May ०६, २०१८ १४:३४ Asia/Kolkata

सऊदी अरब, शासक सलमान के सत्ता में आने के बाद से इराक़ के साथ संबंध बेहतर करने में लगा हुआ है।

इसी लक्ष्य के तहत युवराज मोहम्मद बिन सलमान मार्च या अप्रैल में बग़दाद का दौरा करने वाले थे लेकिन इराक़ी जनता के कड़े विरोध के कारण उनका यह दौरा निरस्त हो गया। पिछले दो कार्यक्रम में दोनों देशों के संबंधों और उसकी बहाली के लक्ष्य की समीक्षा हुयी। आज के कार्यक्रम में इस संबंध बहाली के मार्ग में मौजूद रुकावटों की समीक्षा होगी।

सऊदी अरब को इराक़ के साथ संबंध बहाली के मार्ग में बड़ी चुनौतियों का सामना है। इन बड़ी चुनौतियों में इराक़ में सऊदी अरब की पिछले 15 साल की नकारात्मक गतिविधियों का भी रोल रहा है। सऊदी अरब ने इराक़ में राजनैतिक स्थिरता के मार्ग में बहुत रोड़े अटकाए।

टीकाकार वली अस्र का मानना है कि इराक़ में नई सरकार का असर पश्चिम एशिया के नागरिकों में सबसे ज़्यादा अरब शियों पर पड़ा और शियों को अपनी शक्ति का एहसास हुआ।

इस बारे में टीकाकार सय्यद अमीर नियाकुई कहते हैं, "सऊदी शासन ने बासियों सहित तकफ़ीरी गुटों और तारिक़ अलहाशमी जैसे विरोधी धड़े के नेताओं का समर्थन कर इस बात की कोशिश की कि इराक़ में आबादी के आधार पर सत्ता में भागीदारी की प्रक्रिया को बाधित करे। इस नीति का इराक़ में जारी अशांति में सीधा रोल रहा है, यहां तक कि इराक़ में सद्दाम के बाद आतंकवादी गतिविधियों के आरंभ से सऊदी अरब का रोल स्पष्ट रहा है।"

इस परिप्रेक्ष्य में सऊदी अरब ने इराक़ में नई राजनैतिक व्यवस्था को मज़बूत होने से रोकने के लिए आतंक को हथकंडे के तौर पर इस्तेमाल किया जिसके नतीजे में लाखों बेगुनाह हताहत व घायल हुए। इराक़ के कुछ क्षेत्रों के दाइश द्वारा अतिग्रहण से पहले तक इस देश में ज़्यादातर आतंकवादी हमले सऊदी आतंकियों ने किए। शियों के बारे में वहाबी धर्मगुरुओं के दृष्टिकोण और उन्हें राफ़ज़ी ठहराए जाने का भी इराक़ में सऊदी नागरिकों के आतंकवादी व आत्मघाती हमले के बढ़ने में बड़ा रोल रहा है।

इस बारे में अमरीकी पीस संस्था के लिए लेख लिखने वाले टीकाकार जोज़फ़ मैक्मिलन का कहना है, "हालांकि इराक़ में विदेशी लड़ाकों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, लेकिन इराक़ में आत्मघाती बम धमाके ज़्यादातर विदेशी नागरिकों ने किए और इन धमाकों का 75 फ़ीसद सऊदियों ने अंजाम दिया।"      

इस बात के ठोस सुबूत मौजूद हैं कि सऊदी अरब इराक़ में ग़ैर सऊदी विद्रोहियों को पैसे दे रहा है। इस बीच सऊदी अरब ने अलक़ाएदा से जुड़े आतंकवादी गुटों जैसे ज़रक़ावी और तकफ़ीरी वहाबी आतंकवादी दाइश गुट को वजूद देने में सीधे तौर पर रोल निभाया और इन गुटों को इराक़ में वहाबी तकफ़ीरी विचारधारा को फैलाने के लिए इस्तेमाल किया। इराक़ से मिली सऊदी अरब की सीमाओं ने दाइश गुट को हथियार सहित रसद पहुंचाने के लिए पुल का काम किया। इस बारे में पश्चिम एशिया मामले के टीकाकार सअदुल्लाह ज़ारई का कहना है,"जून 2014 में पश्चिमी इराक़ के सुन्नी बाहुल प्रांतों का अतिग्रहण हुआ और दाइश कम ख़र्च और इराक़ के भीतर से होने वाले समन्वय जैसे अंबार, नैनवा, सलाहुद्दीन, बाबिल, कर्कूक और दियाला प्रांतों की साठगांठ से शक्ति के संतुलन  को अपनी ओर झुकाने में सफल रहा, हालांकि उसे इस क्षेत्र पर थोपने में अमरीका, तुर्की और सऊदी अरब ने गुप्त रूप से मदद की थी। इस बीच दाइश ने इराक़ में ऐसे जघन्य अपराध किए कि वैसे अपराध वह सीरिया में करने से बचता रहा था, जैसे सलाहुद्दीन प्रांत में स्थित इराक़ की स्पाइकार छावनी के 1700 कैडिट छात्रों के जनसंहार की घटना जो जून 2014 में घटी थी।"

इराक़ में सऊदी अरब के विध्वंसक रोल में शिया-सुन्नी मतभेद को बढ़ावा देना और उसे इराक़ की राष्ट्रीय एकता सरकार के ख़िलाफ़ जनमत को भड़काने के तौर पर इस्तेमाल करना भी शामिल है।

