Apr १६, २०१८ १४:१८ Asia/Kolkata

               इस्लाम धर्म की शिक्षाओं के अनुसार माता- पिता के अधिकारों को उनकी मौत के बाद भी अदा किया जा सकता है और अगर संतान इस बारे में लापरवाही से काम लेती है तो उसने अपने माता- पिता के अधिकारों को अदा नहीं किया।

       इस्लाम धर्म की शिक्षाओं में माता- पिता के अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया गया है। ये अधिकार माता- पिता के जीवन में और उनके मरने के बाद भी हैं। माता- पिता के साथ भलाई करने और उनके सम्मान किये जाने पर इस्लाम धर्म की शिक्षाओं में बहुत बल दिया गया है।

 

अलबत्ता माता- पिता के वित्तीय अधिकार भी हैं। माता- पिता के संयुक्त अधिकारों में से उनका ख़र्च है। यानी ज़रुरत पड़ने की स्थिति में संतान को चाहिये कि वह माता- पिता के ख़र्चे को भी दे इस शर्त के साथ कि संतान के पास माता- पिता का खर्च देने की क्षमता हो। इस चीज़ में कोई अंतर नहीं है कि संतान चाहे लड़का हो या लड़की। अलबत्ता माता- पिता का खर्च पत्नी के खर्च के बाद है। यानी अगर संतान के पास सबका खर्च देने की ताक़त नहीं है तो सबसे पहले उसे चाहिये कि वह पहले पत्नी का खर्च दे और अगर इसके बाद कुछ बचता है तो माता- पिता और अपनी संतान को दे। माता- पिता का खर्च संतान की खर्च की तरह है।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम  आनंदायी जीवन को माता- पिता के साथ अच्छाई करने में मानते और फरमाते हैं” ईश्वर ने चार चीज़ों को चार चीज़ों में रखा है। ज्ञान की बरकत उस्ताद का सम्मान करने में, ईमान के बाकी रहने को ईश्वर की महानता को मानने में, जीवन के आनंद को माता-पिता के साथ अच्छाई करने में और नरक की आग से बचने को सृष्टि को यातना न देने में और जो भलाई न करे उसे जीवन का आनंद नहीं होगा।“

माता- पिता के साथ अच्छाई करना उनके जीवन से विशेष नहीं है बल्कि उनमें मरने के बाद भी हमेशा उनकी याद में रहना चाहिये  और महान ईश्वर से उनकी क्षमा -याचना के लिए दुआ करना चाहिये। यहां यह जानना रोचक होगा कि इस्लाम धर्म में मां- बाप के अधिकारों को उनकी मौत के बाद भी अदा किया जा सकात है और अगर औलाद इस संबंध में संकोच व लापरवाही से काम लेती है तो उसने मां- बाप के अधिकार को अदा नहीं किया है। औलाद मां- बाप के मरने के बाद भी उनके लिए भलाई कर सकती है। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं” स्वर्ग में जब एक इंसान का दर्जा ऊंचा होगा तो वह कहेगा कि यह मेरा दर्जा क्यों ऊंचा हो रहा है? तो उससे कहा जायेगा कि तेरी औलाद ने तेरे लिए क्षमा याचना की है।“

Image Caption

 

मां- बाप के मरने के बाद औलाद पर उनके चालिस अधिकार हैं और इसका उल्लेख इस्लामी रवायतों और शिक्षाओं में हुआ है। ये अधिकार इस प्रकार हैं औलाद को चाहिये कि जब मां- बाप मर जायें तो उनके गुस्ल व कफन और  नमाज और दफ्न में जल्दी करे। उनके उपर जो ज़्यादा ख़र्च हो रहा है उससे नाराज़ न हो। उनके मरने के बाद के कार्यक्रम को अच्छी तरह अंजाम दे। मां- बाप की वसीयत के अनुसार कार्य करे। उसके खिलाफ या दूसरों की मर्ज़ी के अनुसार काम न करे। मां- बाप को दफ्न करने की रात ईश्वर की राह में दान दे। उनके दफ्न होने की पहली रात को विशेष नमाज़ नमाज़े वहशत पढ़े। उनके लिए दुआ करे। अगर मां- बाप के मरने के बाद कोई पवित्र कुरआन की तिलावत करता है या उनकी आत्मा की शांति के लिए इस जैसा कोई दूसरा कार्य करता है तो अगर उसका पेशा है तो फौरन उसका जो पैसा होता है उसे दे और अगर वह ईश्वर की प्रसन्नता के लिए अंजाम देता है तो उसका आभार व्यक्त करे। इसी तरह अगर बाप ने वसीयत की है कि मेरे मरने के बाद मेरे माल के तीसरे हिस्से को अलग किया जाये तो अविलंब यह कार्य करे और हर वारिस को उसका अधिकार दे दे।

