Apr ११, २०१८ १६:२३ Asia/Kolkata

हमने बताया था कि इस्लाम में जो कानूनी व्यवस्था और अधिकार हैं और  उनका एक दूसरे से जो संबंध है उन पर विशेष ध्यान दिया गया है।

इसी प्रकार हमने पिछले कार्यक्रम में बताया था कि समस्त इंसानों के एक दूसरे के प्रति जो अधिकार व दायित्व हैं उनका इस्लाम की कानूनी व्यवस्था में निर्धारण व उल्लेख किया गया है। पूरे विश्वास के साथ दावा किया जा सकता है कि मानवाधिकार के संबंध में जो भी दस्तावेज़ और घोषणापत्र हैं उनमें से कोई भी इतना व्यापक व समुचित नहीं है जितना इस्लामी मानवाधिकार।

 

इस्लाम के अलावा जो मानवाधिकार के दस्तावे व घोषणा पत्र हैं उनमें इंसानों के कुछ अधिकारों का उल्लेख है और वे भी नैतिकता के मूल्यवान अधिकारों से खाली हैं। इसी प्रकार जो ग़ैर इस्लामी मानवीय अधिकार हैं उनमें दूसरे वाले पक्ष के अधिकारों को बयान नहीं किया गया है।

इस्लाम की कानूनी व्यवस्था और जो अधिकार हैं वे न  केवल  व्यक्तिगत, सामाजिक और समस्त इंसानों के अधिकार बयान करते हैं बल्कि पारिवारिक क्षेत्रों में भी इंसानों के जो अधिकार हैं उसे भी वह बयान करता है। परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है और इस इकाई का महत्वपूर्ण स्तंभ माता- पिता हैं।

परिवार के सदस्यों के मध्य जितना मां- बाप इंसान के निकट होते हैं उतना कोई भी नहीं होता है। इसी प्रकार इंसान से जितना प्रेम माता- पिता करते हैं उतना कोई भी नहीं करता है। इस आधार पर माता- पिता का सम्मान और मूल्य परिवार में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार संतान के बढ़ने और उसके विकास में माता- पिता की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। जो संतान माता- पिता की कठिन मेहनत और अनथक प्रयास से परवान चढ़ती है उसे माता- पिता द्वारा सहन की गयी कठिनाइयों को नहीं भूलना चाहिये। उसे चाहिये कि मां- बाप के मूल्य व स्थान को समझे और यह जान ले कि महान ईश्वर के बाद माता- पिता हैं जिनके अस्तित्व की वजह से ही वे अस्तित्व में आये हैं। इस्लाम धर्म में माता- पिता पर बहुत अधिक ध्यान दिया गया है और इस्लाम के मार्ग दर्शकों और महान हस्तियों ने भी इस संबंध में बहुत अधिक सिफारिशें की हैं।

 

पवित्र कुरआन के चार सूरों में एकेश्वरवाद के तुरंत बाद मां-बाप के साथ भलाई करने का उल्लेख किया गया है। एकेश्वरवाद के तुरंत बाद मां-बाप के साथ भलाई का उल्लेख इस बात का सूचक है कि इस्लाम मां-बाप के साथ भलाई और सम्मान को कितना महत्व देता है। यह विषय इतना महत्वपूर्ण है कि पवित्र कुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में मां-बाप के साथ भलाई करने की इस हद तक सिफारिश की गयी है कि अगर मां-बाप काफिर व अनेकेश्वरवादी भी हों तब भी उनका आदर- सम्मान अनिवार्य है।

 

संतान मां-बाप के साथ कितनी भी भलाई कर ले फिर भी माता- पिता का जो अधिकार उसकी गर्दन पर है उसे पूरा नहीं कर सकती परंतु जितना संभव है उसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिये विशेषकर बुढ़ापे के समय जब मां-बाप को अधिक ज़रूरत होती है। इंसान को चाहिये कि वह मां-बाप के अस्तित्व को महान ईश्वर की अनुकंपा समझे और उनकी सेवा को मूल्यवान अवसर समझे और महान ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने का प्रयास करे और कभी भी अपने कार्य को पर्याप्त या बड़ा न समझे। क्योंकि इंसान के कर्म का महत्व उसकी नीयत से होता है और मां-बाप की देख-भाल में संतान की जो नीयत होती है वह संतान की देखभाल में मां-बाप की चावना से भिन्न होती है।

 

