ईश्वरीय आतिथ्य- 5
रमज़ान का महीना जारी है।
रमज़ान वह महीना है जिसके बारे में पैगम्बरे इस्लाम (स) ने फरमाया है कि रमज़ान का महीना ईश्वर के निकट सब से अच्छा महीना है, उसके दिन सब से अच्छे दिन, उसकी रातें सब से अच्छी रातें और उसके क्षण सब से अच्छे क्षण हैं। इस महीने में सांस लेना, ईश्वर का गुणगान करना है, सोना , उपासना है, इस महीने के कर्म स्वीकार होते हैं और दुआएं पूरी होती हैं। इस लिए इस महीने में सच्ची नीयत और पवित्र ह्रदय के साथ, अपने पालनहार को बुलाएं ताकि वह तुम्हें इस महीने में रोज़ा रखने और क़ुरआने मजीद की तिलावत का अवसर प्रदान करे।
एक निर्धारित समय तक खाने पीने से दूरी, रमज़ान की मुख्य विशेषता है लेकिन सवाल यह है कि इस पवित्र महीने में सब से अच्छा काम क्या है? यह वह सवाल है जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने पैगम्बरे इस्लाम से उनके उस भाषण के बाद पूछा जिसमें उन्होंने रमज़ान की विशेषताओं का वर्णन किया था। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने पूछा था कि हे ईश्वरीय दूत! इस पवित्र महीने में सब से अच्छा कर्म क्या है? तो उनके उत्तर में पैगम्बरे इस्लाम ने फरमाया कि, इस पवित्र महीने में सब से अच्छा कर्म, ईश्रर की ओर से वर्जित कामों से दूर रहना है।
रमज़ान के महीने में रोज़ा रखने वाला हालांकि भूख और प्यास सहन करता है लेकिन उसके बदले उसे ऐसी चीज़ें मिलती हैं जो बहुत मूल्यवान हैं। रोज़ा रखने वाला भूखा और प्यासा रह कर जो सब बड़ा इनाम प्राप्त करता है वह, उन चीज़ों से दूरी है जिनसे ईश्वर ने मनुष्य को रोका है। क्योंकि यह किसी के लिए भी बहुत बड़ा इनाम है। रोज़ा रखने वाला, भूख और प्यास सहन करके, अपनी सहन शक्ति बढ़ाता है और इस तरह से उसे हराम काम और चीज़ों से बचने की शक्ति भी मिलती है और यह " तक़वा " अर्थात ईश्वरीय भय है। तक़वा वास्तव में वह कर्तव्य बोध और प्रतिबद्धता है जो दिल में धर्म पर आस्था के समा जाने के बाद मनुष्य में पैदा होती है और यह चीज़ मनुष्य को पापों से रोकती और अच्छाइयों की ओर ले जाती है।
तक़वा या ईश्वरीय भय के विभिन्न चरण होते हैं कभी किसी में " तक़वा" इस हद होता है कि वह नर्क के भय से हराम काम नहीं करता । यह साधारण चरण है बल्कि न्यूनतम चरण है जो धर्म पर विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति में होना चाहिए इसके बाद के चरण में पहुंचने वाला मनुष्य केवल हराम व वर्जित चीज़ों से दूरी ही नहीं करता बल्कि उन कामों और चीज़ों से भी दूर रहता है जिनके हराम होने का उसे शक होता है । यह विशेष तक़वा है लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो हराम या संदिग्ध रूप से हराम चीज़ों से ही नहीं बचते बल्कि वह उस चरण पर पहुंच चुके होते हैं कि वह हलाल चीज़ों से भी बस आवश्यकता भर लाभ उठाते हैं। यह वास्तव में तकवा का उच्च दर्जा है।