इसी तरह मां- बाप के लिए दुआ  व क्षमा याचना करना और उनके उपर अनिवार्य दायित्वों का निर्वाह करना औलाद की ज़िम्मेदारी है। इसी तरह इस्लामी शिक्षाओं में आया है कि औलाद को चाहिये कि प्रतिदिन मां- बाप के लिए कुरआन की तिलावत करे क्योंकि महान ईश्वर इससे कुरआन पढ़ने वाले को, उसके मां- बाप को और उसकी औलाद को क्षमा कर देगा। इसी तरह हर नमाज़ विशेषकर नमाज़े शब के बाद उनके लिए दुआ करे। प्रतिदिन उनकी  ओर से दान दे जिसका पुण्य 70 हज़ार के बराबर होगा। अगर पढ़ सकता है तो हर दिन- मां बाप की नमाज़ पढ़े। मां- बाप के मरने से उस पर जो मुसीबत आ पड़ी है उस पर धैर्य करे। उनकी अनिवार्य नमाज़ों को पढ़े या किसी दूसरे को पैसा देकर पढ़वा ले। इसी तरह उनके जो रोज़े छूट गये हैं उसे रखे या किसी से रखवा ले। अगर विशेष दिनों में रोज़े रखता है तो उसके पुण्य को मां- बाप के लिए भेजे।

 

अगर कोई किसी के मां- बाप से नाराज़ हो और यह खयाल करे कि उन्होंने हमारे ऊपर अत्याचार किया है तो औलाद को चाहिये कि जिस प्रकार संभव हो वह उस  व्यक्ति को राज़ी करे। यानी औलाद को चाहिये कि माता- पिता के शत्रु को राज़ी करे और माता पिता की ओर से भिखारी को इस नियत से दान दे कि अगर किसी का कोई अधिकार हमारे मां -बाप की गर्दन में हो तो वह अदा हो जाये। खुदा न खास्ता एसा हो कि उन्होंने किसी का कोई माल गस्ब कर लिया है यानी ले लिया है और औलाद जानती है कि यह किसका माल है तो उसे चाहिये कि वह उसके स्वामी को लौटा दे यद्यपि जिनका माल ग़स्ब किया गया है और वे कोई दावा भी नहीं कर रहें हो तब भी माल को उनके हवाले किया जाना चाहिये। इसी  प्रकार अगर मां- बाप ने खुम्स या ज़कात नहीं दिया है तो उसे भी देना चाहिये।

मां- बाप की क़ब्रों पर जाना और उनकी अच्छी परंपराओं को ज़िन्दा रखना भी उनके मरने के बाद के अधिकार हैं। इस्लामी रवायतों के अनुसार औलाद को चाहिये कि मां -बाप की कब्रों पर जाये। मां- बाप की क़ब्र पर जाने का पुण्य एक हज करने के बराबर है। पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया है कि जो भी अपनी मां की कब्र देखने के लिए जाये तो फरिश्ते उसकी कब्र के दर्शन के आते हैं। इसी तरह औलाद को चाहिये कि क़ब्रिस्तान में कुरआन और आयतुल कर्सी की तिलावत करे, सलवात पढे और उसका पुण्य माता- पिता की आत्मा के लिए भेजे। इसी प्रकार औलाद जब पैग़म्बरे इस्लाम या उनके पवित्र परिजनों की कब्रों के दर्शन के लिए जाये तो अपने मां -बाप की नियत से ज़ियारत पढ़े। उनकी तरफ से उमरा करे और अगर मां- बाप से अनिवार्य हज छूट गया है तो उसे अंजाम दे। अगर उनके उपर हज अनिवार्य नहीं था तो उनकी ओर से मुस्तहब हज अंजाम दे। मां- बाप के देखने के स्थान पर चाचा, चाची, मौसी और मामू से मुलाकात के लिए जाना चाहिये और मां- बाप जो उनके साथ अच्छाई करते थे उनकी तरफ से उसे अंजाम देना चाहिये। अगर मां -बाप हर सप्ताह या महीने में शोक सभा कराते थे तो औलाद को भी कराना चाहिये। इसी तरह अगर मां- बाप हर वर्ष खाना खिलाते थे या भेड़ कुर्बानी करते थे तो औलाद को चाहिये कि वह भी अपने मां- बाप की अच्छी परंमरा को ज़िन्दा रखे। अगर कोई भला कार्य अधूरा रह गया है तो औलाद को चाहिये कि वह उसे पूरा करे। उदाहरण के तौर पर अगर मां -बाप नहर बनवा रहे थे, बाग लगवा रहे थे, मस्जिद बनवा रहे थे या किताब लिखे थे पर वह छप नहीं सकी थी या इसी प्रकार के दूसरे अच्छे कार्य।