एक व्यक्ति ने पैग़म्बरे इस्लाम से पूछा कि मेरे मां- बाप बूढ़े हो गये हैं और उनके देखभाल की बहुत ज़रूरत है। मैं उनके साथ वही कर रहा हूं जो उन्होंने बचपने में मेरे साथ किया है। वे लोग उस समय जो कुछ करते थे मैं भी उनके लिए वही कर रहा हूं। यानी खाना खाने के समय उनके मुंह में नेवाला बनाकर डालता हूं, आराम के समय उनके दिल को बहलाता हूं और कपड़ा उतारने और पहनने में उनकी सहायता करता हूं यहां तक कि शौचालय के समय उनकी ज़रूरी मदद भी करता हूं उन्हें पवित्र करता हूं। सार यह कि मैं एक बच्चे की भांति उन सबकी देखभाल करता हूं। क्या इस प्रकार के व्यवहार से मैंने उनका हक अदा कर दिया? इस पर पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया नहीं, क्योंकि उन्होंने जो तुम्हारे साथ किया वह तुम्हारे बड़े होने और तुम्हारी तरक्की की आशा से किया। यद्यपि तुम भी वही कर रहे हो जो उन्होंने किया परंतु तुम यह काम उनकी मौत की प्रतीक्षा के साथ कर रहे हो”

अरबईन सुलैमानी में कहा गया है कि मां- बाप के अपनी संतान पर 80 अधिकार व दायित्व हैं। चालीस अधिकार उस समय हैं जब वे ज़िन्दा हों और चालीस मरने के बाद। चालीस अधिकार जो जीवन में हैं उनमें से 10 का संबंध  शरीर से, 10 का संबंध ज़बान से, दस का संबंध दिल से और दस का संबंध माल से है। जिन दस अधिकारों का संबंध शरीर से है वे इस प्रकार हैं उन दोनों की सेवा की जाये। अच्छी तरह उनका सम्मान किया जाये। उनके आगे व सामने न बैठा जाये। जिस कार्य से ईश्वर ने मना न किया हो तो उसमें उनके आदेशों का पालन किया जाये और जिस चीज़ से मना करें उसे अंजाम न दिया जाये किन्तु उसका अंजाम देना अनिवार्य न हो। ग़ैर अनिवार्य रोज़ा उनकी अनुमति से रखा जाये। उनकी मरज़ी के बिना उस यात्रा पर न जाया जाये जो अनिवार्य हो। जब वे सामने आ जायें तो उनके सम्मान में उठ जाना चाहिये और जब तक वे अनुमति न दें नहीं बैठना चाहिये और जब बैठें तो उनसे नीचे की ओर बैठना चाहिये। जब रास्ता चला जाये तो उनके आगे नहीं बल्कि पीछे चलना चाहिये हां जब रात का अंधेरा हो, कोई खतरा हो, कीचड़ या बर्फ आदि हो तो उनके आगे चलने में कोई दोष नहीं है।  हमेशा उन्हें स्तह की दृष्टि से देखना चाहिये। सदैव उनकी सेवा के लिए तैयार रहना चाहिये।

                       

संतान पर मां- बाप के  दस अधिकार जो ज़बान से संबंधित हैं इस प्रकार हैं। तेज़ आवाज़ में उनसे बात न की जाये। संतान की आवाज़ मां- बाप की आवाज़ से ऊंची नहीं होनी चाहिये। मां -बाप से झगड़ा नहीं करना चाहिये। मां- बाप का नाम लेकर नहीं बुलाना चाहिये बल्कि हे पिता जी या माता जी कहना चाहिये। उनकी बात नहीं काटनी चाहिये। आदेश देने के अंदाज़ में उनसे बात नहीं करनी चाहिये। उन पर चीखना- चिल्लाना नहीं चाहिये। उनकी बात पर ऊफ  नहीं कहना चाहिये। उनसे विनम्रता व शिष्टाचार के साथ बात करनी चाहिये।

संतान पर मां-बाप के अधिकार जो दिल से संबंधित हैं इस प्रकार हैं हमेशा उन दोनों के साथ दयालु होना चाहिये। उन दोनों से हमेशा प्रेम करना चाहिये। यद्यपि आर्थिक दृष्टि से तंगी व परेशानी में ही क्यों न हो। यद्यपि संतान यह सोचे कि उसके मां- बाप ने उसके साथ अच्छाई नहीं की है फिर भी उनसे प्रेम करना चाहिये। इसी प्रकार अगर मां- बाप ग़लती न होने के बावजूद मारें तब भी उनसे प्रेम करना चाहिये यहां तक कि बाप के दोस्त को भी पसन्द करना चाहिये।

