Feb १७, २०१८ १७:०२ Asia/Kolkata

मुसलमान सुधारकों की एक चिंता इस्लामी एकता रही ।

वर्तमान समय में है विशेषकर विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में लगभग डेढ़ अरब मुसलमान रहते हैं। विश्व के लगभग 57 देशों में मुसलमान बहुसंख्या में हैं। इसी प्रकार मुसलमान बहुत से देशों में प्रभावी अल्पसंख्यकों के रूप में मौजूद हैं। इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में एक तिहाई सीटें इस्लामी देशों से विशेष हैं, यह देश तेल और गैस के विशाल भंडारों से समृद्ध हैं, विश्व के बहुत से संवेदनशील क्षेत्रों में उनकी सरकारें हैं। इसी विषय के दृष्टिगत राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक क्षेत्रों में वे असाधारण संभावना के स्वामी हैं परंतु इन सबके बावजूद वे अपने अंदर मौजूद संभावनाओं का सही तरह से लाभ नहीं उठा पा रहे हैं जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें वह स्थान नहीं मिला है जो उन्हें मिलना चाहिये। यही नहीं इन देशों को अपने भीतर भी आर्थिक कठिनाइयों, निर्धनता और विवादों सहित विभिन्न समस्याओं का सामना है।

 

इसके अलावा मुसलमानों के मध्य जो मतभेद पाए जाते हैं वे उनके पिछड़ेपन का मुख्य कारण हैं और यही बात इस्लामी जगत के सुधारकों, बुद्धिजीवियों और राजनेताओं की एक चिंता का एक कारण है। इस्लामी जगत के बहुत से सुधारकों और बुद्धिजीवियों का मानना है कि इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं से मुसलमानों की दूरी और जातीय, मतभेदों तथा अज्ञानता के काल के कबायली भेदभाव का जीवित किया जाना इस्लामी जगत से मुसलमानों की दूरी का एक अन्य कारण है। इस्लामी विद्वानों ने इस्लामी देशों के मध्य एकता के लिए विभिन्न मार्ग सुझाये। सैयद जमालुद्दीन असदाबादी, इक़बाल लाहौरी और स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी जैसी हस्तियों के प्रयासों के बावजूद खेद के साथ कहना पड़ता है कि इस्लामी जगत एकता की दिशा में गम्भीर क़दम न उठा सका जबकि इन हस्तियों का मानना था कि एकेश्वरवाद, पैग़म्बरे इस्लाम और पवित्र कुरआन में किसी प्रकार की हेरा -फेरी न होने और समान क़िबला जैसे संयुक्त धार्मिक विश्वासों को इस्लामी जगत में एकता का आधार होना चाहिये।

महान व सर्वसमर्थ ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे आले इमरान की आयत नंबर 103  में मुसलमानों का आह्वान करता है कि वे ईश्वर की रस्सी को पकड़ लें और वह उनके मध्य एकता को एक अनुकंपा के रूप में याद करता और कहता है” सब लोग ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और विवाद में मत पड़ो और ईश्वर की उस नेअमत को याद करो जो तुम को दी गयी है। जब तुम एक दूसरे के दुश्मन थे तो उसने तुम्हारे दिलों को एक दूसरे से जोड़ दिया तो तुम उसकी नेअमत व कृपा से एक दूसरे के भाई बन गये।“

 

पवित्र कुरआन, महान व सर्वसमर्थ एक ईश्वर की उपासना को इस्लामी समुदाय में एकता का रहस्य बताता है और ईश्वर के अलावा दूसरे के अनुपालन को फूट का कारण मानता है। पैग़म्बरे इस्लाम ने इस्लाम के प्रचार- प्रसार के आरंभ से ही इसी चीज़ को आधार बनाया और मुसलमानों का आह्वान एकता के लिए किया जबकि इस्लाम का सूर्य उदय होने से पहले अज्ञानता के काल में अरबों में फूट, जातीय और क़बाएली दुश्मनी आम बात थी और इसी मतभेद व दुश्मनी के कारण सदैव उनके मध्य लड़ाई होती रहती थी। इसी मध्य ईश्वरीय धर्म इस्लाम आया और उसने एकता एवं समानता के नारे के साथ समस्त मुसलमानों को एकजुट कर दिया। इस्लाम ने तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय को श्रेष्ठता का मापदंड बताया और उसने जातीय, क़बाएली और भाषायी आदि श्रेष्ठता के उन समस्त मापदंडों को रद्द कर दिया जो अज्ञानता के काल में प्रचलित थे। इस प्रकार उसने मुसलमानों के मध्य एकता को व्यवहारिक बना दिया।

