तकफ़ीरी आतंकवाद-16
हमने भारत को इस्लामी जगत के वैचारिक व आबादी के ध्रुवों में से एक ध्रुव के रूप में पहचनवाया और शाह वलीयुल्याह देहलवी तथा उनके बेटे शाह अब्दुल अज़ीज़ के विचारों और देवबंदी मत के वजूद में आने में उसके प्रभाव का उल्लेख किया था।
इसी प्रकार विभिन्न देवबंदी मतों और उनके तथा वहाबियत के बीच अंतर व संपर्क की भी समीक्षा की।
इसी प्रकार हमने सऊदी अरब की वहाबियत का भारतीय उपमहाद्वीप विशेषकर अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में चरमपंथ व हिंसा के प्रसार में रोल की ओर संकेत किया।
बीसवीं सदी के दूसरे दशक को सुन्नी मत के राजनैतिक विचार में निर्णायक बिन्दु माना जाता है। इस दशक में उस्मानी शासन पूरी तरह ख़त्म हो गया। उस्मानी शासन को, जिसे उस्मानी ख़िलाफ़त कहा जाता है, इस्लामी ख़िलाफ़त के रूप में स्वीकार किया गया था या नहीं या इस शासन को इस्लामी जगत में किस सीमा तक विधि संगत माना गया, इस बारे में एक अलग कार्यक्रम की ज़रूरत है।
बहरहाल उस्मानी साम्राज्य में सुन्नी संप्रदाय के बीच राजनैतिक व्यवस्था विदित रूप से ख़िलाफ़त थी। उस्मानी शासन अपनी राजनैतिक व्यवस्था को ख़िलाफ़त कहता था। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों और बीसवीं सदी के शुरु के दो दशकों में उस्मानी साम्राज्य धीरे-धीरे कमज़ोर होता गया और 1924 में उस्मानी शासक को देशनिकाला दिया गया जिससे इस शासन का अंत हो गया।
सुन्नी विचारकों के राजनैतिक दृष्टिकोणों में ख़िलाफ़त को इस्लामी समाज की सबसे अहम व्यवस्था और इस्लाम का सबसे अहम राजनैतिक स्तंभ कहा गया है। वहाबी सलफ़ीवाद ने ब्रिटेन के साथ मिलकर उस्मानी शासन के विघटन के लिए बहुत कोशिश की और इस संदर्भ में वह ब्रितानी साम्राज्य का हथकंडा बना। रोचक बिन्दु यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप का सलफ़ीवाद, दूसरों की तुलना में उस्मानी शासन का सबसे ज़्यादा वफ़ादार था। उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे अर्ध में उस्मानी शासन की ओर भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान ख़ास तौर पर देवबंदी उन्मुख हुए हलांकि उस वक़्त उस्मानी शासन दिन प्रतिदिन कमज़ोर होता जा रहा था और अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों पर उसकी पकड़ ख़त्म होती जा रही थी। देवबंदियों की ओर से उस्मानी शासन को समर्थन करने के कारण, 1919 में ख़िलाफ़त अभियान पूरे भारत में शुरु हुआ था जिसका दायित्व उस्मानी शासन का समर्थन करना था। दूसरी ओर उन्नीसवीं और बीसवी सदी इस्लामी समाजों के पतन या उनके कमज़ोर पड़ने का दौर था। बीसवीं शताब्दी के पहले अर्ध में इस्लामी देश धीरे-धीरे आज़ाद हुए किन्तु साम्राज्य ने पुराने मुखौटे के स्थान पर नया मुखौटा पहन लिया जिसे नवीन साम्राज्य कहते हैं।
