Aug २०, २०१८ १५:४३ Asia/Kolkata

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई का कहना है कि 15 ख़ुरदाद वर्ष 1342 हिजरी शम्सी एक बहुत ही महत्वपूर्ण मोड़ था।

इसका कारण यह है कि 15 ख़ुरदाद सन 1342 को एक घटना घटी थी, इस घटना ने उस संवेदनशील और ख़तरनाक चरण में धर्मगुरुओं से जनता के संबंधों को उजागर किया। उस वर्ष आशूर के दिन जो 13 ख़ुरदाद को पड़ा था, महान इमाम ख़ुमैनी ने मदरसे फ़ैज़िया में एक ऐतिहासिक और निर्णायक भाषण दिया। उसके बाद इमाम ख़ुमैनी को गिरफ़्तार कर लिया गया और सामान्य रूप से 15 ख़ुरदाद को तेहरान में क़ुम में और इसी प्रकार देश के दूसरे शहरों में जनता ने विशाल प्रदर्शन किए और 15 ख़ुरदाद को एक जनक्रांति अस्तित्व में आ गयी।

रज़ा ख़ान और उसके पुत्र मुहम्मद रज़ा पहलवी ने ईरानी जनता की धार्मिक और सांस्कृतिक मांगों पर अधिक ध्यान नहीं दिया और इसी प्रकार उन्होंने अपने राष्ट्र की सामाजिक व आर्थिक आवश्यकताओं और मांगों पर भी ध्यान नहीं दिया और देश में भय और घुटन का वातावरण उत्पन्न करके व्यवहारिक रूप से अपनी बादशाही के ताबूत में अंतिम ठोंक दी थी।  मुहम्मद रज़ा पहलवी ने जनता पर भरोसा और युवाओं के हाथों देश के विकास पर भरोसा करने के बजाए अमरीका से आसरा लगाए रखा और कभी भी यह नहीं सोचा था कि उसकी सरकार इसी जनता के हाथों तबाह व बर्बाद हो जाएगी। जनता का क्रोध और उनकी आवाज़, इमाम ख़ुमैनी के गले से निकल रही थी और उनके दूरदर्शी और सूझबूझ वाले मार्गदर्शन के कारण शाही सरकार का पतन हो गया और देश में इस्लामी क्रांति आ गयी।

 

ईरानी इतिहास पर नज़र डालने से यह बात साफ़ हो जाती है कि इस्लामी क्रांति पहली चिंगारी वर्ष 1962 और 1963 में लगी थी। जब शाह ने अमरीका की सहमति से प्रांतीय संघों के विधेयक को अपनी सुधार कार्यक्रम के एक भाग के रूप में पेश किया। यह विधेयक धार्मिक सिद्धांतों और धर्म का खुला उल्लंघन थी।  ईरान की मुस्लिम जनता और धर्मगुरुओं ने शाह के व्यवहार का खुलकर विरोध किया। इस विधेयक में इस्लाम और ईश्वरीय किताब क़ुरआन को बड़ी सरलता से किनारे लगा दिया गया था अर्थात सांसदों के मुस्लिम होने की शर्त समाप्त हो गयी थी। इसी प्रकार क़ुरआन के बजाए हर आसमानी किताब पर हाथ रखकर सौगंध खाने की शर्त रख दी गयी थी। इसी प्रकार महिलाओं को चुनाव में शामिल होने और चुनाव करने का अधिकार दे दिया गया था।

इस विधेयक के लक्ष्य और उसके उद्देश्य पर एक नज़र डालने से कुछ और ही बात सामने आती है। शाह ने इस काम से कई लक्ष्य साधने का प्रयास किया। सबसे पहले वह धर्मगुरुओं से दो दो हाथ करना चाहता था और धर्मसमर्थकों और धर्म की ओर रुझान रखने वालों को मंच से किनारे लगाने के प्रयास में था ताकि फिर उसे धार्मिक नेतृत्व के सामने उसको संरक्षणवाद की आवश्यकता न हो।  दूसरा यह कि देश के आधिकारिक धर्म को ख़त्म करके तथा पवित्र क़ुरआन की शपथ के क़ानून को हटाकर उन ग़ैर मुस्लिम प्रभावी गुटों को अवसर दिया गया जो व्यवहारक रूप से देश की नीति निर्धारित करते थे ताकि वह आधिकारिक रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें। तीसरे यह कि शाह चाहता था कि महिलाओं की स्वतंत्रता का नाम देकर अतीत में महिलाओं के पिछड़ेपन और उनकी वंचितता की ज़िम्मेदारी इस्लाम और संविधान पर डाल दे।

इस विधेयक का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु महिलाओं की भागीदारी थी जो अपने आरंभिक और मूलभूत अधिकारों से वंचित थीं जिस प्रकार पुरुष भी वंचित थ। इस विधेयक के पास होने का लक्ष्य महिलाओं की स्वतंत्रता नहीं था बल्कि निरंकुशता, महिलाओं में बुराई और भ्रष्टाचार फैलाने और उन्हें पिछड़ा बनाने के लिए अमरीका और इस्राईल का षड्यंत्र था। इमाम ख़ुमैनी ने इस विषय की हक़ीक़त को समझते हुए कहा कि हम महिलाओं के विकास और उनकी प्रगति के विरोधी नहीं हैं बल्कि हम इस निरंकुशता के विरोधी हैं, इस ग़लत काम के विरोधी हैं क्या पुरुषों को इस देश में स्वतंत्रता हासिल है जो महिलाओं को हो? क्या महिलाओं और पुरुषों की स्वतंत्रता केवल शब्दों से ही सही हो सकती है?

