Aug २२, २०१७ १४:५९ Asia/Kolkata

इस्लामी शिक्षाओं में महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार करने पर बल देने के बावजूद, आतंकवादी गुट दाइश ने इस्लाम के नाम पर महिलाओं के विरुद्ध खुले आम अमानवीय अत्याचार किये हैं।

दाइश ने अपनी पत्रिका ’’ दाबिक़’’ में एक लेख प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है, ’’ प्रलय से पहले दास प्रथा का पुनर्जीवन’’। इस लेख में इराक़ के सिंजार और अन्य नगरों से महिलाओं को दासी बनाने को महान उपलब्धि बताया गया है। दाइश ने लिखा है कि महिलाओं को दासी बनाने का काम जहां एक महान उपलब्धि है वहीं पर यह इस्लाम की भुला दी जाने वाली एक शिक्षा का पुनर्जीवन भी है। दाइश के अनुसार महिलाओं को दासी बनाकर तथाकथित इस्लामी सरकार ने उस इस्लामी नियम को पुनर्जीवित किया है जिसे भुला दिया गया था। दाइश के लेख में आया है कि हमने ईज़दी समुदाय की महिलाओं को दासी बनाकर उन्हें अपने योद्धाओं के बीच बांट दिया। दाइश के अनुसार ईज़दी समुदाय एक अल्पसंख्यक समुदाय है जो पत्थरों की पूजा करता है।

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दाइश द्वारा दासी बनाई जाने वाली ईज़दी महिलाओं के बारे में संयुक्त राष्ट्रसंघ की प्रतिनिधि, ज़ैनब बानजूरा कहती हैं कि दाइश, महिलाओं के साथ जिस प्रकार का हिंसक एवं अमानवीय व्यवहार कर रहा है वह लगभग वैसा ही है जैसा मध्ययुगीन काल में किया जाता था। वे कहती हैं कि दाइश ने अपनी ओर विदेशी लड़ाकों को आकर्षित करने के लिए यह घोषणा की थी कि वह अविवाहित लड़कियों को उन्हें उपहार स्वरूप देगा। इसके अतिरिक्त दाइश ने बहुत सी ईज़दी लड़कियों को 500 से 2000 डालर में बेचा। रिपोर्टों में बताया गया है कि दाइश के आतंकवादी, ईज़दी महिलाओं के साथ बहुत ही हिंसक व्यवहार करते हैं और इन महिलाओं के साथ दाइश आतंकवादी सामूहिक बलात्कार भी करते हैं। यह वे बाते हैं जिन्हें सुनकर हर मनुष्य को हार्दिक पीड़ा होगी।

विडंबना यह है कि आतंकवादी गुट दाइश ने महिलाओं को दासी बनाने के कार्य को इस्लाम की भुला दी गई शिक्षा बताया है जबकि यह इस्लाम पर आरोप है। इस्लाम आरंभ से ही दास प्रथा का विरोधी रहा है। इस्लाम ने कभी भी दास प्रथा का समर्थन नहीं किया। जिस समय इस्लाम का उदय हुआ उस समय दास प्रथा पूरे संसार में प्रचलित थी। इस्लाम के उदय से हज़ारों साल पहले से भी मानव समाज में दास प्रथा मौजूद थी। यह कुप्रथा शताब्दियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित होती आ रही थी। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इस्लाम ने न तो दास प्रथा की आधारशिला रखी और न ही वह उसका समर्थन करता है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) या इस्लाम के महापुरुषों ने दास प्रथा को प्रचलित करने के लिए कभी भी कोई अभियान नहीं चलाया। इसके विपरीत इस्लाम हमेशा ही दासता का विरोध करता आया है। यहां तक कि उसके कुछ ऐसे नियम हैं जिनको पढ़ने से पता चलता है कि इस्लाम कार्यक्रम बद्ध ढंग से दास प्रथा को पूर्ण रूप से समाप्त करने का पक्षधर है।

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इस्लाम एक स्वतंत्र धर्म है और स्वतंत्रता को पसंद करता है। इस्लाम की शिक्षाओं के अनुसार मनुष्य केवल ईश्वर का दास हो सकता है मानव का नहीं। ऐसा धर्म जो यह मानता हो कि मनुष्य केवल ईश्वर का ही दास हो सकता है वह किस प्रकार से यह आदेश देगा कि मनुष्य, दूसरे मनुष्य को अपना दास बनाए? इस्लाम की दृष्टि में किसी को दास बनाना महापाप है क्योंकि इस्लाम किसी को भी दूसरे की स्वतंत्रता छीनने का अधिकार नहीं देता है। इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि सबसे बुरे लोग वे हैं जो मनुष्यों को ख़रीदते और बेचते हैं। इसी बारे में उनका एक और कथन है कि ईश्वर बहुत से पापों को क्षमा कर देगा किंतु तीन पाप ऐसे हैं जिन्हें क्षमा नहीं करेगा। वे तीन पाप इस प्रकार हैं- मनुष्यों को ख़रीदना और बेचना, मज़दूर की मज़दूरी न देना और बीवी मेहर देने से इन्कार करना।