पश्चिम एशिया मामलों के टीकाकार अली अकबर असदी का मानना है, "सऊदी अधिकारियों की कोशिश है कि शिया-सुन्नी मतभेद को अपनी विदेश नीति में इस्तेमाल करें। इस नीति के तहत जिसे सऊदी अरब क्षेत्र में शक्ति के संतुलन के लिए इस्तेमाल करना चाहता है, सऊदी अरब ने अपने लड़ाकों को इराक़ भेजने से परहेज़ किया और दाइश के विद्रोहियों का समर्थन किया।"

विकीलीक्स के दस्तावेज़ के अनुसार, इराक़ में राजनैतिक प्रक्रिया को नाकाम बनाने के लिए सऊदियों का पैसा इस्तेमाल हुआ। तारिक़ अलहाशेमी, उसामा नुजैफ़ी, राफ़े अलईसावी जैसे इराक़ी नेताओं व अधिकारियों तथा नूरी मालेकी की सरकार को गिराने के लिए कुछ धार्मिक संगठनों के साथ सऊदियों के गुप्त संबंध, इराक़ में नई सरकार को क़दम जमाने से रोकने के लिए आले सऊद शासन द्वारा उठाए कुछ राजनैतिक क़दम थे।

इन विध्वंसक गतिविधियों के कारण इराक़ में शिया-सुन्नी सहित इराक़ी समाज, देश के भीतर पूंजी निवेश व पुनर्निर्माण प्रक्रिया के नाम पर सऊदियों की किसी भी रूप में मौजूदगी का कड़ाई से विरोध कर रहा है। वास्तव में इराक़ में जनमत का मानना है कि सऊदी अरब ने बम धमाकों के बजाए पैसे के ज़रिए साफ़्ट वॉर की नीति अपनायी है। यह इराक़ के साथ संबंध बहाली की प्रक्रिया के मार्ग में सऊदी अरब के सामने दूसरी चुनौती है। इस चुनौती की वजह से भी सऊदी विदेश मंत्रालय इस देश के युवराज मोहम्मद बिन सलमान के इराक़ दौरे के कार्यक्रम का खंडन करने पर मजबूर हुआ वह भी ऐसी हालत में जब इराक़ी प्रधान मंत्री हैदर अलएबादी और इस देश की मित्रता समिति के सदस्य आमिर अलफ़ाएज़ ने एलान किया था कि मोहम्मद बिन सलमान निकट भविष्य में बग़दाद का दौरा करेंगे।                      

 

मोहम्मद बिन सलमान के बग़दाद दौरे की ख़बर के एलान के बाद इराक़ के विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक प्रदर्शन इस वास्तविकता को दर्शाता है कि इराक़ी जनता के मन से सऊदी अरब की विध्वंसक गतिविधियों का असर उसके पोट्रो डॉलर से दूर नहीं होगा। दूसरी ओर इराक़ी जनता का सुव्यवस्थित विरोध यह दर्शाता है कि संबंध बहाली के चरण में भी इराक़ी जनता को सऊदी अरब पर भरोसा नहीं है।

यह भी एक सच्चाई है कि सऊदी अरब, इराक़ के साथ संबंध बहाली के चरण में इस देश में न सिर्फ़ यह कि राजनैतिक व्यवस्था के जमने, एक मज़बूत राष्ट्रीय एकता सरकार के वजूद में आने और इस देश के विकास के मार्ग पर बढ़ने का समर्थन नहीं कर रहा है बल्कि अपने उसी पुराने ढर्रे पर चल रहा है। जिसके तहत उसकी ओर से इराक़ में प्रजातंत्र को कमज़ोर करने के लिए भौतिक हथकंडों का इस्तेमाल शामिल है। 27 साल बाद बग़दाद में रियाज़ के पहले राजदूत सामिर सबहान का 2015 और 2016 में इराक़ सरकार के ख़िलाफ़ जनता के प्रदर्शन में नकारात्मक रोल, जिसका पर्दाफ़ाश होने के बाद उन्हें तुरंत इराक़ से बाहर निकाल दिया गया, इराक़ के संबंध में सऊदी शासन की नई रणनीति की स्पष्ट मिसाल है।

इसी परिप्रेक्ष्य में अंतर्राष्ट्रीय मामलों के टीकाकार हसन हानी ज़ादे का मानना है, "सऊदी अरब का धार्मिक धड़ों के बीच फूट डालने का पुराना इतिहास रहा है कि जिसकी एक स्पष्ट मिसाल लेबनान है जहां उसने अमल आंदोलन और हिज़्बुल्लाह के बीच 1988 से 1994 के बीच ऐसा मतभेद पैदा किया कि दोनों के बीच सैन्य झड़प हुयी। अब सऊदी अरब ने इराक़ में भी धार्मिक मतभेद को हवा देने का इरादा किया है।"                 

 

इराक़ में मज़बूत राष्ट्रीय सरकार के गठन को रोकना और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के लिए धार्मिक मतभेद फैलाया जा रहा है। आले सऊद शासन का यह व्यवहार इराक़ में चौथे ससंदीय चुनाव के अवसर पर भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। सऊदी अरब पश्चिमी देशों में ख़ास तौर पर अमरीका के साथ मिल कर 12 मई को इराक़ के संसदीय चुनाव में उस धड़े को अधिक कुर्सी दिलाने की कोशिश में लगा हुआ है जो इराक़ी समाज के बहुमत की पहचान का विरोधी है और इस तरह सऊदी अरब इराक़ के राजनैतिक ढांचे में पैठ बनाना चाहता है।

 

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