इस विधेयक के धुर विरोधी इमाम ख़ुमैनी ने शाह और तत्कालीन प्रधानमंत्री असदुल्लाह अलम को टेलीग्राम करके अन्य धर्मगुरुओं के दृष्टिकोंधों को समन्वित करके इस विधेयक को शीघ्र ख़त्म करने की अपील की। वरिष्ठ धर्मगुरुओं ने पवित्र नगर क़ुम से एक टेलीग्राफ़ द्वारा इस विधेयक पर आपत्ति जतायी। सरकारी मंत्रीमंडल विधेयक के विरोध में होनी वाली आपत्ति से भयभीत होकर इस विधेयक को रद्द कर दिया और इसको लागू न करने योग्य बताया।

सरकार के इस विधेयक से पीछे हटते ही इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व मे शाही सरकार के विरुद्ध एक सामाजिक बंदोलन अस्तित्व में आ गया। इमाम ख़ुमैनी और धर्मगुरुओं द्वारा ज़मीन सुधार तथा प्रांतीय संघ विधेयक का विरोध, पहलवी शासन और साम्राज्यवादियों के शरीर पर गहरा घाव लगा और उसे सोच विचार करने पर विवश कर दिया। दुश्मन मज़बूत इरादा कर चुका था कि वह अपना कार्यक्रम व्यवहारिक बनाएगा और इस मार्ग में ईरानी जनता और उसके धर्मगुरुओं को सबसे बड़ी रुकावट समझ रही थी।

 

नववर्ष 1342 हिजरी शम्सी के निकट आते ही इमाम ख़ुमैनी ने घोषणा की कि ईरानी राष्ट्र, अमरीका, इस्राईल और पहलवी शासन की ओर से स्वाधीनता को पहुंचाए गये नुक़सानों के कारण नववर्ष नहीं मनाएगी और शोक मनाएगा। शाही परिवार ने क़ुम के धार्मिक स्कूल मदरसए फ़ैज़िया और तबरीज़ शहर के तालेबिया मदरसे पर हमला दिया जिससे बहुत अधिक नुक़सान पहुंचा।  शाही शासन की इस कार्यवाही से पता चला कि वह विदेशियों के लिए अपने राष्ट्र की बलि चढ़ाने को तैयार है। शाही सरकार ने हिंसक बर्ताव से लोगों के प्रदर्शनों को शांत करने का प्रयास किया किन्तु इमाम ख़ुमैनी ने इस अपराध के बाद जनता के मनोबल को बढ़ाते हुए संबोधित किया और कहा कि परेशान व चिंतित न हों, अपने से भय और ख़ौफ़ को दूर करें, आप लोग ऐसे नेता और नेतृत्वकर्ता हैं जिन्होंने कठिनाइयों और त्रासदियों में धैर्य और प्रतिरोध का प्रदर्शन किया। आपके महान नेताओं ने आशूरा और ग्यारह मुहर्रम की रात गुज़ारी और धर्म के मार्ग में बहुत अधिक कष्ट सहन किए। आज आप क्या कहते हैं? किस चीज़ से डरते हैं? बहुत बुरी बात है उन लोगों के लिए जो हज़रत अली और इमाम हुसैन के अनुयायी होने का दावा करते हैं, इस के प्रकार की बुराईयों और सरकार की दुष्टता पर चुप रहें, अत्याचारी शक्तियां यह त्रासदी करके अपनी पराजय और बर्बादी की तैयारी कर रही है, हम सफल हो गये। इस भाषण से लोगों में आत्याचारियों के विरुद्ध संघर्ष का मनोबल मिला और पहलवी शासन की वैधता पर प्रश्न चिन्ह लग गये।