इस्लाम के उदय के समय पूरे संसार में दास प्रथा इतनी अधिक प्रचलित थी कि यह उस काल के सामाजिक तानेबाने में रच-बस चुकी थी। यह कुप्रथा, जीवन के सभी आयामों को प्रभावित किये हुए थी। ऐसे वातावरण में दास प्रथा का विरोध बहुत ही कठिन काम थरा और इसे समाप्त करने के लिए वास्तव में बहुत अधिक समय की आवश्यकता थी। इस्लाम की योजना यह थी कि पहले सामाजिक तानेबाने में दास प्रथा के प्रभाव को कम किया जाए उसके बाद धीरे –धीरे चरणबद्ध ढंग से इसे सदा के लिए समाप्त कर दिया जाए। यदि इतिहास का अध्धयन किया जाए तो पता चलता है कि इस्लाम ने दास प्रथा को समाप्त करने के लिए जो योजना बनाई थी वह उसी शैली में व्यवहारिक हुई और आज यह कुप्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है। इतिहास इस बात  का साक्षी है कि विश्व में अन्य राष्ट्रों की तुलना में इस्लामी राष्ट्रों में दास प्रथा जल्दी समाप्त हुई।

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ईश्वर के अन्तिम दूत हज़रत मुहम्मद (स) ने दास प्रथा को समाप्त करने के उद्देश्य से व्यापक अभियान आरंभ किया था। उनकी योजना यह थी कि दासों को स्वतंत्र कराने के लिए दीर्घकातीन अभियान चलाया जाए ताकि दास भी आम लोगों की भांति समाज में स्वतंत्र ढंग से जीवन व्यतीत कर सकें। वे लोगों को दासों को स्वतंत्र करने के लिए प्रेरित करते थे। उनकी एक योजना यह थी कि लोग, दासों को पहले ख़रीदें फिर उन्हें ईश्वर के मार्ग स्वतंत्र कर दें। पैग़म्बरे इस्लाम ने एक युद्ध में यह घोषणा की थी कि हर उस क़ैदी को स्वतंत्र कर दिया जाएगा जो दस मुस्लमों को साक्षर करेगा। इस्लाम ने कुछ पापों के प्रायश्चित के लिए दासों की स्वतंत्रता का प्रावधान रखा है। इसके अतिरिक्त दासों को ईश्वर के मार्ग में स्वतंत्र करने को महत्वपूर्ण उपासना भी बताया गया है। दासों को स्वंतत्र कराने के इस्लामी आदेश पर मुसलमानों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया और उसी का परिणाम है कि वर्तमान समय में इस्लामी देशों में दास प्रथा नामकी कोई चीज़ दिखाई नहीं देती।

इस्लाम के उदय से पहले लोगों को ग़ुलाम या दास बनाने की बहुत सी शैलियां प्रचलित थीं किंतु इस्लाम ने उनमें से किसी को भी नहीं माना। इस्लाम की दृष्ट में मुसलमान तो क्या किसी ऐसे अनेकेश्वरवादी को भी ग़ुलाम बनाना मना है जो मुसलमानों के बीच शांतिपूर्ण ढंग से जीवन व्यतीत करता हो। इस काम की इस्लाम ने कड़े शब्दों में भर्त्सना की है।

इससे पता चलता है कि क़ुरआन, अन्य धर्मों के मानने वालों के साथ शांतिपूर्ण ढंग से जीवन व्यतीत करने की निंदा नहीं करता । इस आधार पर कहा जा सकता है कि आतंकवादी गुट दाइश द्वारा उन अल्पसंख्यक समुदायों पर आक्रमण, जो मुसलमानों के बीच शांतिपूर्ण ढंग से जीवन व्यतीत कर रहे हैं, इस्लाम विरोधी है। इसी के साथ ऐसे लोगों को पकड़कर दास बनाना जो किसी भी प्रकार की इस्लाम विरोधी गतिविधियों में लिप्त नहीं हैं, ग़ैर इस्लामी कृत्य है। पवित्र क़ुरआन के सूरे मुमतहेना की आयत संख्या आठ के अनुसार उन लोगों से युद्ध नहीं किया जा सकता जो मुसलमानों के साथ शांतिपूर्ण ढंग से जीवन गुज़ार रहे हैं। इसी प्रकार कोई भी आरोप गढकर ऐसे लोगों की हत्या करना या उनकी महिलाओं को दासी बनाना किसी भी रूप में वैध नहीं है। आतंकी गुट दाइश ने जिस ईज़दी समुदाय पर आक्रमण करके उनकी महिलाओं को बंदी बनाया वे लोग मुसलमानों के बीच शांतिपूर्ण ढंग से जीवन व्यतीत कर रहे थे और वे इस्लाम विरोधी नहीं थे। दाइशी आतंकवादियों ने एकदम से ईज़दी समुदाय पर हमला करके लोगों की हत्याएं कीं, उनका माल लूटा और वहां की स्त्रियों को बंदी बनाया। दाइश ने जो यह काम किया है वह किसी भी स्थिति में इस्लामी नहीं है बल्कि खुला हुआ ग़ैर इस्लामी काम है।

 

 

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