एक आध्यात्मवादी से " तक़वा" के बारे में पूछा गया तो उसने कहाः क्या कभी आप कांटों भरी राह पर चले हैं? सवाल करने वाले ने कहा हां तो उसने कहाः कैसे आगे बढ़े? सवाल पूछने वाले ने कहा कि पूरी राह कांटों से बच बच कर चलता रहा ताकि कोई कांटा पैरों में न चुभ जाए। उस आध्यात्मवादी ने कहा कि धर्म में भी यही स्थिति है और धर्म में भी एेसे ही सतर्क रहें ताकि उच्च स्थान तक पहुंच सको। छोटे बड़े पापों से बचें कि तक़वा यही है और उस व्यक्ति की तरह बनो जो कांटों भरी राह पर चलता है । इस प्रकार से हमने देखा कि तक़वा के विभिन्न चरण हैं और हर व्यक्तिअपनी अपनी क्षमता के अनुसार इस के विभिन्न चरणों तक पहुंच सकता है वह जितना हराम कामों और पापों से दूर होगा, ईश्वर से उतना ही निकट होगा।
एक महीने तक रोज़ा रखने से, गलत आदतों को छोड़ने में मदद मिलती है। रमज़ान में मिले अवसर को प्रयोग करके रोज़ा रखने वाला, अपने जीवन में बुनियादी परिवर्तन लाता है और अपना स्वभाव बदलता है और अपने जीवन में नये नये परिवर्तनों का अनुभव करता है। रोज़ा रखने वाला अपनी आंतरिक इच्छाओं के दबा कर, अपनी आत्मशक्ति को मज़बूत करता है । जो इन्सान विभिन्न प्रकार की खाने पीने की चीज़े अपने पास रखता है और जब जी में आता है उसे खा लेता है वह नहर व नदी के किनारे उगने वाले पेड़ की तरह होता है जो बड़ी आसानी से फलते फूलते हैं लेकिन अगर नहर कर पानी सूख जाए तो उसके बिना कुछ दिन भी हरे भरे नहीं रह सकते। लेकिन जो पेड़ रेगिस्तानों में पहाड़ का सीना चीर कर उगते हैं वह आरंभ से ही आंधी व तूफान का सामना करते करते फलते फूलते हैं इस लिए उन्हें इनकी आदत होती है और वह बेहद मज़बूत होते हैं । रोज़ा भी मनुष्य की आत्मा को इसी प्रकार से मज़बूत बनाता है और मनुष्य को कठिन परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम बना देता है क्योंकि रोज़ा, इधर उधर भटकने वाली मन की इच्छाओं पर लगाम कसता है।
तक़वे की भांति रोज़े के भी कई चरण हैं। आध्यात्मवादियों ने रोज़े को तीन प्रकारों में बांटा है। साधारण रोज़ा, विशेष रोज़ा और अति विशिष्ट रोज़ा। साधारण रोज़ा, खाने पीने और मन की इच्छाओं से दूरी है। जब मनुष्य खाने पीने की चीज़ों और रोज़े को भंग करने वाली सभी चीज़ों से परहेज़ करता है तो वह इस प्रकार से अपना कर्तव्य पूरा कर देता है। यह रोज़े का पहला और सब से आसान चरण है। जैसा कि पैगम्बरे इस्लाम ने फरमाया है कि ईश्वर ने रोज़ा रखने वाले पर सब से आसान चीज़ जो वाजिब की है वह यह है कि वह खाने पीने से परहेज़ करे।
रोज़े के उच्च चरण में , रोज़ा दार, रोज़े को भंग करने वाली चीज़ों से ही दूरी नहीं करता बल्कि वह ईश्वर की ओर से वर्जित किये गये हर काम से दूरी करता है। पैगम्बरे इस्लाम के पौत्र और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पुत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम रमज़ान से विशेष अपनी एक दुआ में कहते हैंः
हे ईश्वर तू इस महीने के रोज़ों द्वारा हमारी मदद कर ताकि हम अपने शरीर के अंगों को तेरी अवज्ञा से सुरक्षित रहें और उन्हें एेसे कामों में प्रयोग करें जिनसे तुम प्रसन्न हो, ताकि हम अपने कानों से गलत बात न सुनें ताकि अपनी आंखों से निर्रथक चीज़ें न देखें ताकि अपने हाथों को हराम की ओर न बढ़ाएं ताकि अपने पैरों को उस ओर न बढ़ाएं जिस ओर जाने से हमें रोका गया हो ताकि हम अपने पेटों में केवल उन्हीं चीज़ों को जगह दें जिन्हें तूने वैध किया है ताकि अपनी ज़बानों पर वही लाएं जिसकी तूने खबर दी है और बताया है।