वर्ष 1342 में, मदरसए फ़ैज़िया की घटना के कुछ महीने के बाद 15 ख़ुरदाद की क्रांति हुई जो स्थाई और प्रभावी सिद्ध हुई। यह क्रांति बड़े परिवर्तन की भूमिका बन गयी। 15 ख़ुरदाद वर्ष 1342 हिजरी शम्सी की सुबह, शाही परिवार के पिट्ठुओं ने पवित्र नगर क़ुम में इमाम ख़ुमैनी के घर पर हमला कर दिया और उनको गिरफ़्तार करके तेहरान पहुंचा दिया। इमाम ख़ुमैनी की गिरफ़्तारी की सूचना लगते ही 15 ख़ुरदाद वर्ष 1342 हिजरी शम्सी को क़ुम के बहुत से लोगों ने इमाम ख़ुमैनी के घर की ओर मार्च किया और उनके पत्र सैयद मुस्तफ़ा ख़ुमैनी की सहमति से दूसरे दिन सुबह छह बजे, हज़रत मासूमा के रौज़े की ओर मार्च किया। कुछ ही देर बाद मासूमए क़ुम का रौज़ा, सड़कें और गली कूचे लोगों से भर गये और लोग नारे लगा रहे थे कि या मौत या ख़ुमैनी। मौत या ख़ुमैनी के गगनभेदी नारों से पूर क़ुम गूंजने लगा। उसी समय क़ुम के धर्मगुरुओं ने इमाम ख़ुमैनी की रिहाई के लिए एक बयान जारी किया किन्तु शाही सरकार ने धर्मगुरुओं की यह बात स्वीकार नहीं की और उसने लोगों की मांगों का जवाब गोलियों से दिया। शाही सेना की इस कार्यवाही में दर्जनों लोग शहीद और घायल हो गये थे।

 

क़ुम की निहत्थी जनता पर शाही सरकार के हमले की सूचना के बाद तेहरान और दूसरे शहरों की जनता व्यापक प्रदर्शन किए। बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी सड़कों पर निकलने और उन्होंने इमाम ख़ुमैनी की रिहाई की मांग की। तेहरान के आसपास रहने वाले किसानों और मज़ूदूरों ने कफ़न पहन कर प्रदर्शन किए और तेहरान की ओर मार्च किया। शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों पर शाही प्रशासन ने हमला किया जिसमें कई लोग हताहत और घायल हुए।

रोचक बात यह है कि शाही सरकार की ओर से ज़बरदस्त सेंसर के बावजूद इमाम ख़ुमैनी की गिरफ़्तारी और 15 ख़ुरदाद की क्रांति की सूचना जंगल में आग की तरह फैल गयी और यह सूचना केवल देश में ही नहीं बल्कि सीमाओं को पार करते हुए पवित्र नगर नजफ, कर्बला और काज़मैन पहुंच गयी जहां के धार्मिक स्कूलों के धर्मगुरुओं, इस्लामी देशों के राष्ट्राध्यक्षों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रमुखों ने टेलीफ़ोन और टेलीग्राम द्वरा इमाम ख़ुमैनी के समर्थन की घोषणा और 15 ख़ुरदाद की घटना की निंदा की। इन सबके बावजूद शाही मीडिया चुप रही और उसने इस हवाले से एक भी समाचार प्रकाशित नहीं किया।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई 15 ख़ुरदाद के आंदोलन के बारे में कहते हैं कि 15 ख़ुरदाद वर्ष 1342 हिजरी शम्सी एक बहुत ही महत्वपूर्ण मोड़ था। इसका कारण यह है कि 15 ख़ुरदाद सन 1342 को एक घटना घटी थी, इस घटना ने उस संवेदनशील और ख़तरनाक चरण में धर्मगुरुओं से जनता के संबंधों को उजागर किया। उस वर्ष आशूर के दिन जो 13 ख़ुरदाद को पड़ा था, महान इमाम ख़ुमैनी ने मदरसे फ़ैज़िया में एक ऐतिहासिक और निर्णायक भाषण दिया। उसके बाद इमाम ख़ुमैनी को गिरफ़्तार कर लिया गया और सामान्य रूप से 15 ख़ुरदाद को तेहरान में क़ुम में और इसी प्रकार देश के दूसरे शहरों में जनता ने विशाल प्रदर्शन किए और 15 ख़ुरदाद को एक जनक्रांति अस्तित्व में आ गयी। 15 ख़ुरदाद की क्रांति के दौरान शाही परिवार की दुष्टता, पुलिस, सेना और सरकारी संस्था के षड्यंत्रों के बावजूद जनता भव्य रूप से सड़कों पर निकली। 15 ख़ुरदाद को सुरक्षा बलों और पुलिस ने जनता का व्यापक दमन किया, 15 ख़ुरदाद को एक जनक्रांति अस्तित्व में आई, इससे पता चलता है कि जनता, धर्मगुरुओं, वरिष्ठ धर्मगुरुओं के साथ है जिसका प्रतीक इमाम ख़ुमैनी थे, एक मज़बूत संबंध है। महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि यही संबंध, क्रांति की प्रगति, उसके चरम सीमा पर पहुंचने और उसकी सफलता की गैरेंटी बन गया। जहां पर एक क्रांति या कार्यवाही जनता पर भरोसा किए हुए हो और जनता उसके साथ हो, यह क्रांति जारी रहने वाली है किन्तु यदि जनता एक विरोध प्रदर्शन में शामिल न हो तो वह विफल हो जाएगी। (AK)

 

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