 

इसी तरह अगर मां- बाप ने यादगार के रूप में किताब, मस्जिद, इमाम बाड़ा और उपचार केन्द्र आदि छोड़ा है तो औलाद को चाहिये कि उसकी देखभाल करे ताकि वे उससे प्रसन्न रहें।

औलाद को चाहिये कि एसा काम न करें जिससे दूसरे उसके मां- बाप का अपमान करें। इस्लामी शिक्षाओं में बयान किया गया है कि औलाद को किसी के मां- बाप को बुरा- भला नहीं कहना चाहिये अन्यथा दूसरे भी उसके मां - बाप को बुरा भला कहेंगे। समाज में औलाद को एसा कार्य नहीं करना चाहिये जिससे दूसरे उसके मां- बाप को बुरा- भला कहें। दूसरों को कष्ट न पहुंचाये और लोगों पर अत्याचार न करे। लोगों के साथ भलाई करनी चाहिये ताकि लोग उसके मां- बाप को दुआ दें। यह कार्य मां- बाप के दर्जे के ऊंचा होने और उसकी प्रतिष्ठा का कारण बनेगा। मां- बाप के मित्रों और जान- पहचान के लोगों का सम्मान करना चाहिये क्योंकि वे जब भी औलाद को देखेंगे तो उसके मां- बाप को याद करेंगे। जब भी औलाद यह सोचे कि मां- बाप के दोस्त किसी मुश्किल में फंस गये हैं या फंसने वाले हैं तो उनकी सहायता करनी चाहिये। अगर औलाद ने मां- बाप की ज़िन्दगी में उनके अधिकारों को अदा करने में संकोच से काम लिया है तो उनके मरने के बाद उसे अंजाम देने का प्रयास करे ताकि उन दोनों की प्रसन्नता प्राप्त हो सके। अच्छे कार्य को हमेशा अंजाम दे। कभी भी मां -बाप को न भूले। उनके नाम का सम्मान उससे भी ज्यादा करे जब वह ज़िन्दा थे। इसी प्रकार उनकी कब्रों का आदर- सम्मान करे। इस बात की अनुमति न दे कि कोई उन्हें बुरे नामों से याद करे या उनकी कब्रों का अपमान करे। अगर वे मोमिन थे तो उनसे मुलाकात की तमन्ना करे। जिस तरह से पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन अपने पिताओं से मुलाकात की अभिलाषा करते व रखते थे। अगर मां- बाप की कब्रें खराब हो गयी हैं तो वह उनकी मरम्मत कराये और उनकी कब्रों को खराब होने न दें।

हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की रिसालये हुक़ूक नाम की एक किताब है जिसमें उन्होंने मां- बाप के अधिकार को बयान किया है। इमाम फरमाते हैं तुम्हारी मां का अधिकार यह है कि तुम जान लो कि उसने तुम्हें एसी जगह रखा था जहां कोई नहीं रखता और उसने तुम्हें दूध पिलाया कि कोई नहीं पिलाता। उसने पूरे अस्तित्व से तुम्हारी रक्षा की है और वह समस्त कठिनाइयों को खुशी- खुशी सहन करती है कि तुम्हारा पेट भरे और वह खुद भूखी रहती है। वह अपना खयाल किये बिना तुम्हें वस्त्र पहनाती है। तुम्हें तृप्त करती है और स्वयं प्यासी रहती है। वह स्वयं धूप में रहती है और तुम पर छाया करती है। कठिनाइयां सहन करके तुम्हारे आराम का प्रबंध करती है वह अनिद्रा का कष्ट सहन करती है और तुम्हें आराम से सुलाती है। उसका पेट तुम्हारे अस्तित्व का पात्र है और उसका आंचल तुम्हारा शरणस्थल है। उसकी छाती वह उबलता हुआ सोता है जो तुम्हारी प्यास बुझाता है। रात- दिन की कठिनाइयों को तुम्हारे आराम के लिए स्वीकार करती है तो तुम्हें चाहिये कि तुम उसके प्रेम और उठाये गये कष्ट का आभार व्यक्त करो और तुम कदापि उसका आभार व्यक्त नहीं कर सकते किन्तु यह कि ईश्वर तुम्हारी सहायता करे किन्तु तुम्हारे बाप का हक़ यह है कि तुम जान लो कि वह तुम्हारी अस्ल है और तुम उसकी शाख हो अगर वह न होता तो तुम भी न होते। तो तुम जब भी अपने अंदर कोई एसी चीज़ देखो जिससे तुम्हें खुशी हो तो जान लो कि वह चीज़ बाप की वजह से तुम्हारे पास है और तुम उसके लिए ईश्वर का आभार व्यक्त करो।

 

टैग्स