इस समय इस्लामी एकता का मामला एक प्रकार से साम्राज्य से जुड़ गया है। एतिहासिक प्रमाण इस बात के सूचक हैं कि यद्यपि इस्लामी जगत में साम्राज्य का आना उसमें फूट व मतभेद का कारण बना है परंतु एकता उत्पन्न करने की दिशा में कुछ सकारात्मक प्रतिक्रियायें भी अस्तित्व में आई हैं। इस्लामी देशों में साम्राज्यवादियों के कार्यों की प्रतिक्रिया में इस्लामी जगत के शीया व सुन्नी धर्मगुरूओं, विचारकों और बुद्धिजीवियों ने मतभेदों के कारणों और उससे होने वाले नुकसानों को बताया। साथ ही उन्होंने इस्लामी जगत में एकता के मार्गों को भी पेश किया।

सैयद जमालुद्दीन असदाबादी इस्लामी जगत में महत्वपूर्ण धार्मिक सुधारक थे। वे उस दौर में मुसलमानों की जागरुकता के लिए उठ खड़े हुए जब ईरान, भारत और उसमानी साम्रज्यवाद को रूस, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे यूरोपीय देशों के सैनिक हमलों और अतिग्रहण का सामना था। शेष इस्लामी देश परोक्ष व अपरोक्ष रूप से पश्चिमी सरकारों के वर्चस्व में जा चुके थे जिनमें सबसे अधिक ब्रिटेन, फ्रांस और रूस के नियंत्रण में थे।

सैयद जमालुद्दीन असदाबादी

 

सैयद जमालुद्दीन असदाबादी ने इस्लामी देशों की कमज़ोरी के कारकों और इस्लामी जगत में एकता के मार्ग की रुकावटों को बयान किया। साथ ही वह बल देकर कहते थे कि मुसलमानों को इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं की ओर पलट आना चाहिये, अंध विश्वासों और नैतिक बुराइयों से दूर हो जाना चाहिये, अपने मध्य नैतिक व मानवीय गुणों को जीवित करना चाहिये, कौमी, धार्मिक और राष्ट्रीय मतभेदों को भूला देना चाहिय, तानाशाहों के खिलाफ संघर्ष करना चाहिये, अपने राजनीतिक भविष्य के निर्धारण में लोगों को भूमिका निभानी चाहिये और ज्ञान एवं विकास की दिशा में प्रयास करना चाहिये। इसी प्रकार सैयद जमालुद्दीन असदाबादी पश्चिमी साम्राज्य के मुकाबले में इस्लामी पहचान को प्रगति व विकास का रहस्य तथा इस्लामी एकता का कारण मानते थे। सैयद जमालुद्दीन असदाबादी की भांति मोहम्द अब्दो का भी मानना था कि इस्लामी जगत में जो फूट व मतभेद हैं उसका एक महत्वपूर्ण कारण शीया- सुन्नी मुसलमानों के मध्य धार्मिक मतभेद हैं और उन्होंने प्रसिद्ध पुस्तक नहजुल बलाग़ा की व्याख्या करके इन मतभेंदों के समाधान का प्रयास किया। मोहम्मद अब्दो इस्लामी जगत में एकता के लिए जिन तीन सिद्धांतों पर बल देते थे वे इस प्रकार हैं पहला यह कि बुद्धि और इस्लाम में संतुलन होना चाहिये। दूसरे यह कि एकेश्वरवाद, बुद्धि और समय की आवश्यकताओं को नज़र में रख कर इस्लामी विषयों में इजतेहाद करने की आवश्यकता और तीसरा सिद्धांत जिस पर मोहम्मद अब्दो बल देते थे आज़ादी और इंसान के इरादे को ज़िम्मेदारी के साथ एक दूसरे से जोड़ना।