इतिहास की किताबों में बताया गया है कि एक महिला, रोज़ा रखे थी लेकिन अपने पड़ोसी को हमेशा बुरा भला कहती रहती थी और उसे दुखी करती। इस का पता पैगम्बरे इस्लाम को चला तो पैगम्बरे इस्लाम ने आदेश दिया कि उस महिला के लिए खाने का इंतेज़ाम किया जाए। फिर पैगम्बरे इस्लाम ने उस महिला से खाना खाने को कहा। उस महिला ने कहा हे ईश्वरीय दूत! मैं कैसे खा सकती हूं मैं तो रोज़ा रखे हूं। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि किस प्रकार दावा करती हो कि तुम रोज़ा रखे हो जब कि अपने पड़ोसी को बुरा भला कहती हो? जान लो कि रोज़ा सिर्फ खाने पीने से बचना ही नहीं है। ईश्वर ने रोज़े को करनी व कथनी में बुराइयों से रुकावट बनाया है। कितने कम हैं रोज़ा रखने वाले और कितने ज़्यादा हैं भूखे रहने वाले। इस प्रकार से यह स्पष्ट होता है कि जो लोग रोज़ा रखने के लिए सिर्फ भूखे और प्यासे रहने को ही पर्याप्त समझते हैं वह इस ईश्वरीय दावत के आध्यात्मिक लाभाों से वंचित रह जाते हैं।
रोज़े के अधिक ऊंचे चरण में जो विशेष रोज़ा होता है , उसमें रोज़ा रखने वाला केवल खाने पीने से ही नहीं बचता बल्कि वह अपने सोच में भी पवित्रता लाता है और पाप के बारे में सोचता भी नहीं ताकि इस प्रकार से वह पवित्र मन व ह्रदय के साथ ईश्वरीय आथित्य का आघ्यात्मिक लाभ उठाए। रोज़ा रखने वाले की सब से पवित्र भावना यह होती है कि वह रोज़ा स्वर्ग की लालच या नर्क के भय से नहीं रखता बल्कि रोज़ा इस लिए रखता है क्योंकि उसका आदेश ईश्वर ने दिया है और वह ईश्वर को इस योग्य समझता है जिसके हर आदेश का पालन किया जाना चाहिए और इस प्रकार की भावना के साथ रोज़ा रखने वाले के मन में बस एक ही चाहत होती है कि वह इस प्रकार से ईश्वरीय आदेशों का पालन करके , उसकी निकटता का असीम आनंद प्राप्त कर ले। इस प्रकार का रोज़ा ईश्वर के वही दास रखते हैं जिन्होंने लंबे समय तक स्वंय को पवित्र बनाने के लिए परिश्रम किया हो ऐसे लोग जब इस भावना के साथ रोज़ा रख कर ईश्वर को पुकारते हैं तो ईश्वर तत्काल उनकी पुकार का उत्तर देता है। पैगम्बरे इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि जब रमज़ान का महीना आ जाता तो पैगम्बरे इस्लाम के गालों का रंग बदल जाता, वह अधिक नमाज़ पढ़ने लगते और अल्लाह से दुआ करते समय बहुत ज़्यादा गिड़गिड़ाने लगते थे।
वास्तविक रोज़ादार रोज़े से प्राप्त होने वाली पवित्रता , सही बोध व समझ के साथ अपने शरीर और अपनी आत्मा को उन सभी कामों और चीज़ों से दूर रखता है जिनसे ईश्वर ने उसे रोका है यहां तक कि पापों के बारे में सोचने से भी बचता है। इस प्रकार की सतर्कता की वजह से मनुष्य की आत्मा , दर्पण की भांति चमकने लगती है और मनुष्य के भीतर बहुत बड़ा परिवर्तन आ जाता है और यही रोज़े का उच्च उद्देश्य है। जो लोग साधारण रोज़ा रखने हैं उनमें और विशेष प्रकार का रोज़ा रखने वालों में अंतर , उन दो तैराकों की भांति होता है जिनमें से एक केवल पानी के ऊपर तैरता हो और केवल समद्र की लहरों को ही देख पाता हो और दूसरा वह हो जो समुद्र की तह में उतर कर तैरता हो और जल के नीचे मौजूद विशाल जगत को भी अपनी आंखों से देखता हो। (Q.A.)