 

पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया है कि अपने बाप की दोस्ती को निभाओ और उसे ख़त्म न करो कि ईश्वर तुम्हारा प्रकाश बुझा देगा। अपने बाप की अच्छी परंम्पराओं को ज़िन्दा रखो जैसे खाना खिलाना, प्रचार और शोक सभाओं का आयोजन। उन दोनों की खुशी में खुश रहो और उन दोनों के शोक में भागीदार रहो। उनके दुश्मनों से दोस्ती न करो कि इससे उनको तकलीफ होगी। उनके बुरा- भला कहने से दुःखी न हो। अगर मां- बाप संतान पर अत्याचार करें तो उन पर क्रोधित नहीं होना चाहिये। अगर मां- बाप मारें तो उनके हाथों को चूमना चाहिये। संतान ने मां -बाप का अधिकार अदा किया हो फिर भी कमी का एहसास करना चाहिये। हमेशा दिल में उनकी प्रसन्नता प्राप्त करने की इच्छा रखनी चाहिये। अगर वे बूढ़े हों तो दिल में उन्हें कष्ट पहुंचाने का इरादा भी नहीं करना चाहिये। दिल में हमेशा उनकी लंबी उम्र की तमन्ना करनी चाहिये यद्यपि कष्ट, निर्धनता और उनकी बीमारी से संतान थक क्यों न गयी हो।

मां- बाप का धन पर माल का दस अधिकार भी संतान के लिए यह है कि अपने से पहले उनके लिए कपड़ा ख़रीदे। उन्हें अपने जैसा बल्कि अपने से अच्छा खिलाये। क्योंकि हर चीज में मां- बाप पहले हैं। उनका कर्ज़ चुकाये। उन दोनों की यात्रा का खर्च दे यात्रा चाहे वह यात्रा अनिवार्य हो या अनिवार्य न हो। अगर उनका निधन हो गया हो तो अगर उनकी नमाज़, रोज़ा या हज छूट गया हो तो उनकी ओर से उसे अदा करना चाहिये। अगर उनके पास मकान नहीं है तो उसका प्रबंध करना चाहिये। इसी प्रकार संतान को चाहिये कि अपना धन उनके अधिकार में दे दे ताकि जब भी उनको ज़रुरत हो उससे अपनी ज़रूरत पूरी कर लें। मां- बाप के जो काम हों जैसे डाक्टर के पास जाना, दवा लेना, घर के काम, घर की मरम्मत, अगर मां- बाप का पैसा दूसरों के यहां बाकी है तो उसे लेना या इस जैसे दूसरे कार्य को संतान को स्वयं अंजाम देना या उसके खर्चे को स्वीकार करना चाहिये।   इसी प्रकार उसे अपने धन से उन दोनों को इज्ज़त प्रदान करना चाहिये। इसी प्रकार उसे चाहिये कि उनके धन को अपना धन समझे। मां- बाप जो भी उसके धन में से खर्च कर दें उसे मां- बाप से नहीं कहना चाहिये।

 

मां- बाप के अधिकारों का खयाल रखना उस समय से विशेष नहीं है जब वे ज़िन्दा हों बल्कि उनके मरने के बाद भी उनके अधिकारों का खयाल रखा जाना चाहिये। अगर उनके अधिकारों का खयाल नहीं किया जाता है तो यह औलाद के आक़ यानी त्याग दिन का कारण बनेगा यद्यपि जीवन में उनके अधिकारों का ध्यान रखा गया हो। कभी एसा होता है कि जब इंसान के मां- बाप जीवित होते हैं तो उनके साथ भलाई करता है परंतु मरने के बाद उन्हें भूल जाता है और उनके हक व कर्ज़ को अदा नहीं करता है। ईश्वर से उनके लिए क्षमा याचना नहीं करता है। महान ईश्वर इस प्रकार की संतान को मां- बाप की आक़ की हुई संतान के रूप में पंजीकृत करता है और कभी इसका उल्टा होता है यानी जब मां- बाप ज़िन्दा होते हैं तो संतान उनके साथ भलाई नहीं करती है और मां- बाप उन्हें आक कर देते हैं परंतु जब वे मर जाते हैं तो उनकी संतान उनके कर्ज़ को अदा करती है, उनके लिए भला कार्य अंजाम देती है और महान ईश्वर से क्षमा याचना करती है तो महान व दयालु ईश्वर ऐसी संतान की गणना भले लोगों में करता है।

 

 

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