सैयद जमालुद्दीन असदाबादी और मोहम्मद अब्दो का अनुसरण करते हुए रशीद रज़ा, इक़बाल लाहौरी, कवाकिबी और बहुत सारे सुन्नी बुद्धिजीवियों ने इस्लामी जगत में एकता की दिशा में प्रयास किया और इस्लामी एकता के संबंध में दृष्टिकोण पेश किया। इसी तरह शीया मुसलमानों के बहुत से बुद्धिजीवियों ने भी इस्लामी जगत में फूट व मतभेद और एक दूसरे से दूरी के कारणों को बयान किया और साथ ही इस स्थिति से बाहर निकलने के मार्गों को पेश किया। पूरे इतिहास में शीया मुसलमानों पर बहुत अत्याचार हुए हैं उसके बावजूद वे सदैव इस्लामी जगत में एकता के पक्षधर रहे हैं और शीया विद्वानों, धर्मगुरूओं और बुद्धिजीवियों ने सुन्नी धर्मगुरूओं और बुद्धिजीवियों के साथ कुछ विवादास्पद विषयों को समाप्त करने और शीया सुन्नी मुसलमानों के मध्य एकता को अधिक करने का प्रयास किया। आयतुल्लाह बुरुजेर्दी, अल्लामा अमीनी, स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी और ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई उन शीया धर्मगुरूओं व बुद्धिजीवियों में से हैं जिन्होंने इस्लामी जगत में एकता की दिशा में बहुत प्रयास किया है।


आयतुल्लाहिल उज़्मा बुरूजेर्दी

 

आयतुल्लाहिल उज़्मा बुरूजेर्दी अपने समय के वरिष्ठ शीया धर्मगुरू व विद्वान थे जो सदैव इस्लामी संप्रदायों के एक दूसरे से निकट होने और इस्लामी जगत में एकता पर बल देते थे। उनका मानना था कि धर्मशास्त्र के जो मामले व समस्याएं हैं उनकी समीक्षा केवल इमामिया संप्रदायों तक नहीं होनी चाहिये बल्कि उनकी समीक्षा समस्त संप्रदायों के स्तर पर की जानी चाहिये और हर महत्वपूर्ण मामले में मतभेद के संदर्भ में समस्त धर्मों के तर्कों को ध्यान में रखा जाना चाहिये। वह इस्लामी संप्रदायों को एक दूसरे से निकट किये जाने के विचार के समर्थक व पक्षधर थे। वह मिस्र के प्रसिद्ध विश्व विद्यालय जामेउल अज़हर के सुन्नी कुलपति और बड़े मुफ्ती शैख़ शलतूत के साथ जो पत्राचार करते थे उसमें मुसलमानों के मध्य समरसता और इस्लामी एकता के दृष्टिकोण की बुनियाद रखने में उनका व्यवहार बहुत प्रभावी सिद्ध हुआ। उनके इसी अच्छे व्यवहार का परिणाम था कि शैख़ शलतूत ने प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण फ़तवा दिया था। इस फ़तवे के आधार पर सुन्नी मुसलमानों के चार महत्वपूर्ण सम्प्रदाय के लोग धर्मशास्त्र के मामलों में शीया मुसलमानों के धर्मशास्त्र का अनुपालन कर सकते हैं।

ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ने भी इस्लामी जगत में एकता की दिशा में बहुत प्रयास किया। इस्लामी समाजों की समस्त वैचारिक व नैतिक समस्याओं को समझने के बाद स्वर्गीय स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी का मानना था कि इस्लामी एकता को प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मुसलमानों के धार्मिक और राजनीतिक विचारों में सुधार किया जाना चाहिये और उनके एकमत होने को एकता का आधार होना चाहिये। स्वर्गीय इमाम खुमैनी का मानना था कि इस्लामी जगत में फूट इस्लाम की विशुद्ध व जीवनदायक शिक्षाओं से दूरी का परिणाम है। इसी प्रकार उनका मानना था कि इस्लामी जगत में मतभेद का कारण मुसलमानों का पूरब व पश्चिम की साम्राज्यवादी शक्तियों पर भरोसा है और इससे मुक्ति के लिए वह तीन मार्गों इस्लाम, आज़ादी और स्वाधीनता का सुझाव देते हैं। क्योंकि उनका मानना था कि इन तीन अर्थों को व्यवहारिक बनाये जाने से मुसलमानों की खो चुकी इस्लामी पहचान को दोबारा प्राप्त करने की भूमि प्रशस्त हो जायेगी। इसी प्रकार स्वर्गीय इमाम खुमैनी का मानना था कि इस्लामी विद्वानों, धर्मगुरूओं और बुद्धिजीवियों द्वारा इस्लामी जगत में एकता के दृष्टिकोण का प्रचार- प्रसार किया जाना चाहिये और साथ ही इस्लामी जगत में हिज़्बुल्लाह और कमज़ोर वर्गों पर आधारित दलों का गठन किया जाना चाहिये। इस तरह से वह इस्लामी जगत में एकता को व्यवहारिक बनाना चाहते थे।