इस्लामी आंदोलनों के जन्म लेने का एक कारण, इस्लामी समाज के उज्जवल अतीत के साथ उसकी मौजूदा स्थिति की तुलना भी है। एक ओर इस्लामी जगत की अतीत की सफलताओं के चिन्ह और समृद्ध सभ्यता तो दूसरी ओर मौजूदा दौर में उसकी पराजय और पिछड़ा पन, तथा साम्राज्यवादी व्यवस्था के दबाव में उसकी योग्यता की तबाही, इस्लामी देशों ख़ास तौर पर मिस्र में सुधारवादी, क्रान्तिकारी और चरमपंथी आंदोलनों के अस्तित्व में आने का कारण बनी। मिस्र तो इस्लाम में राजनैतिक विचारधारा की उत्पत्ति के केन्द्रों में गिना जाता है। मिस्री बुद्धिजीवियों ने इस्लामी देशों में संकटों की प्रतिक्रिया में मूल्यों व इस्लामी शिक्षाओं की ओर पलटने का सुझाव दिया इस अर्थ में कि मुसलमानों के पिछड़ेपन का कारण, इस्लामी शिक्षाओं से उनकी दूरी है इसलिए ज़रूरी है कि मुसलमान अपने उज्जवल अतीत को देखें और धार्मिक मूल्यों को फिर से जागृत करें। इस अर्थ में सलफ़ीवाद, वहाबी सलफ़ीवाद यहां तक कि भारतीय उपमहाद्वीप के सलफ़ीवाद से भिन्न है क्योंकि इस अर्थ में पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों, साथियों के अनुसरणकर्ताओं तथा अनुसरणकर्ताओं के अनुसरणकर्ता के व्यवहार के पालन की बात नहीं कही गयी है बल्कि इसका अर्थ पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण पर आधारित मूल इस्लामी शिक्षाओं पर बुद्धि और समय की परिस्थितियों के अनुसार अमल करना है।
दूसरे शब्दों में मिस्री सलफ़ीवाद का अर्थ रूढ़िवादिता नहीं बल्कि मुसलमानों की मुख्य पहचान की ओर लौटना तथा समय की परिस्थिति से लाभ उठाना है। इसलिए अगर मिस्र में इस्लाम की ओर रुझान की शैली को सलफ़ीवाद कहें तब भी यह उस सलफ़ीवाद से पूरी तरह भिन्न है जिसकी सामने की मिसाल वहाबी-तकफ़ीरी विचारधारा है।
मिस्र में सलफ़ीवाद की मुख्य चिंता, इस्लामी सरकार का गठन और इस्लामी जगत के लिए विकास के मार्ग का वर्णन करना है। जबकि तकफ़ीरी सलफ़ीवाद धार्मिक शिक्षाओं की ग़लत व्याख्या का प्रचार करना चाहता है और इस काम के लिए हर प्रकार का हथकंडा इस्तेमाल करता है चाहे मुसलमानों को काफ़िर तक कहना पड़े। मिस्र सहित दूसरे इस्लामी देशों में इस्लामी आंदोलनों के जन्म लेने में जिन विचारकों का बहुत बड़ा योगदान रहा है उसमें से एक ईरान के बड़े धर्मगुरु स्वर्गीय सय्यद जमालुद्दीन असदाबादी भी हैं। सय्यद जमालुद्दीन असदाबादी इस्लामी जगत में विभिन्न मतों को एक दूसरे के निकट लाने तथा धार्मिक विचार में सुधार करने वालों के आगे आगे रहे हैं। उन्होंने इस्लामी जगत में एकता के लिए ख़ुद को समर्पित किया। वे न तो मिस्र में पैदा हुए और न ही वहां उन्होंने शिक्षा हासिल की किन्तु जिन नौ वर्षों के दौरान वे अलअज़हर विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे थे, उसी दौरान उन्होंने धार्मिक सुधार के विचार को स्थापित किया। उन्होंने इस थोड़े से समय में ऐसे छात्रों का प्रशिक्षण किया जिन्होंने मिस्र में सुधारवादी व क्रान्तिकारी विचारों के जन्म लेने में बहुत अधिक योगदान दिया।
इस्लामी जगत को आगे बढ़ाने के लिए जमालुद्दीन असदाबादी का यह मानना था कि इस्लामी जगत को अपने भीतर झांकना होगा और सही इस्लाम की ओर लौटना होगा जो हर प्रकार के अंधविश्वास व बिदअत को नकारता है। बिदअत का अर्थ है इस्लाम में ऐसी बातों को शामिल करना जो उसकी मूल शिक्षाओं के ख़िलाफ़ हैं। यही कारण है कि सय्यद जमालुद्दीन असदाबादी ने अपनी ज़्यादातर किताबों व लेखों में मुसलमानों से जागरुक होने तथा पश्चिम की चकाचौंध के मुक़ाबले में ख़ुद पर भरोसा करने पर बल दिया है।
