Dec ०५, २०१८ १४:२४ Asia/Kolkata

विवाह एक ईश्वरीय व धार्मिक आदेश है जो मनुष्य को परिपूर्णता तक पहुंचाता है और उसकी आत्मा को शांति प्रदान करता है।

विवाह में एक अहम कारक, व्यक्ति की आयु है। बहुत से लोग पूछते हैं कि किस आयु में विवाह करना चाहिए? निश्चित रूप से विवाह के लिए शारिरिक विकास के साथ ही मानसिक व सामाजिक विकास भी ज़रूरी है। युवाकाल के आरंभ में ही लड़कियां प्रायः शादी के बारे में सोचने लगती हैं लेकिन लड़क इस आयु में शादी के इच्छुक नहीं होते। शादी युवाओं के शारीरिक व मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति का एकमात्र वैध मार्ग है लेकिन एक सफल विवाह के लिए मानसिक, भौतिक और सामाजिक तैयारी भी ज़रूरी है। यही कारण है कि विशेषज्ञ लड़कियों के लिए विवाह की उचित आयु 18 से 24 साल और लड़कों के लिए 24 से 28 साल बताते हैं।

ईरान के एक समाजशास्त्री डाक्टर बहराम नवाबीफ़र कहते हैं कि दंपति की आयु में अंतर जितना कम होगा उतना ही उनके वैवाहिक जीवन में समस्याएं कम होंगी। मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टि से एक सफल विवाह के लिए पति और पत्नी की आयु में पांच से सात साल का अंतर उचित होता है। भावनात्मक विवाह उन शादियों को कहते हैं जिनमें युवती की आयु युवा से पांच साल अधिक हो और इस प्रकार की अधिकांश शादियों में पति पत्नी अधिकतर धन और सौंदर्य जैसे लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं और वे विवाह को एक लाभदायक सौदे के रूप में देखते हैं।

नवाबीफ़र कहते हैं कि जिन मामलों में पति पत्नी की आयु में काफ़ी अंतर होता है उनमें संभावित रूप से दिल टूटने की समस्या सामने आती है। जैसे उदाहरण स्वरूप जब एक 35 साल की महिला 25 साल के युवा से शादी करती है तो जब वह 45 या 55 की होती है तब उसका पति जवानी के चरम पर होता है और ऐसे समय में भावनात्मक विवाह के कुपरिणाम सामने आते हैं और दोनों के बीच जुदाई और तलाक़ तक की नौबत आ सकती है। धार्मिक शिक्षाओं के अनुसार बेहतर है कि इंसान युवाकाल में आयु के उचित अंतर के साथ अपने जोड़े का चयन करे।

 

ईरानी घराने की एक विशेषता बच्चों के प्रति माता-पिता की ज़िम्मेदारी की भावना है। माता-पिता की ओर से बच्चे का भरपूर समर्थन और हर संभव मदद और उसके आराम व स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के संबंध में ज़िम्मेदारी, ईरानी परिवार के गठन के आधारों में से एक है। ईरानी परिवार की दृष्टि में बच्च वह अनुकंपा है जो ईश्वर ने माता-पिता को प्रदान की है। हदीस में है कि बच्चा, बरकत का कारण है और उसे स्वर्ग के फूलों में से एक और ईमान वाले के दिल का टुकड़ा बताया गया है।

 

बच्चों के संबंध में माता-पिता की मूल ज़िम्मेदारी उनका सही प्रशिक्षण है। इस बात पर ध्यान बच्चे के गर्भ में आने से पहले से ही रखा जाता है और गर्भ के दौरान, जन्म के समय, बचपन और उसके बाद तक जारी रहता है। यह बात इतनी अहम है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कहा हैः अगर तुममें से प्रत्येक अपने बच्चे का प्रशिक्षण करे तो यह उसके लिए इससे बेहतर है कि अपनी प्रतिदिन की आय का आधा भाग ईश्वर के मार्ग में दान कर दे। पैग़म्बरे इस्लाम के इस कथन के अनुसार माता-पिता, सही प्रशिक्षण द्वारा अपने बच्चों के लिए उत्तम धरोहर छोड़ कर जाते हैं। वे कहते हैं कि बच्चे के लिए शिष्टाचार और सही प्रशिक्षण से बेहतर कोई धरोहर नहीं है।

 