 

इस समय ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई भी इस्लामी एकता को आज के मुसलमानों की सबसे बड़ी आवश्यकता मानते हैं। वरिष्ठ नेता एकता के अर्थ को बयान करते हुए कहते हैं कि इस्लामी एकता का यह अर्थ नहीं है कि इस्लाम के विभिन्न संप्रदायों के मध्य वैचारिक एवं इतिहासिक मतभेदों की अनदेखी कर दी जाये। वरिष्ठ नेता उन लोगों के तर्कों को रद्द करते हैं जो इस्लामी एकता की सुरक्षा के बहाने कहते हैं कि मतभेदों वाले इस्लामी विषयों की बात ही न की जाये। वरिष्ठ नेता कहते हैं” इस्लामी एकता का अर्थ मतभेद वाली इस्लामी आस्थाओं को छोड़ देना नहीं है बल्कि धर्मगुरूओं व विद्वानों के मध्य शैक्षिक बहसों पर चर्चा अवश्य होनी चाहिये किन्तु ये बहसें दुश्मनी का रूप धारण न करें बल्कि सदैव उन पर तर्कों के साथ बहस की जानी चाहिये और इस प्रकार की बहसों में कुर्आन की आयतों, पैग़म्बरे इस्लाम के कथन और बुद्धि को प्रमाण के रूप में पेश किया जाना चाहिये। क्योंकि कुरआन ने बुद्धि से काम लेने का भी आह्वान किया है। अतः इस्लामी एकता के बहाने धार्मिक बहसों की अनदेखी नहीं की जा सकती और न ही इस प्रकार की बहसों की आड़ में इस्लामी एकता को आघात पहुंचाया जाना चाहिये।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता फूट को इस्लामी जगत के लिए प्राण घातक ज़हर मानते हैं और जो साम्राज्यवादी इस्लामी देशों के स्रोतों को लूटने की चेस्टा में हैं उन्हें मतभेद व फूट पैदा करने का ज़िम्मेदार मानते हैं। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता शीया और सुन्नी मुसलमानों से दूसरों की दुश्मनी को एक लक्ष्य प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य में मानते और कहते हैं कि वह अस्ल इस्लाम से मुकाबला है। इसी आधार पर वरिष्ठ नेता कुछ शीया और सुन्नी गुटों द्वारा एक दूसरे के अपमान को दुश्मनों के लक्ष्यों को व्यवहारिक बनाने की दिशा में किये जाने वाले प्रयास की संज्ञा देते हैं और कड़ाई से दोनों गुटों का आह्वान इस प्रकार के कार्य से दूर रहने के लिए करते हैं। वरिष्ठ नेता कहते हैं” शीया सुन्नी में से हर एक अपने विशेष धार्मिक समारोह, शिष्टाचार, परम्परायें और धार्मिक दायित्वों को अंजाम देते हैं और अंजाम देना चाहिये परंतु रेड लाइन यह है कि इन दोनों की ओर से एसी चीज़ बयान नहीं की जानी चाहिये जिससे दोनों एक दूसरे को इंकारे करें चाहे वह अनभिज्ञता के कारण कुछ शीयों की ओर से हो या निश्चेतना के कारण सलफियों जैसे लोगों की ओर से हो और अगर एसा होता है तो यह वही चीज़ है जो दुश्मन चाहता है। यहां पर भी होशियार रहना चाहिये।

 

 

 

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