उन्होंने इस्लामी देशों में सुधार के लिए अनेक देशों का सफ़र किया ताकि इस्लामी जगत में एकता बने और अंधविश्वास से दूर शुद्ध इस्लामी विचार का प्रसार हो। इस आधार पर हालांकि सय्यद जमालुद्दीन असदाबादी के विचार को सलफ़ी विचार कहा गया है लेकिन वह आम बोल चाल में प्रचलित सलफ़ीवाद से पूरी तरह भिन्न है। जिस बिन्दु के मद्देनज़र सय्यद जमालुद्दीन असदाबादी के विचार की समीक्षा ज़रूरी लगती है वह यह है कि मिस्र में सलफ़ी विचार के एक भाग की व्याख्या उनके शिष्यों ने की है। सय्यद जमालुद्दीन असदाबादी के एक मशहूर शिष्य मोहम्मद अब्दुह थे जो मिस्र के मुफ़्ती के पद पर पहुंचे।
जमालुद्दीन असदाबादी के विचार ने मोहम्मद अब्दुह के विचार पर बहुत प्रभाव डाला। शैख़ मोहम्मद अब्दोह सय्यद जमाल के विपरीत सुधारवादी शैली पर बल देते थे जबकि सय्यद जमालुद्दीन असदाबादी क्रान्तिकारी शैली में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि शिक्षा की शैली में बदलाव, समाज के आत्मिक व नैतिक विकास के माध्यम से आदर्श इस्लामी समाज की स्थापना की जा सकती है। मोहम्मद अब्दोह भी सय्यद जमालुद्दीन असदाबादी की तरह मूल धार्मिक शिक्षाओं के पालन पर बहुत बल देते थे। शायद शैख मोहम्मद अब्दोह वैचारिक प्रवृत्ति की दृष्टि से सलफ़ीवाद के अर्थ के अधिक निकट हों किन्तु वे सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले विचार से बहुत दूर थे जबकि प्रचलित सलफ़ीवाद की यही पहचान बन गयी है कि वह सांप्रदायिता को बढ़ावा देती है।
शैख़ मोहम्मद अब्दोह सलफ़ीवाद के विपरीत पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के कथन व आचरण को आधार बनाकर धर्म में इज्तेहाद करने पर बल देते थे और सिर्फ़ चार इमामों के अनुसरण को काफ़ी नहीं समझते थे। सुन्नी संप्रदाय इमाम शाफ़ई, इमाम हंबली, इमाम अबू हनीफ़ा और इमाम मालेकी का अनुसरण करते हैं। शैख़ अब्दोह का मानना था कि इस्लाम के विभिन्न पंथों ने धार्मिक स्रोतों से धार्मिक आदेश को पता करने की अलग शैलियां हैं और इन चार इमामों ने अपने समय की ज़रूरत के अनुसार धार्मिक आदेश के संबंध में इज्तेहाद किया और इन चार इमामों ने कभी भी इस बात का दावा नहीं किया कि उनका अनुसरण किया जाए। शैख़ मोहम्मद अब्दोह के दृष्टिकोण ने अलअज़हर विश्वविद्यालय में शिया और ज़ैदिया धर्म को इस्लाम के दो धर्म के रूप में मान्यता दी।
शैख़ मोहम्मद अब्दोह की एक और विशेषता यह थी कि वह धार्मिक मामलों में बुद्धि के इस्तेमाल पर बल देते थे। उनका यह मानना था कि किसी चीज़ को धर्म ने अच्छा या बुरा कहा है तो इसका आधार बुद्धि है। अर्थात कोई चीज़ इसलिए बुरी है क्योंकि बुद्धि उसको बुरा समझती है और कोई चीज़ इसलिए अच्छी है क्योंकि बुद्धि उसे सही समझती है जबकि सल्फ़ीवाद इसके बिल्कुल विपरीत है। इसी प्रकार शैख़ मोहम्मद अब्दोह के इंसान का किसी कर्म को अंजाम देने में मजबूर या स्वतंत्र होने और ईश्वर की ओर से पहले से किसी चीज़ का अंजाम तय होने जैसे बिन्दुओं पर विचार, सलफ़ीवाद से बिल्कुल भिन्न था। मोहम्मद अब्दोह ने अपने जीवन में मिस्री जनता के सांस्कृतिक उत्थान के लिए बहुत कोशिश की। वे मिस्र में इस्लामी जगत के विभिन्न संप्रदायों के बीच का एकता का प्रयास करने वाले के रूप में पहचाने जाते हैं।