्र की वास्तविकताओं को जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया गया। उनका कहना है कि इस समझौते का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा करना और इस भूमि के लोगों के अधिकारों की अनदेखी करना था, जिसने फ़िलिस्तीन पर ब्रिटेन के प्रभुत्व की नींव रखी।

वर्तमान में, क्षेत्र के कई देश अभी भी साइक्स-पिकोट समझौते के परिणामों से पीड़ित हैं। उदाहरण के तौर पर, हाल के वर्षों में, हमने तुर्किए और इराक़ के बीच सीमा विवादों को उभरते देखा है, जो साइक्स-पिकोट नक़ली बंटवारे की वजह से हो रहा है। फ़िलिस्तीनी राष्ट्रीय रक्षा समूह के महासचिव मेहदी शकीबाई भी मानते हैं कि साइक्स-पिकोट समझौता इस क्षेत्र में इस्राईल के गठन के लिए पहला क़दम था। उनके मुताबिक़ इस्राईल को वजूद में लाने के पीछे ब्रिटेन का मक़सद पश्चिम एशिया और फ़िलिस्तीन के तेल भंडार का इस्तेमाल करना था। यह लक्ष्य 2 नवंबर, 1917 को बाल्फोर घोषणा के रूप में क्रियान्वित हुआ।

वर्ष 1920 से 1948 तक, ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन में यहूदियों के आप्रवासन के लिए आधार प्रदान करके फ़िलिस्तीन में यहूदी आबादी में नाटकीय रूप से वृद्धि की। 1917 में, यहूदी फ़िलिस्तीन की आबादी का केवल 6 प्रतिशत थे, लेकिन 1948 में, जब इस्राईल ने अपने अस्तित्व की घोषणा की, तो यहूदी आबादी 600,000 तक पहुंच गई और लगभग 800,000 फ़िलिस्तीनी विस्थापित हो गए। 2016 में फ़िलिस्तीन ने एक बयान में सभी त्रासदियों के लिए ब्रिटेन को ज़िम्मेदार बताया था और ब्रिटिश सरकार से अपने कृत्य के लिए माफ़ी मांगने को कहा था। लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री "थेरेसा मे" ने इस अनुरोध का जवाब देते हुए कहा कि ब्रिटिश सरकार को बाल्फोर घोषणा पर गर्व है। (RZ)

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