आधुनिकीकरण की प्रक्रिया और सामाजिक आधारों के नवीनीकरण में बच्चों के प्रति माता-पिता के समर्थन और मदद में भी काफ़ी उतार-चढ़ाव आए हैं। बच्चों के साथ माता-पिता का संपर्क पहले स्वीकार्यक सामाजिक संस्कारों और माता-पिता की मर्ज़ी के अनुसार होता था लेकिन अब यह संपर्क नए ज़माने के अनुसार हो गया है। अतीत में महिला और पुरुष की भूमिकाओं के अलग होने के कारण महिला को पूरी तरह से बच्चों की देखभाल का ज़िम्मेदार माना जाता था और पुरुष, परिवार के आर्थिक समर्थन का ज़िम्मेदार होता था। आज सरकारी व्यवस्थाओं के चलते परिवारों की एकजुटता कम हो गई है लेकिन इसने सभी चिंताओं को दूर नहीं किया है। हालिया दशकों में आर्थिक परिवर्तन भी पारिवारिक एकजुटता और सार्वजनिक मान्यताओं को कम करने में प्रभावी रहे हैं। अतीत में बड़े घराने, समस्याओं का सामना करने विशेष कर परिवार के गठन के समय, सहायक की भूमिका निभाया करते थे लेकन आज के जीवन में उनकी उस प्रकार की भूमिका नहीं रह गई है। इसके बावजूद ईरान में संयुक्त परिवार अब भी बच्चों के समर्थक और सहायक की अपनी भूमिका को सुरक्षित रखे हुए हैं।

 

ईरान में आंकड़े और सर्वेक्षण यह दर्शाते हैं कि माता-पिता को अपने बच्चों के लिए अधिकतम प्रयास करना चाहिए और इस मामले में अन्य देशों व संस्कृतियों तथा ईरानी समाज के बीच एक अर्थपूर्ण अंतर पाया जाता है। अन्य देशों व समाजों में बच्चों के संबंध में माता-पिता के दायित्वों व समर्थन में निरंतर गिरावट देखने में आ रही है लेकिन ईरानी समाज में आज भी माता-पिता अपने बच्चों के प्रति भारी दायित्व का आभास करते हैं। ईरानी माता-पिता बच्चों के शिष्टाचार, उनके प्रशिक्षण, उनकी योग्यताओं को निखारने और उनके जीवन को बेहतर से बेहतर बनाने के संबंध में अधिक ज़िम्मेदारी महसूस करते हैं।

दांपत्य जीवन में हमेशा उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इस रास्त में आने वाले उतार-चढ़ावों में से एक पति-पत्नी के बीच पैदा होने वाला तनाव है। अलबत्ता यह तनाव बड़ा स्वाभाविक है लेकिन इस संबंध में जो बात अहम है वह यह है कि इस प्रकार की समस्याओं से किस प्रकार निपटा जाता है ताकि उनके प्रेम में किसी प्रकार की दरार न आने पाए। पति-पत्नी का एक दूसरे से क्षमा मांगना, वह व्यवहार है जो दांपत्य जीवन को प्रेम से भर देता है।

स्वाभाविक है कि अगर पति या पत्नी में से कोई एक ग़लती करे और दूसरे को दुखी कर दे तो घराना, जो प्रेम व स्नेह का स्थान है, डगमगा जाता है। अगर ग़लती के बाद क्षमा याचना न हो तो इसका बुरा प्रभाव दूसरे के दिल में हमेशा बाक़ी रहता है क्योंकि वह ग़लती करने वाले हमेशा अपनी आंखों के सामने पाता है और इस प्रकार घर में एक प्रकार की घृणा पैदा हो जाती है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मैं क्षमा चाहता हूं या मैं क्षमा चाहती हूं के वाक्य को समस्याओं के समाधान की कुंजी के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। अकसर देखा गया है कि दंपतियों के बीच तनाव के दौरान, क्षमा याचना से बिगड़ी बात सुलझ जाती है।

क्षमा याचना के संबंध में तीन बातों को हमेशा याद रखना चाहिए। पहली यह कि जब भी पति-पत्नी में से कोई क्षमा मांगे तो दूसरा उसे क्षमा कर दे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि सबसे बुरा व्यक्ति वह है जो दूसरों की क्षमा याचना को स्वीकार न करे और उनकी ग़लतियों को माफ़ न करे। दूसरी बात यह है कि क्षमा याचना, ग़लती के अनुपात में होनी चाहिए, उससे कम या ज़्यादा नहीं। और तीसरी बात यह है कि ग़लती न करना, माफ़ी मांगने से बेहतर है।

इस संबंध में इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि घराना एक समझौता है। किसी स्वाभाविक बात ने दो चीज़ों को एक दूसरे से नहीं जोड़ा है बल्कि यह एक आपसी विषय है। इस समझौते का टिकाऊ होना इस बात पर निर्भर है कि इसके दोनों पक्ष, समाज और क़ानून इसका सम्मान करें। अगर इसका ध्यान नहीं रखा जाएगा तो यह बाक़ी नहीं रहेगा। लड़के-लड़की दोनों को कोशिश करनी चाहिए कि इस रिश्ते की रक्षा करें। उनका दायित्व यह नहीं है कि दूसरे ने जो भी किया हो उसे सहन करें, नहीं बल्कि दोनों को एक दूसरे की मदद करनी चाहिए ताकि यह काम हो सके। यह तो नहीं कहा जा सकता कि पति का हिस्सा अधिक है या पत्नी का हिस्सा ज़्यादा है, दोनों ही इस दो सदस्यीय इकाई की रक्षा के लिए ज़िम्मदार हैं जिसकी संख्या बाद में बढ़ती जाती है। हर उस चीज़ से दूर रहना चाहिए जो घराने में तनाव और अवसाद का कारण बने। (HN)